उत्तर काण्ड (दोहा 91 से 130) | Complete Ramcharitmanas in Hindi
उत्तर काण्ड (दोहा 91 से 130)
दोहा :
मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव
त्रास॥91 क॥
भावार्थ :-अरबों पवन के समान उनमें महान् बल है और अरबों सूर्यों के समान
प्रकाश है। अरबों चंद्रमाओं के समान वे शीतल और संसार के समस्त भयों का नाश करने
वाले हैं॥91 (क)॥
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष
भगवंत॥91 ख॥
भावार्थ :-अरबों कालों के समान वे अत्यंत दुस्तर, दुर्गम और दुरंत हैं। वे भगवान् अरबों धूमकेतुओं (पुच्छल तारों) के समान अत्यंत प्रबल हैं॥91 (ख)॥
चौपाई
:
प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला॥
तीरथ अमित कोटि सम पावन।
नाम अखिल अघ पूग नसावन॥1॥
भावार्थ :-अरबों पातालों के समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजों के समान
भयानक हैं। अनंतकोटि तीर्थों के समान वे पवित्र करने वाले हैं। उनका नाम संपूर्ण
पापसमूह का नाश करने वाला है॥1॥
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा॥
कामधेनु सत कोटि समाना।
सकल काम दायक भगवाना॥2॥
भावार्थ :-श्री रघुवीर करो़ड़ों हिमालयों के समान अचल (स्थिर) हैं और
अरबों समुद्रों के समान गहरे हैं। भगवान् अरबों कामधेनुओं के समान सब कामनाओं
(इच्छित पदार्थों) के देने वाले हैं॥3॥
सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई॥
बिष्नु कोटि सम पालन
कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता॥3॥
भावार्थ :-उनमें अनंतकोटि सरस्वतियों के समान चतुरता है। अरबों ब्रह्माओं
के समान सृष्टि रचना की निपुणता है। वे करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करने वाले
और अरबों रुद्रों के समान संहार करने वाले हैं॥3॥
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना॥
भार धरन सत कोटि अहीसा।
निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा॥4॥
भावार्थ :-वे अरबों कुबेरों के समान धनवान् और करोड़ों मायाओं के समान सृष्टि के खजाने हैं। बोझ उठाने में वे अरबों शेषों के समान हैं। (अधिक क्या) जगदीश्वर प्रभु श्री रामजी (सभी बातों में) सीमारहित और उपमारहित हैं॥4॥
छंद
:
निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत
अति लघुता लहै॥
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं।
प्रभु
भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं॥
भावार्थ :-श्री रामजी उपमारहित हैं, उनकी कोई दूसरी उपमा है ही नहीं। श्री
राम के समान श्री राम ही हैं, ऐसा वेद कहते हैं। जैसे अरबों जुगनुओं के समान कहने
से सूर्य। (प्रशंसा को नहीं वरन) अत्यंत लघुता को ही प्राप्त होता है (सूर्य की
निंदा ही होती है)। इसी प्रकार अपनी-अपनी बुद्धि के विकास के अनुसार मुनीश्वर
श्री हरि का वर्णन करते हैं, किंतु प्रभु भक्तों के भावमात्र को ग्रहण करने वाले
और अत्यंत कपालु हैं। वे उस वर्णन को प्रेमसहित सुनकर सुख मानते हैं।
दोहा :
रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि
सुनायउँ सोइ॥92 क॥
भावार्थ :-श्री रामजी अपार गुणों के समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है? संतों से मैंने जैसा कुछ सुना था, वही आपको सुनाया॥92 (क)॥
सोरठा
:
भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन॥92
ख॥
भावार्थ :-सुख के भंडार, करुणाधाम भगवा्न भाव (प्रेम) के वश हैं। (अतएव) ममता, मद और मान को छोड़कर सदा श्री जानकीनाथजी का ही भजन करना चाहिए॥92 (ख)॥
चौपाई
:
सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए॥
नयन नीर मन अति हरषाना।
श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥1॥
भावार्थ :-भुशुण्डिजी के सुंदर वचन सुनकर पक्षीराज ने हर्षित होकर अपने
पंख फुला लिए। उनके नेत्रों में (प्रेमानंद के आँसुओं का) जल आ गया और मन अत्यंत
हर्षित हो गया। उन्होंने श्री रघुनाथजी का प्रताप हृदय में धारण किया॥1॥
पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना॥
पुनि पुनि काग चरन
सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा॥2॥
भावार्थ :-वे अपने पिछले मोह को समझकर (याद करके) पछताने लगे कि मैंने
अनादि ब्रह्म को मनुष्य करके माना। गरुड़जी ने बार-बार काकभुशुण्डिजी के चरणों पर
सिर नवाया और उन्हें श्री रामजी के ही समान जानकर प्रेम बढ़ाया॥2॥
गुर बिनु भव निध तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि
ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता॥3॥
भावार्थ :-गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्माजी और
शंकरजी के समान ही क्यों न हो। (गरुड़जी ने कहा-) हे तात! मुझे संदेह रूपी सर्प
ने डस लिया था और (साँप के डसने पर जैसे विष चढ़ने से लहरें आती हैं वैसे ही)
बहुत सी कुतर्क रूपी दुःख देने वाली लहरें आ रही थीं॥3॥
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक॥
तव प्रसाद मम मोह नसाना।
राम रहस्य अनूपम जाना॥4॥
भावार्थ :-आपके स्वरूप रूपी गारुड़ी (साँप का विष उतारने वाले) के द्वारा
भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी ने मुझे जिला लिया। आपकी कृपा से मेरा मोह
नाश हो गया और मैंने श्री रामजी का अनुपम रहस्य जाना॥4॥
दोहा :
ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ
गरुड़ बहोरि॥93 क॥
भावार्थ :-उनकी (भुशुण्डिजी की) बहुत प्रकार से प्रशंसा करके, सिर नवाकर
और हाथ जोड़कर फिर गरुड़जी प्रेमपूर्वक विनम्र और कोमल वचन बोले-॥93 (क)॥
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज
मोहि॥93 ख॥
भावार्थ :-हे प्रभो! हे स्वामी! मैं अपने अविवेक के कारण आपसे पूछता हूँ। हे कृपा के समुद्र! मुझे अपना 'निज दास' जानकर आदरपूर्वक (विचारपूर्वक) मेरे प्रश्न का उत्तर कहिए॥93 (ख)॥
चौपाई :
तुम्ह सर्बग्य तग्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा॥
ग्यान बिरति बिग्यान
निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा॥1॥
भावार्थ :-आप सब कुछ जानने वाले हैं, तत्त्व के ज्ञाता हैं, अंधकार (माया)
से परे, उत्तम बुद्धि से युक्त, सुशील, सरल आचरण वाले, ज्ञान, वैराग्य और विज्ञान
के धाम और श्री रघुनाथजी के प्रिय दास हैं॥1॥
कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई॥
राम चरित सुर सुंदर स्वामी।
पायहु कहाँ कहहु नभगामी॥2॥
भावार्थ :-आपने यह काक शरीर किस कारण से पाया? हे तात! सब समझाकर मुझसे
कहिए। हे स्वामी! हे आकाशगामी! यह सुंदर रामचरित मानस आपने कहाँ पाया, सो
कहिए॥2॥
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं॥
मुधा बचन नहिं ईस्वर
कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई॥3॥
भावार्थ :-हे नाथ! मैंने शिवजी से ऐसा सुना है कि महाप्रलय में भी आपका
नाश नहीं होता और ईश्वर (शिवजी) कभी मिथ्या वचन कहते नहीं। वह भी मेरे मन में
संदेह है॥3॥
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा॥
अंड कटाह अमित लय कारी। कालु
सदा दुरतिक्रम भारी॥4॥
भावार्थ :-(क्योंकि) हे नाथ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत् काल का कलेवा है। असंख्य ब्रह्मांडों का नाश करने वाला काल सदा बड़ा ही अनिवार्य है॥4॥
सोरठा :
तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव
कि जोग बल॥94 क॥
भावार्थ :-(ऐसा वह) अत्यंत भयंकर काल आपको नहीं व्यापता (आप पर प्रभाव
नहीं दिखलाता) इसका क्या कारण है? हे कृपालु मुझे कहिए, यह ज्ञान का प्रभाव है या
योग का बल है?॥94 (क)॥
दोहा :
प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित
अनुराग॥94 ख॥
भावार्थ :-हे प्रभो! आपके आश्रम में आते ही मेरा मोह और भ्रम भाग गया। इसका क्या कारण है? हे नाथ! यह सब प्रेम सहित कहिए॥94 (ख)॥
चौपाई
:
गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा॥
धन्य धन्य तव मति
उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी॥1॥
भावार्थ :-हे उमा! गरुड़जी की वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी हर्षित हुए और परम
प्रेम से बोले- हे सर्पों के शत्रु! आपकी बुद्धि धन्य है धन्य है! आपके प्रश्न
मुझे बहुत ही प्यारे लगे॥1॥
सुनि तव प्रश्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई॥
सब निज कथा कहउँ
मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई॥2॥
भावार्थ :-आपके प्रेमयुक्त सुंदर प्रश्न सुनकर मुझे अपने बहुत जन्मों की
याद आ गई। मैं अपनी सब कथा विस्तार से कहता हूँ। हे तात! आदर सहित मन लगाकर
सुनिए॥2॥
जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना॥
सब कर फल रघुपति पद
प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा॥3॥
भावार्थ :-अनेक जप, तप, यज्ञ, शम (मन को रोकना), दम (इंद्रियों को रोकना),
व्रत, दान, वैराग्य, विवेक, योग, विज्ञान आदि सबका फल श्री रघुनाथजी के चरणों में
प्रेम होना है। इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता॥3॥
एहिं तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई॥
जेहि तें कछु निज स्वारथ
होई। तेहि पर ममता कर सब कोई॥4॥
