श्री उच्छिष्ट गणेश कवचं | Shri Uchchhishta Ganesh Kavacham
Shri Uchchhishta Ganesh Kavach Lyrics in Sanskrit: उच्छिष्ट अर्थात संसार के नष्ट हो जाने के उपरांत भी रहने वाला; तथा कवच अर्थात शरीर के रक्षा के लिए पहना जाने वाला आवरण। संसार के नष्ट हो जाने पर भी विद्यमान रहने वाले ऐसे श्री गणेश प्रणाम करते हुए सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए श्रीउच्छिष्ट-गणेश कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए।
श्री उच्छिष्ट गणेश कवचं
अथ श्रीउच्छिष्टगणेशकवचं प्रारम्भः
देव्युवाच
देवदेव जगन्नाथ सृष्टिस्थितिलयात्मक ।
विना ध्यानं विना मन्त्रं विना होमं विना जपम् ॥ १॥
येन स्मरणमात्रेण लभ्यते चाशु चिन्तितम् ।
तदेव श्रोतुमिच्छामि कथयस्व जगत्प्रभो ॥ २॥
ईश्वर उवाच
श्रुणु देवी प्रवक्ष्यामि गुह्याद्गुह्यतरं महत् ।
उच्छिष्टगणनाथस्य कवचं सर्वसिद्धिदम् ॥ ३॥
अल्पायासैर्विना कष्टैर्जपमात्रेण सिद्धिदम् ।
एकान्ते निर्जनेऽरण्ये गह्वरे च रणाङ्गणे ॥ ४॥
सिन्धुतीरे च गङ्गायाः कूले वृक्षतले जले ।
सर्वदेवालये तीर्थे लब्ध्वा सम्यग्जपं चरेत् ॥ ५॥
स्नानशौचादिकं नास्ति नास्ति निर्वंधनं प्रिये ।
दारिद्र्यान्तकरं शीघ्रं सर्वतत्त्वं जनप्रिये ॥ ६॥
सहस्रशपथं कृत्वा यदि स्नेहोऽस्ति मां प्रति ।
निन्दकाय कुशिष्याय खलाय कुटिलाय च ॥ ७॥
दुष्टाय परशिष्याय घातकाय शठाय च ।
वञ्चकाय वरघ्नाय ब्राह्मणीगमनाय च ॥ ८॥
अशक्ताय च क्रूराय गुरूद्रोहरताय च ।
न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचन ॥ ९॥
गुरूभक्ताय दातव्यं सच्छिष्याय विशेषतः ।
तेषां सिध्यन्ति शीघ्रेण ह्यन्यथा न च सिध्यति ॥ १०॥
गुरूसन्तुष्टिमात्रेण कलौ प्रत्यक्षसिद्धिदम् ।
देहोच्छिष्टैः प्रजप्तव्यं तथोच्छिष्टैर्महामनुः ॥ ११॥
आकाशे च फलं प्राप्तं नान्यथा वचनं मम ।
एषा राजवती विद्या विना पुण्यं न लभ्यते ॥ १२॥
अथ वक्ष्यामि देवेशि कवचं मन्त्रपूर्वकम् ।
येन विज्ञातमात्रेण राजभोगफलप्रदम् ॥ १३॥
ऋषिर्मे गणकः पातु शिरसि च निरन्तरम् ।
त्राहि मां देवि गायत्रीछन्दो ऋषिः सदा मुखे ॥ १४॥
हृदये पातु मां नित्यमुच्छिष्टगणदेवता ।
गुह्ये रक्षतु तद्बीजं स्वाहा शक्तिश्च पादयोः ॥ १५॥
कामकीलकसर्वाङ्गे विनियोगश्च सर्वदा ।
पार्श्वर्द्वये सदा पातु स्वशक्तिं गणनायकः ॥ १६॥
शिखायां पातु तद्बीजं भ्रूमध्ये तारबीजकम् ।
हस्तिवक्त्रश्च शिरसी लम्बोदरो ललाटके ॥ १७॥
उच्छिष्टो नेत्रयोः पातु कर्णौ पातु महात्मने ।
पाशाङ्कुशमहाबीजं नासिकायां च रक्षतु ॥ १८॥
भूतीश्वरः परः पातु आस्यं जिह्वां स्वयंवपुः ।
तद्बीजं पातु मां नित्यं ग्रीवायां कण्ठदेशके ॥ १९॥
गंबीजं च तथा रक्षेत्तथा त्वग्रे च पृष्ठके ।