भावार्थ :-मैंने इसी शरीर से श्री रामजी की भक्ति प्राप्त की है। इसी से इस पर मेरी ममता अधिक है। जिससे अपना कुछ स्वार्थ होता है, उस पर सभी कोई प्रेम करते हैं॥4॥
सोरठा :
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि
निज परम हित॥95 क॥
भावार्थ :-हे गरुड़जी! वेदों में मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते
हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यंत नीच से भी प्रेम करना चाहिए॥95 (क)॥
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान
सम॥95 ख॥
भावार्थ :-रेशम कीड़े से होता है, उससे सुंदर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र कीड़े को भी सब कोई प्राणों के समान पालते हैं॥95 (ख)॥
चौपाई
:
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा॥
सोइ पावन सोइ सुभग
सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा॥1॥
भावार्थ :-जीव के लिए सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से श्री
रामजी के चरणों में प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुंदर है जिस शरीर को पाकर श्री
रघुवीर का भजन किया जाए॥1॥
राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही॥
राम भगति एहिं तन
उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी॥2॥
भावार्थ :-जो श्री रामजी के विमुख है वह यदि ब्रह्माजी के समान शरीर पा
जाए तो भी कवि और पंडित उसकी प्रशंसा नहीं करते। इसी शरीर से मेरे हृदय में
रामभक्ति उत्पन्न हुई। इसी से हे स्वामी यह मुझे परम प्रिय है॥2॥
तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना॥
प्रथम मोहँ मोहि बहुत
बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा॥3॥
भावार्थ :-मेरा मरण अपनी इच्छा पर है, परंतु फिर भी मैं यह शरीर नहीं
छोड़ता, क्योंकि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं होता। पहले मोह
ने मेरी बड़ी दुर्दशा की। श्री रामजी के विमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं
सोया॥3॥
नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना॥
कवन जोनि जनमेउँ जहँ
नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥4॥
भावार्थ :-अनेकों जन्मों में मैंने अनेकों प्रकार के योग, जप, तप, यज्ञ और
दान आदि कर्म किए। हे गरुड़जी! जगत् में ऐसी कौन योनि है, जिसमें मैंने
(बार-बार) घूम-फिरकर जन्म न लिया हो॥4॥
देखेउँ करि सब करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं॥
सुधि मोहि नाथ जन्म
बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी॥5॥
भावार्थ :-हे गुसाईं! मैंने सब कर्म करके देख लिए, पर अब (इस जन्म) की तरह
मैं कभी सुखी नहीं हुआ। हे नाथ! मुझे बहुत से जन्मों की याद है, (क्योंकि) श्री
शिवजी की कृपा से मेरी बुद्धि को मोह ने नहीं घेरा॥5॥
दोहा :
प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें
मिटहिं कलेस॥96 क॥
भावार्थ :-हे पक्षीराज! सुनिए, अब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र कहता
हूँ, जिन्हें सुनकर प्रभु के चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है, जिससे सब क्लेश
मिट जाते हैं॥96 (क)॥
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम
प्रतिकूल॥96 ख॥
भावार्थ :-हे प्रभो! पूर्व के एक कल्प में पापों का मूल युग कलियुग था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपारायण और वेद के विरोधी थे॥96 (ख)॥
चौपाई
:
तेहिं कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई॥
सिव सेवक मन क्रम अरु
बानी। आन देव निंदक अभिमानी॥1॥
भावार्थ :-उस कलियुग में मैं अयोध्यापुरी में जाकर शूद्र का शरीर पाकर
जन्मा। मैं मन, वचन और कर्म से शिवजी का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा करने
वाला अभिमानी था॥1॥
धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला॥
जदपि रहेउँ रघुपति
रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी॥2॥
भावार्थ :-मैं धन के मद से मतवाला, बहुत ही बकवादी और उग्रबुद्धि वाला था,
मेरे हृदय में बड़ा भारी दंभ था। यद्यपि मैं श्री रघुनाथजी की राजधानी में रहता
था, तथापि मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी॥2॥
अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा॥
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई।
राम परायन सो परि होई॥3॥
भावार्थ :-अब मैंने अवध का प्रभाव जाना। वेद, शास्त्र और पुराणों ने ऐसा
गाया है कि किसी भी जन्म में जो कोई भी अयोध्या में बस जाता है, वह अवश्य ही श्री
रामजी के परायण हो जाएगा॥3॥
अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी॥
सो कलिकाल कठिन
उरगारी। पाप परायन सब नर नारी॥4॥
भावार्थ :-अवध का प्रभाव जीव तभी जानता है, जब हाथ में धनुष धारण करने वाले श्री रामजी उसके हृदय में निवास करते हैं। हे गरुड़जी! वह कलिकाल बड़ा कठिन था। उसमें सभी नर-नारी पापपरायण (पापों में लिप्त) थे॥4॥
दोहा :
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए
बहु पंथ॥97 क॥
भावार्थ :-कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो
गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥97
(क)॥
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक
कलिधर्म॥97 ख॥
भावार्थ :-सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार! हे श्री हरि के वाहन! सुनिए, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ॥97 (ख)॥
चौपाई :
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक
भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥1॥
भावार्थ :-कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब
पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और
राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥1॥
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई।
ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥2॥
भावार्थ :-जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही
पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत है, उसी को सब
कोई संत कहते हैं॥2॥
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना।
कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥3॥
भावार्थ :-जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान
है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना
जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥3॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु
जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥4॥
भावार्थ :-जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही
ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही
कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥4॥
दोहा :
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते
कलिजुग माहिं॥98 क॥
भावार्थ :-जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥98 (क)॥
सोरठा
:
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल
महुँ॥98 ख॥
भावार्थ :-जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥98 (ख)॥
चौपाई
:
नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं
ग्याना। मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥1॥
भावार्थ :-हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर
के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं
और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥1॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥
गुन मंदिर सुंदर पति
त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥2॥
भावार्थ :-सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता,
ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम
सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥2॥
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा।
एक न सुनइ एक नहिं देखा॥3॥
भावार्थ :-सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के
नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता
है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे
ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥3॥
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि
बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥4॥
भावार्थ :-जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर
नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट
भरे॥4॥
दोहा :
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं
बिप्र गुर घात॥99 क॥
भावार्थ :-स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे
लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते
हैं॥99 (क)॥
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर
आँखि देखावहिं डाटि॥99 ख॥
भावार्थ :-शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥99 (ख)॥
चौपाई :
पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर।
देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥1॥
भावार्थ :-जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और
ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले)
ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥1॥
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक
एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥2॥
भावार्थ :-वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का
प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा
करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥2॥
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।
पनारि मुई गृह संपति
नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥3॥
भावार्थ :-तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में
नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर
संन्यासी हो जाते हैं॥3॥
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप
कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥4॥
भावार्थ :-वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों
लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की
व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥4॥
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं
अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥5॥
भावार्थ :-शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन
(व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार
अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥5॥
दोहा :
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक
बियोग॥100 क॥
भावार्थ :-कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप
करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते
हैं॥100 (क)॥
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस
कल्पहिं पंथ अनेक॥100 ख॥
भावार्थ :-वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥100 (ख)॥
छंद :
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र
गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥1॥
भावार्थ :-संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा,
उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की
लीला कुछ कही नहीं जाती॥1॥
कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु
पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥2॥
भावार्थ :-कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी
चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते
हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता॥2॥
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म
नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥3॥
भावार्थ :-जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए।
राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना
अपराध) दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं॥3॥
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि
जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥4॥
भावार्थ :-धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं।
द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और
पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥4॥
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार
दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥5॥
भावार्थ :-कवियों के तो झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का
आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी
नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते
हैं॥5॥
दोहा :
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे
ब्रह्मंड॥101 क॥
भावार्थ :-हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह),
दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद
ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥101 (क)॥
तामस धर्म करिहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी बए न जामहिं
धान॥101 ख॥
भावार्थ :-मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इंद्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥101 (ख)॥
छंद :
अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म
रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥
भावार्थ :-स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह
गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन
और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर
धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है, उनमें कोमलता नहीं
है॥1॥
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन संबदु पंच दसा।
कलपांत न नास गुमानु असा॥2॥
भावार्थ :-मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही
कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा सा जीवन है, परंतु घमंड
ऐसा है मानो कल्पांत (प्रलय) होने पर भी उनका नाश नहीं होगा॥2॥
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न
सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥3॥
भावार्थ :-कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई
बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। (लोगों में) न संतोष है, न विवेक है और न
शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगने वाले हो गए॥3॥
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए।
बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥
भावार्थ :-ईर्षा (डाह), कडुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गई।
सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो
गए॥4॥
दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे।
परनिंदक जे जग मो बगरे॥5॥
भावार्थ :-इंद्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही।
मूर्खता और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही
पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो पराई निंदा करने वाले हैं, जगत् में वे ही फैले
हैं॥5॥
दोहा :
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास
निस्तार॥102 क॥
भावार्थ :-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का
घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से
छुटकारा मिल जाता है॥102 (क)॥
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते
पावहिं लोग॥102 ख॥
भावार्थ :-सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान् के नाम से पा जाते हैं॥102 (ख)॥
चौपाई :
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध
जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥1॥
भावार्थ :-सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके
सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते
हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥1॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन
गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥2॥
भावार्थ :-द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार
से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की
गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥2॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज
रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥3॥
भावार्थ :-कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी
का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है
और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥3॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत
प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥4॥
भावार्थ :-वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का
प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि
मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥4॥
दोहा :
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं
प्रयास॥103 क॥
भावार्थ :-यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है,
(क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही
परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥103 (क)॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ
कल्यान॥103 ख॥
भावार्थ :-धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है॥103 (ख)॥
चौपाई :
नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता
बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥1॥
भावार्थ :-श्री रामजी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों
के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मन का प्रसन्न