सर्वकामश्च हृत्पातु पातु मां च करद्वये ॥ २०॥
उच्छिष्टाय च हृदये वह्निबीजं तथोदरे ।
मायाबीजं तथा कट्यां द्वावूरू सिद्धिदायकः ॥ २१॥
जङ्घायां गणनाथश्च पादौ पातु विनायकः ।
शिरसः पादपर्यन्तमुच्छिष्टगणनायकः ॥ २२॥
आपादमस्तकान्तं च उमापुत्रश्च पातु माम् ।
दिशोऽष्टौ च तथाकाशे पाताले विदिशाष्टके ॥ २३॥
अहर्निशं च मां पातु मदचञ्चललोचनः ।
जलेऽनले च सङ्ग्रामे दुष्टकारागृहे वने ॥ २४॥
राजद्वारे घोरपथे पातु मां गणनायकः ।
इदं तु कवचं गुह्यं मम वक्त्राद्विनिर्गतम् ॥ २५॥
त्रैलौक्ये सततं पातु द्विभुजश्च चतुर्भुजः ।
बाह्यमभ्यन्तरं पातु सिद्धिबुद्धिर्विनायकः ॥ २६॥
सर्वसिद्धिप्रदं देवि कवचमृद्धिसिद्धिदम् ।
एकान्ते प्रजपेन्मन्त्रं कवचं युक्तिसंयुतम् ॥ २७॥
इदं रहस्यं कवचमुच्छिष्टगणनायकम् ।
सर्ववर्मसु देवेशि इदं कवचनायकम् ॥ २८॥
एतत्कवचमाहात्म्यं वर्णितुं नैव शक्यते ।
धर्मार्थकाममोक्षं च नानाफलप्रदं नृणाम् ॥ २९॥
शिवपुत्रः सदा पातु पातु मां सुरार्चितः ।
गजाननः सदा पातु गणराजश्च पातु माम् ॥ ३०॥
सदा शक्तिरतः पातु पातु मां कामविह्वलः ।
सर्वाभरणभूषाढयः पातु मां सिन्दूरार्चितः ॥ ३१॥
पञ्चमोदकरः पातु पातु मां पार्वतीसुतः ।
पाशाङ्कुशधरः पातु पातु मां च धनेश्वरः ॥ ३२॥
गदाधरः सदा पातु पातु मां काममोहितः ।
नग्ननारीरतः पातु पातु मां च गणेश्वरः ॥ ३३॥
अक्षयं वरदः पातु शक्तियुक्तिः सदाऽवतु ।
भालचन्द्रः सदा पातु नानारत्नविभूषितः ॥ ३४॥
उच्छिष्टगणनाथश्च मदाघूर्णितलोचनः ।
नारीयोनिरसास्वादः पातु मां गजकर्णकः ॥ ३५॥
प्रसन्नवदनः पातु पातु मां भगवल्लभः ।
जटाधरः सदा पातु पातु मां च किरीटिकः ॥ ३६॥
पद्मासनास्थितः पातु रक्तवर्णश्च पातु माम् ।
नग्नसाममदोन्मत्तः पातु मां गणदैवतः ॥ ३७॥
वामाङ्गे सुन्दरीयुक्तः पातु मां मन्मथप्रभुः ।
क्षेत्रपः पिशितं पातु पातु मां श्रुतिपाठकः ॥ ३८॥
भूषणाढ्यस्तु मां पातु नानाभोगसमन्वितः ।
स्मिताननः सदा पातु श्रीगणेशकुलान्वितः ॥ ३९॥
श्रीरक्तचन्दनमयः सुलक्षणगणेश्वरः ।
श्वेतार्कगणनाथश्च हरिद्रागणनायकः ॥ ४०॥
पारभद्रगणेशश्च पातु सप्तगणेश्वरः ।
प्रवालकगणाध्यक्षो गजदन्तो गणेश्वरः ॥ ४१॥
हरबीजगणेशश्च भद्राक्षगणनायकः ।
दिव्यौषधिसमुद्भूतो गणेशाश्चिन्तितप्रदः ॥ ४२॥
लवणस्य गणाध्यक्षो मृत्तिकागणनायकः ।
तण्डुलाक्षगणाध्यक्षो गोमयश्च गणेश्चरः ॥ ४३॥
स्फटिकाक्षगणाध्यक्षो रुद्राक्षगणदैवतः ।
नवरत्नगणेशश्च आदिदेवो गणेश्वरः ॥ ४४॥
पञ्चाननश्चतुर्वक्त्रः षडाननगणेश्वरः ।
मयूरवाहनः पातु पातु मां मूषकासनः ॥ ४५॥
पातु मां देवदेवेशः पातु मामृषिपूजितः ।
पातु मां सर्वदा देवो देवदानवपूजितः ॥ ४६॥
त्रैलोक्यपूजितो देवः पातु मां च विभुः प्रभुः ।