होना, इसे सत्ययुग का प्रभाव जानें॥1॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प
सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥2॥
भावार्थ :-सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, यह द्वापर का धर्म है॥2॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन
माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥3॥
भावार्थ :-तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह
कलियुग का प्रभाव है। पंडित लोग युगों के धर्म को मन में ज्ञान (पहचान) कर, अधर्म
छोड़कर धर्म में प्रीति करते हैं॥3॥
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट
खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥4॥
भावार्थ :-जिसका श्री रघुनाथजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको
कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट
चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक
(जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥4॥
दोहा :
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि
मन माहिं॥104 क॥
भावार्थ :-श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन
बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से)
श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥104 (क)॥
तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ
बिदेस॥104 ख॥
भावार्थ :-हे पक्षीराज! उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या में रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा, तब मैं विपत्ति का मारा विदेश चला गया॥104 (ख)॥
चौपाई
:
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥
गएँ काल कछु संपति पाई।
तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई॥1॥
भावार्थ :-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, मैं दीन, मलिन (उदास),
दरिद्र और दुःखी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतने पर कुछ संपत्ति पाकर फिर मैं
वहीं भगवान् शंकर की आराधना करने लगा॥1॥
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥
परम साधु परमारथ बिंदक।
संभु उपासक नहिं हरि निंदक॥2॥
भावार्थ :-एक ब्राह्मण वेदविधि से सदा शिवजी की पूजा करते, उन्हें दूसरा
कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थ के ज्ञाता थे, वे शंभु के उपासक थे, पर
श्री हरि की निंदा करने वाले न थे॥2॥
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता॥
बाहिज नम्र देखि
मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं॥3॥
भावार्थ :-मैं कपटपूर्वक उनकी सेवा करता। ब्राह्मण बड़े ही दयालु और नीति
के घर थे। हे स्वामी! बाहर से नम्र देखकर ब्राह्मण मुझे पुत्र की भाँति मानकर
पढ़ाते थे॥3॥
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिधि बिधि कीन्हा॥
जपउँ मंत्र
सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई॥4॥
भावार्थ :-उन ब्राह्मण श्रेष्ठ ने मुझको शिवजी का मंत्र दिया और अनेकों
प्रकार के शुभ उपदेश किए। मैं शिवजी के मंदिर में जाकर मंत्र जपता। मेरे हृदय में
दंभ और अहंकार बढ़ गया॥4॥
दोहा :
मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु
कर द्रोह॥105 क॥
भावार्थ :-मैं दुष्ट, नीच जाति और पापमयी मलिन बुद्धि वाला मोहवश श्री हरि के भक्तों और द्विजों को देखते ही जल उठता और विष्णु भगवान् से द्रोह करता था॥105 (क)॥
गुरुजी का अपमान एवं शिवजी के शाप की बात सुनना
सोरठा
:
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति
कि भावई॥105 ख॥
भावार्थ :-गुरुजी मेरे आचरण देखकर दुखित थे। वे मुझे नित्य ही भली-भाँति समझाते, पर (मैं कुछ भी नहीं समझता), उलटे मुझे अत्यंत क्रोध उत्पन्न होता। दंभी को कभी नीति अच्छी लगती है?॥105 (ख)॥
चौपाई :
एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥
सिव सेवा कर फल सुत
सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥1॥
भावार्थ :-एक बार गुरुजी ने मुझे बुला लिया और बहुत प्रकार से (परमार्थ)
नीति की शिक्षा दी कि हे पुत्र! शिवजी की सेवा का फल यही है कि श्री रामजी के
चरणों में प्रगाढ़ भक्ति हो॥1॥
रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता॥
जासु चरन अज सिव
अनुरागी। तासु द्रोहँ सुख चहसि अभागी॥2॥
भावार्थ :-हे तात! शिवजी और ब्रह्माजी भी श्री रामजी को भजते हैं (फिर)
नीच मनुष्य की तो बात ही कितनी है? ब्रह्माजी और शिवजी जिनके चरणों के प्रेमी
हैं, अरे अभागे! उनसे द्रोह करके तू सुख चाहता है?॥2॥
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ॥
अधम जाति मैं बिद्या
पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥3॥
भावार्थ :-गुरुजी ने शिवजी को हरि का सेवक कहा। यह सुनकर हे पक्षीराज!
मेरा हृदय जल उठा। नीच जाति का मैं विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलाने से
साँप॥3॥
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥
अति दयाल गुर
स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥4॥
भावार्थ :-अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरुजी से
द्रोह करता। गुरुजी अत्यंत दयालु थे, उनको थोड़ा सा भी क्रोध नहीं आता। (मेरे
द्रोह करने पर भी) वे बार-बार मुझे उत्तम ज्ञान की ही शिक्षा देते थे॥4॥
जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥
धूम अनल संभव सुनु
भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥5॥
भावार्थ :-नीच मनुष्य जिससे बड़ाई पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी
का नाश करता है। हे भाई! सुनिए, आग से उत्पन्न हुआ धुआँ मेघ की पदवी पाकर उसी
अग्नि को बुझा देता है॥5॥
रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई॥
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई।
पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई॥6॥
भावार्थ :-धूल रास्ते में निरादर से पड़ी रहती है और सदा सब (राह चलने
वालों) की लातों की मार सहती है। पर जब पवन उसे उड़ाता (ऊँचा उठाता) है, तो सबसे
पहले वह उसी (पवन) को भर देती है और फिर राजाओं के नेत्रों और किरीटों (मुकुटों)
पर पड़ती है॥6॥
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा॥
कबि कोबिद गावहिं
असि नीति। खल सन कलह न भल नहिं प्रीति॥7॥
भावार्थ :-हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, ऐसी बात समझकर बुद्धिमान, लोग अधम
(नीच) का संग नहीं करते। कवि और पंडित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्ट से न कलह ही
अच्छा है, न प्रेम ही॥7॥
उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥
मैं खल हृदयँ कपट
कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥8॥
भावार्थ :-हे गोसाईं! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिए। दुष्ट को कुत्ते
की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिए। मैं दुष्ट था, हृदय में कपट और कुटिलता भरी
थी, (इसलिए यद्यपि) गुरुजी हित की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी॥8॥
दोहा :
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह
प्रनाम॥106 क॥
भावार्थ :-एक दिन मैं शिवजी के मंदिर में शिवनाम जप रहा था। उसी समय
गुरुजी वहाँ आए, पर अभिमान के मारे मैंने उठकर उनको प्रणाम नहीं किया॥106 (क)॥
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके
महेस॥106 ख॥
भावार्थ :-गुरुजी दयालु थे, (मेरा दोष देखकर भी) उन्होंने कुछ नहीं कहा, उनके हृदय में लेशमात्र भी क्रोध नहीं हुआ। पर गुरु का अपमान बहुत बड़ा पाप है, अतः महादेवजी उसे नहीं सह सके॥106 (ख)॥
चौपाई :
मंदिर माझ भई नभबानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥
जद्यपि तव गुर के नहिं
क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥1॥
भावार्थ :-मंदिर में आकाशवाणी हुई कि अरे हतभाग्य! मूर्ख! अभिमानी! यद्यपि
तेरे गुरु को क्रोध नहीं है, वे अत्यंत कृपालु चित्त के हैं और उन्हें (पूर्ण
तथा) यथार्थ ज्ञान है,॥1॥
तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥
जौं नहिं दंड करौं खल
तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥2॥
भावार्थ :-तो भी हे मूर्ख! तुझको मैं शाप दूँगा, (क्योंकि) नीति का विरोध
मुझे अच्छा नहीं लगता। अरे दुष्ट! यदि मैं तुझे दण्ड न दूँ, तो मेरा वेदमार्ग ही
भ्रष्ट हो जाए॥2॥
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं
सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥3॥
भावार्थ :-जो मूर्ख गुरु से ईर्षा करते हैं, वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक
में पड़े रहते हैं। फिर (वहाँ से निकलकर) वे तिर्यक् (पशु, पक्षी आदि) योनियों
में शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मों तक दुःख पाते रहते हैं॥3॥
बैठि रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥
महा बिटप कोटर महुँ
जाई। रहु अधमाधम अधगति पाई॥4॥
भावार्थ :-अरे पापी! तू गुरु के सामने अजगर की भाँति बैठा रहा। रे दुष्ट!
तेरी बुद्धि पाप से ढँक गई है, (अतः) तू सर्प हो जा और अरे अधम से भी अधम! इस
अधोगति (सर्प की नीची योनि) को पाकर किसी बड़े भारी पेड़ के खोखले में जाकर
रह॥4॥
दोहा :
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा
परिताप॥107 क॥
भावार्थ :-शिवजी का भयानक शाप सुनकर गुरुजी ने हाहाकार किया। मुझे काँपता हुआ देखकर उनके हृदय में बड़ा संताप उत्पन्न हुआ॥107 (क)॥
रुद्राष्टक
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर
गति मोरि॥107 ख॥
भावार्थ :-प्रेम सहित दण्डवत् करके वे ब्राह्मण श्री शिवजी के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गति (दण्ड) का विचार कर गदगद वाणी से विनती करने लगे-॥107 (ख)॥
छंद :
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं
निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥1॥
भावार्थ :-हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा
के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में
स्थित (अर्थात् मायादिरहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन
आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर (अथवा आकाश को भी
आच्छादित करने वाले) आपको मैं भजता हूँ॥1॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं
कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥2॥
भावार्थ :-निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी,
ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों
के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ॥2॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि
कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥3॥
भावार्थ :-जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में
करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान
हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित है॥3॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं
मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥4॥
भावार्थ :-जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भ्रुकुटी और विशाल
नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं, सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए
और मुण्डमाला पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री
शंकरजी को मैं भजता हूँ॥4॥
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल
निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥5॥
भावार्थ :-प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड,
अजन्मे, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को
निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त
होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥5॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानंद संदोह
मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥
भावार्थ :-कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्प का अंत (प्रलय) करने वाले,
सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानंदघन, मोह को हरने
वाले, मन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रु, हे प्रभो! प्रसन्न होइए, प्रसन्न
होइए॥6॥
न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति
सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥
भावार्थ :-जब तक पार्वती के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक
उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता
है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले हे प्रभो! प्रसन्न
होइए॥7॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म
दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥8॥
भावार्थ :-मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म (मृत्यु) के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की दुःख से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥8॥
श्लोक :
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां
शम्भुः प्रसीदति॥9॥
भावार्थ :-भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान् शम्भु प्रसन्न होते हैं॥9॥
गुरुजी का शिवजी से अपराध क्षमापन, शापानुग्रह और काकभुशुण्डि की आगे की कथा
दोहा :
सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि बिप्र अनुरागु।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर
बर मागु॥108 क॥
भावार्थ :- सर्वज्ञ शिवजी ने विनती सुनी और ब्राह्मण का प्रेम देखा।
तब मंदिर में आकाशवाणी हुई कि हे द्विजश्रेष्ठ! वर माँगो॥108 (क)॥
जौं प्रसन्न प्रभो मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर
बर देहु॥108 ख॥
भावार्थ :-(ब्राह्मण ने कहा-) हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और हे
नाथ! यदि इस दीन पर आपका स्नेह है, तो पहले अपने चरणों की भक्ति देकर फिर दूसरा
वर दीजिए॥108 (ख)॥
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु
भगवान॥108 ग॥
भावार्थ :-हे प्रभो! यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वश होकर निरंतर भूला
फिरता है। हे कृपा के समुद्र भगवान्! उस पर क्रोध न कीजिए॥108 (ग)॥
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं
काल॥108 घ॥
भावार्थ :-हे दीनों पर दया करने वाले (कल्याणकारी) शंकर! अब इस पर कृपालु होइए (कृपा कीजिए), जिससे हे नाथ! थोड़े ही समय में इस पर शाप के बाद अनुग्रह (शाप से मुक्ति) हो जाए॥108 (घ)॥
चौपाई :
एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना॥
बिप्र गिरा सुनि परहित
सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी॥1॥
भावार्थ :-हे कृपानिधान! अब वही कीजिए, जिससे इसका परम कल्याण हो। दूसरे
के हित से सनी हुई ब्राह्मण की वाणी सुनकर फिर आकाशवाणी हुई- 'एवमस्तु' (ऐसा ही
हो)॥1॥
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा॥
तदपि तुम्हारि
साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥2॥
भावार्थ :-यद्यपि इसने भयानक पाप किया है और मैंने भी इसे क्रोध करके शाप
दिया है, तो भी तुम्हारी साधुता देखकर मैं इस पर विशेष कृपा करूँगा॥2॥
छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी॥
मोर श्राप द्विज
ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि॥3॥
भावार्थ :-हे द्विज! जो क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही
प्रिय हैं जैसे खरारि श्री रामचंद्रजी। हे द्विज! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा। यह
हजार जन्म अवश्य पाएगा॥3॥
जनमत मरत दुसह दुख होई। एहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि
नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना॥4॥
भावार्थ :-परंतु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख
जरा भी न व्यापेगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। हे शूद्र! मेरा
प्रामाणिक (सत्य) वचन सुन॥4॥
रघुपति पुरीं जन्म तव भयऊ। पुनि मैं मम सेवाँ मन दयऊ॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह
मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें॥5॥
भावार्थ :-(प्रथम तो) तेरा जन्म श्री रघुनाथजी की पुरी में हुआ। फिर तूने