रङ्गस्थं च सदा पातु सागरस्थं सदाऽवतु ॥ ४७॥
भूमिस्थं च सदा पातु पातलस्थं च पातु माम् ।
अन्तरिक्षे सदा पातु आकाशस्थं सदाऽवतु ॥ ४८॥
चतुष्पथे सदा पातु त्रिपथस्थं च पातु माम् ।
बिल्वस्थं च वनस्थं च पातु मां सर्वतस्तनम् ॥ ४९॥
राजद्वारस्थितं पातु पातु मां शीघ्रसिद्धिदः ।
भवानीपूजितः पातु ब्रह्माविष्णुशिवार्चितः ॥ ५०॥
इदं तु कवचं देवि पठनात्सर्वसिद्धिदम् ।
उच्छिष्टगणनाथस्य समन्त्रं कवचं परम् ॥ ५१॥
स्मरणाद्भूपतित्वं च लभते साङ्गतां ध्रूवम् ।
वाचः सिद्धिकरं शीघ्रं परसैन्यविदारणम् ॥ ५२॥
प्रातर्मध्याह्नसायाह्ने दिवा रात्रौ पठेन्नरः ।
चतुर्थ्यां दिवसे रात्रौ पूजने मानदायकम् ॥ ५३॥
सर्वसौभाग्यदं शीघ्रं दारिद्र्यार्णवघातकम् ।
सुदारसुप्रजासौख्यं सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ॥ ५४॥
जलेऽथवाऽनलेऽरण्ये सिन्धुतीरे सरित्तटे ।
स्मशाने दूरदेशे च रणे पर्वतगह्वरे ॥ ५५॥
राजद्वारे भये घोरे निर्भयो जायते ध्रुवम् ।
सागरे च महाशीते दुर्भिक्षे दुष्टसङ्कटे ॥ ५६॥
भूतप्रेतपिशाचादियक्षराक्षसजे भये ।
राक्षसीयक्षिणीक्रूराशाकिनीडाकीनीगणाः ॥ ५७॥
राजमृत्युहरं देवि कवचं कामधेनुवत् ।
अनन्तफलदं देवि सति मोक्षं च पार्वति ॥ ५८॥
कवचेन विना मन्त्रं यो जपेद्गणनायकम् ।
इह जन्मानि पापिष्ठो जन्मान्ते मूषको भवेत् ॥ ५९॥
इति परमरहस्यं देवदेवार्चितस्य कवचमुदितमेतत्पार्वतीशेन देव्यै ।
पठति स लभ्यते वैभक्तितो भक्तवर्यः प्रचुरसकलसौख्यं शक्तिपुत्रप्रसादात् ॥ ६०॥
॥ इति श्रीरुद्रयामलतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्रीमदुच्छिष्टगणेशकवचं समाप्तम् ॥
हिन्दी अनुवाद-
कवच मंत्र के गणक ऋषि सदा मेरे शिर की रक्षा तथा देवी गायत्री मेरे मुख की रक्षा करें।
मेरे हृदय की उच्छिष्ट गणनायक देवता सदैव रक्षा करें। उच्छिष्ट गणपति के बीज मेरे गुह्य प्रदेश की तथा स्वाहा शक्ति मेरे पैरों सदैव रक्षा करें।
काम सदैव मेरे सभी अंगों की रक्षा करें तथा गणनायककी शक्ति मेरे दोनों पृष्ठ भागों की हमेशा रक्षा करें।
मेरे शिखा की गणनायक का बीज मंत्र रक्षा करें एवं भ्रूमध्य की तारक बीज (ॐ) सदा रक्षा करें।
हस्ति वक्त्र गणेश मेरे सिर की एवं लम्बोदर भगवान ललाट की सदैव रक्षा करें।
पाश, अंकुश एवं महाबीज ये तीनों मेरी नासिका की सदैव रक्षा करे तथा भूतीश्वर (स्वामी) मेरी जिह्वा की रक्षा करें।
मेरे ग्रीवा एवं कण्ठ की भृतीश्वर भगवान के मंत्र में निहित बीज सदा रक्षा करे एवं गं बीज मंत्र मेरी त्वचा तथा पृष्ठ भाग की सदैव रक्षा करें।
सर्वकाम प्रभु मेरे हृदय तथा मेरे दोनों हाथों की सदा रक्षा करें।