मेरी सेवा में मन लगाया। पुरी के प्रभाव और मेरी कृपा से तेरे हृदय में रामभक्ति
उत्पन्न होगी॥5॥
सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई॥
अब जनि करहि बिप्र
अपमाना। जानेसु संत अनंत समाना॥6॥
भावार्थ :-हे भाई! अब मेरा सत्य वचन सुन। द्विजों की सेवा ही भगवान् को
प्रसन्न करने वाला व्रत है। अब कभी ब्राह्मण का अपमान न करना। संतों को अनंत श्री
भगवान् ही के समान जानना॥6॥
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला॥
जो इन्ह कर मारा नहिं
मरई। बिप्र द्रोह पावक सो जरई॥7॥
भावार्थ :-इंद्र के वज्र, मेरे विशाल त्रिशूल, काल के दंड और श्री हरि के
विकराल चक्र के मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रद्रोह रूपी अग्नि से भस्म हो
जाता है॥7॥
अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
औरउ एक आसिषा
मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी॥8॥
भावार्थ :-ऐसा विवेक मन में रखना। फिर तुम्हारे लिए जगत् में कुछ भी
दुर्लभ न होगा। मेरा एक और भी आशीर्वाद है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी
(अर्थात् तुम जहाँ जाना चाहोगे, वहीं बिना रोक-टोक के जा सकोगे)॥8॥
दोहा :
सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर
राखि॥109 क॥
भावार्थ :-(आकाशवाणी के द्वारा) शिवजी के वचन सुनकर गुरुजी हर्षित होकर
'ऐसा ही हो' यह कहकर मुझे बहुत समझाकर और शिवजी के चरणों को हृदय में रखकर अपने
घर गए॥109 (क)॥
प्रेरित काल बिंधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु तजेउँ
गएँ कछु काल॥109 ख॥
भावार्थ :-काल की प्रेरणा से मैं विन्ध्याचल में जाकर सर्प हुआ। फिर कुछ
काल बीतने पर बिना ही परिश्रम (कष्ट) के मैंने वह शरीर त्याग दिया।109 (ख)॥
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ
पुरान॥109 ग॥
भावार्थ :-हे हरिवाहन! मैं जो भी शरीर धारण करता, उसे बिना ही परिश्रम
वैसे ही सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग देता है और
नया पहिन लेता है॥109 (ग)॥
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि धरेउँ बिबिधि तनु
ग्यान न गयउ खगेस॥109 घ॥
भावार्थ :-शिवजी ने वेद की मर्यादा की रक्षा की और मैंने क्लेश भी नहीं पाया। इस प्रकार हे पक्षीराज! मैंने बहुत से शरीर धारण किए, पर मेरा ज्ञान नहीं गया॥109 (घ)॥
चौपाई :
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ॥
एक सूल मोहि बिसर न
काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ॥1॥
भावार्थ :-तिर्यक् योनि (पशु-पक्षी), देवता या मनुष्य का, जो भी शरीर
धारण करता, वहाँ-वहाँ (उस-उस शरीर में) मैं श्री रामजी का भजन जारी रखता। (इस
प्रकार मैं सुखी हो गया), परंतु एक शूल मुझे बना रहा। गुरुजी का कोमल, सुशील
स्वभाव मुझे कभी नहीं भूलता (अर्थात् मैंने ऐसे कोमल स्वभाव दयालु गुरु का अपमान
किया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा)॥1॥
चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई॥
खेलउँ तहूँ बालकन्ह
मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला॥2॥
भावार्थ :-मैंने अंतिम शरीर ब्राह्मण का पाया, जिसे पुराण और वेद देवताओं
को भी दुर्लभ बताते हैं। मैं वहाँ (ब्राह्मण शरीर में) भी बालकों में मिलकर खेलता
तो श्री रघुनाथजी की ही सब लीलाएँ किया करता॥2॥
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा॥
मन ते सकल बासना
भागी। केवल राम चरन लय लागी॥3॥
भावार्थ :-सयाना होने पर पिताजी मुझे पढ़ाने लगे। मैं समझता, सुनता और
विचारता, पर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। मेरे मन से सारी वासनाएँ भाग गईं।
केवल श्री रामजी के चरणों में लव लग गई॥3॥
कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी॥
प्रेम मगन मोहि कछु न
सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई॥4॥
भावार्थ :-हे गरुड़जी! कहिए, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर
गदही की सेवा करेगा? प्रेम में मग्न रहने के कारण मुझे कुछ भी नहीं सुहाता।
पिताजी पढ़ा-पढ़ाकर हार गए॥4॥
भय कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर
पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ॥5॥
भावार्थ :-जब पिता-माता कालवश हो गए (मर गए), तब मैं भक्तों की रक्षा करने
वाले श्री रामजी का भजन करने के लिए वन में चला गया। वन में जहाँ-जहाँ मुनीश्वरों
के आश्रम पाता, वहाँ-वहाँ जा-जाकर उन्हें सिर नवाता॥5॥
बूझउँ तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा॥
सुनत फिरउँ हरि गुन
अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा॥6॥
भावार्थ :-हे गरुड़जी ! उनसे मैं श्री रामजी के गुणों की कथाएँ पूछता। वे
कहते और मैं हर्षित होकर सुनता। इस प्रकार मैं सदा-सर्वदा श्री हरि के गुणानुवाद
सुनता फिरता। शिवजी की कृपा से मेरी सर्वत्र अबाधित गति थी (अर्थात् मैं जहाँ
चाहता वहीं जा सकता था)॥6॥
छूटी त्रिबिधि ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी॥
राम चरन बारिज जब देखौं।
तब निज जन्म सफल करि लेखौं॥7॥
भावार्थ :-मेरी तीनों प्रकार की (पुत्र की, धन की और मान की) गहरी प्रबल
वासनाएँ छूट गईं और हृदय में एक यही लालसा अत्यंत बढ़ गई कि जब श्री रामजी के
चरणकमलों के दर्शन करूँ तब अपना जन्म सफल हुआ समझूँ॥7॥
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई॥
निर्गुन मत नहिं मोहि
सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई॥8॥
भावार्थ :-जिनसे मैं पूछता, वे ही मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर सर्वभूतमय है।
यह निर्गुण मत मुझे नहीं सुहाता था। हृदय में सगुण ब्रह्म पर प्रीति बढ़ रही
थी॥8॥
काकभुशुण्डिजी का लोमशजी के पास जाना और शाप तथा अनुग्रह पाना
दोहा :
गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव
अनुराग॥110 क॥
भावार्थ :-गुरुजी के वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्री रामजी के चरणों में
लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्री रघुनाथजी का यश गाता
फिरता था॥110 (क)॥
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति
दीन॥110 ख॥
भावार्थ :-सुमेरु पर्वत के शिखर पर बड़ की छाया में लोमश मुनि बैठे थे।
उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों में सिर नवाया और अत्यंत दीन वचन कहे॥110 (ख)॥
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु
केहि काज॥110 ग॥
भावार्थ :-हे पक्षीराज! मेरे अत्यंत नम्र और कोमल वचन सुनकर कृपालु मुनि
मुझसे आदर के साथ पूछने लगे- हे ब्राह्मण! आप किस कार्य से यहाँ आए हैं॥110
(ग)॥
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु
भगवान॥110 घ॥
भावार्थ :-तब मैंने कहा- हे कृपा निधि! आप सर्वज्ञ हैं और सुजान हैं। हे भगवान् मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना (की प्रक्रिया) कहिए। 110 (घ)॥
चौपाई
:
तब मुनीस रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि
बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी॥1॥
भावार्थ :-तब हे पक्षीराज! मुनीश्वर ने श्री रघुनाथजी के गुणों की कुछ
कथाएँ आदर सहित कहीं। फिर वे ब्रह्मज्ञान परायण विज्ञानवान् मुनि मुझे परम
अधिकारी जानकर-॥1॥
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा॥
अकल अनीह अनाम अरूपा।
अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥2॥
भावार्थ :-ब्रह्म का उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण
है और हृदय का स्वामी (अंतर्यामी) है। उसे कोई बुद्धि के द्वारा माप नहीं सकता,
वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभव से जानने योग्य, अखण्ड और उपमारहित
है॥2॥
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं
भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥3॥
भावार्थ :-वह मन और इंद्रियों से परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार,
सीमारहित और सुख की राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है, (तत्वमसि), जल और जल
की लहर की भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है॥3॥
बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥
पुनि मैं कहेउँ
नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥4॥
भावार्थ :-मुनि ने मुझे अनेकों प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदय
में नहीं बैठा। मैंने फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर कहा- हे मुनीश्वर! मुझे
सगुण ब्रह्म की उपासना कहिए॥4॥
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥
सोइ उपदेस कहहु करि
दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥5॥
भावार्थ :-मेरा मन रामभक्ति रूपी जल में मछली हो रहा है (उसी में रम रहा
है)। हे चतुर मुनीश्वर ऐसी दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया करके
मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिए जिससे मैं श्री रघुनाथजी को अपनी आँखों से देख
सकूँ॥5॥
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा
अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥6॥
भावार्थ :-(पहले) नेत्र भरकर श्री अयोध्यानाथ को देखकर, तब निर्गुण का
उपदेश सुनूँगा। मुनि ने फिर अनुपम हरिकथा कहकर, सगुण मत का खण्डन करके निर्गुण का
निरूपण किया॥6॥
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं
कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥7॥
भावार्थ :-तब मैं निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुण का
निरूपण करने लगा। मैंने उत्तर-प्रत्युत्तर किया, इससे मुनि के शरीर में क्रोध के
चिह्न उत्पन्न हो गए॥7॥
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥
अति संघरषन जौं
कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई॥8॥
भावार्थ :-हे प्रभो! सुनिए, बहुत अपमान करने पर ज्ञानी के भी हृदय में
क्रोध उत्पन्न हो जाता है। यदि कोई चंदन की लकड़ी को बहुत अधिक रग़ड़े, तो उससे
भी अग्नि प्रकट हो जाएगी॥8॥
दोहा :
बारंबार सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि
अनुमान॥111 क॥
भावार्थ :-मुनि बार-बार क्रोध सहित ज्ञान का निरूपण करने लगे। तब मैं
बैठा-बैठा अपने मन में अनेकों प्रकार के अनुमान करने लगा॥111 (क)॥
क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव
कि ईस समान॥111 ख॥॥2॥
भावार्थ :-बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या
द्वैतबुद्धि हो सकती है? माया के वश रहने वाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वर के
समान हो सकता है?॥111 (ख)॥
कबहुँ कि दुःख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें॥
परद्रोही की
होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका॥1॥
भावार्थ :-सबका हित चाहने से क्या कभी दुःख हो सकता है? जिसके पास पारसमणि
है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है? दूसरे से द्रोह करने वाले क्या निर्भय हो
सकते हैं और कामी क्या कलंकरहित (बेदाग) रह सकते हैं?॥1॥
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म की होहिं स्वरूपहि चीन्हें॥
काहू सुमति
कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥2॥
भावार्थ :-ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है? स्वरूप की
पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या (आसक्तिपूर्वक) कर्म हो सकते हैं? दुष्टों के
संग से क्या किसी के सुबुद्धि उत्पन्न हुई है? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा
सकता है?॥2॥
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक॥
राजु कि रहइ
नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥3॥
भावार्थ :-परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते
हैं? भगवान् की निंदा करने वाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या
राज्य रह सकता है? श्री हरि के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं?॥3॥
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥
लाभु कि किछु हरि भगति
समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥4॥
भावार्थ :-बिना पुण्य के क्या पवित्र यश (प्राप्त) हो सकता है? बिना पाप
के भी क्या कोई अपयश पा सकता है? जिसकी महिमा वेद, संत और पुराण गाते हैं और उस
हरि भक्ति के समान क्या कोई दूसरा लाभ भी है?॥4॥
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई॥
अघ कि पिसुनता सम कछु
आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥5॥
भावार्थ :-हे भाई! जगत् में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि
मनुष्य का शरीर पाकर भी श्री रामजी का भजन न किया जाए? चुगलखोरी के समान क्या कोई
दूसरा पाप है? और हे गरुड़जी! दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है?॥5॥
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनउँ॥
पुनि पुनि सगुन
पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥6॥
भावार्थ :-इस प्रकार मैं अनगिनत युक्तियाँ मन में विचारता था और आदर के
साथ मुनि का उपदेश नहीं सुनता था। जब मैंने बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित किया,
तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले- ॥6॥
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥
सत्य बचन बिस्वास न
करही। बायस इव सबही ते डरही॥7॥
भावार्थ :-अरे मूढ़! मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तो भी तू उसे
नहीं मानता और बहुत से उत्तर-प्रत्युत्तर (दलीलें) लाकर रखता है। मेरे सत्य वचन
पर विश्वास नहीं करता। कौए की भाँति सभी से डरता है॥7॥
सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला॥
लीन्ह श्राप मैं सीस
चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥8॥
भावार्थ :-अरे मूर्ख! तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है, अतः तू
शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। मैंने आनंद के साथ मुनि के शाप को सिर पर चढ़ा
लिया। उससे मुझे न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आई॥8॥
दोहा :
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित
चलेउँ उड़ाइ॥112 क॥
भावार्थ :-तब मैं तुरंत ही कौआ हो गया। फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर
और रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी का स्मरण करके मैं हर्षित होकर उड़ चला॥112 (क)॥
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं
बिरोध॥112 ख॥