भगवान उच्छिष्ट गणपति सदैव मेरे हृदय की रक्षा करें। एवं अग्नि बीज (रं) सदैव मेरे उदर की रक्षा करें।
माया बीज मेरे कटि प्रदेश की सिद्धिदायक प्रभु गणेश मेरे दोनों जंघाओं की सदैव रक्षा करे
गणनाथ मेरे उरु प्रदेश की तथा विनायक भगवान मेरै दोनों पैरों की सदैव रक्षा करें।
मेरे सिर से पैर तक तक सभी अंगों की भगवान उच्छिष्ट गणनायक सदैव रक्षा करे तथा मेरे पैरों सेसिर तक के सम्पूर्ण अंगों की उमापुत्र प्रभु सदैव रक्षा करें।
दिन एवं रात्रिकाल में दिशाओं विदिशाओं में, आकाश तथा पाताल मद लोचन प्रभु मेरी सदैव रक्षा करें।
जल में, अग्नि रण में, कारागृह बन में, राजद्वार में, घोर पथ में सभी में भगवान गणनायक सदैव मेरी रक्षा करें।
देवो द्वारा सेवित, अर्चित पूजित शिवपुत्र सदैव मेरी रक्षा करें एवं गजानन गणराज प्रभु भी मेरी रक्षा करें।
सदाशक्तिरत प्रभु जो काम विहवल नाम से जाने जाते हैं वे मेरी सदा रक्षा करें।
सकल आभूषणों से विभूषित एवं सिन्दूर से जिनकी अर्चना की जाती है वो प्रभु सदैव मेरी रक्षा करें।
पंचमोदकरः वे पार्वती पुत्र मेरी सदैव रक्षा करे एवं पाश तथा अंकुश धारण करने वाले वे धनेश्वर प्रभु मेरी सदैव मेरी रक्षा करें।
गदाधर एवं काममोहित स्वरूप वाले वे गणनायक प्रभु मेरी हमेशा रक्षा करें।
कामरत वे गणेश्वर प्रभु मेरी बारम्बार रक्षा करें एवं शक्तियुक्त वे प्रभु अक्षय वरदान प्रदान करनेवाले वो हमेशा हम मेरी रक्षा करें।
नाना रत्नो एवं चन्द्रमा विभूषित वे भालचन्द्र प्रभु मेरी हमेशा सदैव रक्षा करें एवं मदघूर्णितलोचन वाले वे
उच्छिष्ट गणनायक मेरी सदा रक्षा करें।
गजकर्णक प्रसन्नमुख वाले तथा दिव्य मुकुट विभिषित वे प्रभु श्री गणेश मेरी रक्षा करें।
भगवल्लभ एवं जटाधर स्वरूप वाले वे देव गणनायक बारम्बार मेरी हमेशा रक्षा करें।
पद्मासन स्थित वे देव जिनकी रक्त वर्ण की कांति है वे हमेशा मेरी हमेशा रक्षा करें करें उन्मत्त नग्न एवं गान प्रिय वे गणदेवता मेरी सदा रक्षा करें।
जिनके बामांंग में सुंदरी शोभायमान वह मन्मथ प्रभु सदैव अपनी शक्ति के साथ मेरी रक्षा करें।
श्रृति पाठक सभी क्षेत्रों में विराजमान वे सर्वव्यापी प्रभु बारम्बार रक्षा करें।
कुलीन, कुलाचार मुक्त, प्रसन्न मुख वाले थे कुलान्वित प्रभु मेरी सदैव रक्षा करें।
रक्त चन्दनमय एवं सुन्दर लक्षणों वाले वे गणेश्वर प्रभु सदा मेरी रक्षा करें।
श्वेतार्क गणनाथ, हरिद्रा गणनायक, परिभद गणेश एवं सप्त गणेश्वर स्वरूप मेरी सदैव रक्षा करें।
गणाध्यक्ष, गजदन्त, गणेश्वर, हर बीज गणेश, भद्राक्ष गणनायक, दिव्य अ उत्पन्न अभीष्ट फलों को प्रदान करने वाले श्रीगणेश, लवण के गणाध्यक्ष गणेश्वर, तण्डुलाक्ष गणाध्यक्ष, मृत्तिका गणनायक, स्फटिकाक्ष गणाध्यक्ष गणदेवता, नवरत्न गणेश, आदिदेव गणेश्वर ये सभी भगवान उच्छिष्ट गणपति स्वरूप सदैव मेरी रक्षा करें, रक्षा करें।
मयूर वाहन, मूषकासन स्थित तथा देव एवं दानवों द्वारा पूजित वे श्रीगणपति सदैव मेरी रक्षा करें।
त्रैलोक्य पूजित वे प्रभु जो रंग, रूप, सागर आदि सर्वत्र व्याप्त हैं वे हमेशा मेरी रक्षा करे
भूमि, पाताल, अंतरिक्ष, आकाश, चतुष्पथ, त्रिपथ, बिल्ववृक्ष एवं थानों में स्थित वे गणेश्वर प्रभु मेरी बारम्बार रक्षा करें।
राजद्वार में स्थित वे प्रभु सदैव मेरी रक्षा करें एवं ब्रह्मा, विष्णु तथा भवानी द्वारा तथा भगवान शिव के द्वारा भी जिनकी अर्चना की जाती है गणेश सदैव मेरी रक्षा करें।
फलश्रुति-
देवि इस कवच का पाठ सर्वसिद्धि प्रदान करने वाला है। उच्छिष्ट गणपति के मंत्र के साथ साथ इस कवच का पाठ करने पर साधक सकल मनोरथों को कवच के स्मरण मात्र से राजत्व की त्वरित गति से प्राप्ति होती है।
यह कवच वाकसिद्धि प्रदाता एवं शत्रु सेना का त्वरित गति से समूल विनाश करने वाला है।
इस कवच का प्रात: मध्यान्ह एवं सायंकाल तीनों कालों में पाठ करने वाला साधक अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेता है।
चतुर्थी के दिन प्रातः एवं रात्रिकाल इन दोनों समय पर जो साधक भगवान गणपति की पूजा के उपरांत इसका पाठ करता है वो सर्वसौभाग्य एवं प्रचुर यश को प्राप्त करता है।
इस कवच का पाठ दरिद्रता समूल नाश करने वाला यह कवच सुलक्षणापत्नी, पुत्र एवं सर्वसिद्धि को प्रदान करता है।
जल अग्नि, वायु, तट, श्मशान, विदेश, रण, पर्वत गुफा, राजस महाशीत, अकाल आदि सभी भयप्रद स्थानों इस कवच पाठ करने वाला सदैव निर्भय कवचित रहता है।
भूत-प्रेत-पिशाच कृत पीड़ाएं, एवं राक्षसों द्वारा उत्पन्न बाधाएं, यक्षिणी कर शाकिनी तथा डाकिनी आदि द्वारा होने वाले भय, इन सभी भयों से इस कवच का पाठकर्ता सदैव मुक्त रहता है इस कवच पाठ करने वाले साधक को कोई भी दुष्ट शक्ति, क्षति नहीं पहुँचा सकती है।
सर्वप्रकार मृत्यु का हरण करने वाला एवं अनंत पुण्य फलों को प्रदान करने वाला कवच साक्षात् कामधेनु सदृश है।
देवि! इस कवच बिना उच्छिष्ट गणनायक मंत्र की साधना करता वह इस जन्म में पापीतथा अगले जन्म मूषक बनता है। अतः देवों के द्वारा भी जिस कवच का
पाठ किया जाता ऐसे दिव्य कवच का साधक नित्य श्रद्धापूर्वक पाठ करें।
इस गोपनीय कवच को भगवती पार्वती की प्रसन्नता हेतु भगवान शिव ने प्रकट किया था
इस कवच का नित्य पाठ करता वो भगवान गणपति के भक्तों में श्रेष्ठतम भक्त के पद को प्राप्त करता है।
साथ ही शक्तिपुत्र की कृपा से वह भक्त सकल सुखों को भी सहज रूप से प्राप्त कर लेता है इसमें कोई संशय नही है।