भावार्थ :-(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जो श्री रामजी के चरणों के प्रेमी हैं और काम, अभिमान तथा क्रोध से रहित हैं, वे जगत् को अपने प्रभु से भरा हुआ देखते हैं, फिर वे किससे वैर करें॥112 (ख)॥
चौपाई :
सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन॥
कृपासिंधु मुनि मति
करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी॥1॥
भावार्थ :-(काकभुशुण्डिजी ने कहा-) हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, इसमें ऋषि
का कुछ भी दोष नहीं था। रघुवंश के विभूषण श्री रामजी ही सबके हृदय में प्रेरणा
करने वाले हैं। कृपा सागर प्रभु ने मुनि की बुद्धि को भोली करके (भुलावा देकर)
मेरे प्रेम की परीक्षा ली॥1॥
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना॥
रिषि मम महत सीलता
देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी॥2॥
भावार्थ :-मन, वचन और कर्म से जब प्रभु ने मुझे अपना दास जान लिया, तब
भगवान् ने मुनि की बुद्धि फिर पलट दी। ऋषि ने मेरा महान् पुरुषों का सा स्वभाव
(धैर्य, अक्रोध, विनय आदि) और श्री रामजी के चरणों में विशेष विश्वास देखा,॥2॥
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई॥
मम परितोष बिबिधि
बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा॥3॥
भावार्थ :-तब मुनि ने बहुत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपूर्वक
बुला लिया। उन्होंने अनेकों प्रकार से मेरा संतोष किया और तब हर्षित होकर मुझे
राममंत्र दिया॥3॥
बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥
सुंदर सुखद मोहि अति
भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥4॥
भावार्थ :-कृपानिधान मुनि ने मुझे बालक रूप श्री रामजी का ध्यान (ध्यान की
विधि) बतलाया। सुंदर और सुख देने वाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वह ध्यान
मैं आपको पहले ही सुना चुका हूँ॥4॥
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई।
पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई॥5॥
भावार्थ :-मुनि ने कुछ समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रखा। तब उन्होंने
रामचरित मानस वर्णन किया। आदरपूर्वक मुझे यह कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे सुंदर
वाणी बोले-॥5॥
रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा॥
तोहि निज भगत राम कर
जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी॥6॥
भावार्थ :-हे तात! यह सुंदर और गुप्त रामचरित मानस मैंने शिवजी की कृपा से
पाया था। तुम्हें श्री रामजी का 'निज भक्त' जाना, इसी से मैंने तुमसे सब चरित्र
विस्तार के साथ कहा॥6॥
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं॥
मुनि मोहि
बिबिधि भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा॥7॥
भावार्थ :-हे तात! जिनके हृदय में श्री रामजी की भक्ति नहीं है, उनके
सामने इसे कभी भी नहीं कहना चाहिए। मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया। तब मैंने
प्रेम के साथ मुनि के चरणों में सिर नवाया॥7॥
निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा॥
राम भगति अबिरल उर
तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें॥8॥
भावार्थ :-मुनीश्वर ने अपने करकमलों से मेरा सिर स्पर्श करके हर्षित होकर
आशीर्वाद दिया कि अब मेरी कृपा से तेरे हृदय में सदा प्रगाढ़ राम भक्ति
बसेगी॥8॥
दोहा :
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग
निधान॥113 क॥
भावार्थ :-तुम सदा श्री रामजी को प्रिय होओ और कल्याण रूप गुणों के धाम,
मानरहित, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, इच्छा मृत्यु (जिसकी शरीर छोड़ने
की इच्छा करने पर ही मृत्यु हो, बिना इच्छा के मृत्यु न हो) एवं ज्ञान और वैराग्य
के भण्डार होओ॥113 (क)॥
जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन
एक प्रजंत॥113 ख॥
भावार्थ :-इतना ही नहीं, श्री भगवान् को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया मोह) नहीं व्यापेगी॥113 (ख)॥
चौपाई :
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ॥
राम रहस्य ललित
बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना॥1॥
भावार्थ :-काल, कर्म, गुण, दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दुःख तुमको
कभी नहीं व्यापेगा। अनेकों प्रकार के सुंदर श्री रामजी के रहस्य (गुप्त मर्म के
चरित्र और गुण), जो इतिहास और पुराणों में गुप्त और प्रकट हैं। (वर्णित और लक्षित
हैं)॥1॥
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ॥
जो इच्छा करिहहु मन
माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥2॥
भावार्थ :-तुम उन सबको भी बिना ही परिश्रम जान जाओगे। श्री रामजी के चरणों
में तुम्हारा नित्य नया प्रेम हो। अपने मन में तुम जो कुछ इच्छा करोगे, श्री हरि
की कृपा से उसकी पूर्ति कुछ भी दुर्लभ नहीं होगी॥2॥
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥
एवमस्तु तव बच मुनि
ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी॥3॥
भावार्थ :-हे धीरबुद्धि गरुड़जी! सुनिए, मुनि का आशीर्वाद सुनकर आकाश में
गंभीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि! तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो। यह
कर्म, मन और वचन से मेरा भक्त है॥3॥
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई।
पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई॥4॥
भावार्थ :-आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं प्रेम में मग्न हो गया
और मेरा सब संदेह जाता रहा। तदनन्तर मुनि की विनती करके, आज्ञा पाकर और उनके
चरणकमलों में बार-बार सिर नवाकर- ॥4॥
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ॥
इहाँ बसत मोहि
सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा॥5॥
भावार्थ :-मैं हर्ष सहित इस आश्रम में आया। प्रभु श्री रामजी की कृपा से
मैंने दुर्लभ वर पा लिया। हे पक्षीराज! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत
गए॥5॥
करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा।
धरहिं भगत हित मनुज सरीरा॥6॥
भावार्थ :-मैं यहाँ सदा श्री रघुनाथजी के गुणों का गान किया करता हूँ और
चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं। अयोध्यापुरी में जब-जब श्री रघुवीर भक्तों
के (हित के) लिए मनुष्य शरीर धारण करते हैं,॥6॥
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ॥
पुनि उर राखि राम
सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥7॥
भावार्थ :-तब-तब मैं जाकर श्री रामजी की नगरी में रहता हूँ और प्रभु की
शिशुलीला देखकर सुख प्राप्त करता हूँ। फिर हे पक्षीराज! श्री रामजी के शिशु रूप
को हृदय में रखकर मैं अपने आश्रम में आ जाता हूँ॥7॥
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देहि जेहिं कारन पाई॥
कहिउँ तात सब प्रस्न
तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी॥8॥
भावार्थ :-जिस कारण से मैंने कौए की देह पाई, वह सारी कथा आपको सुना दी।
हे तात! मैंने आपके सब प्रश्नों के उत्तर कहे। अहा! रामभक्ति की बड़ी भारी महिमा
है॥8॥
दोहा :
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल
संदेह॥114 क॥
भावार्थ :-मुझे अपना यह काक शरीर इसीलिए प्रिय है कि इसमें मुझे श्री रामजी के चरणों का प्रेम प्राप्त हुआ। इसी शरीर से मैंने अपने प्रभु के दर्शन पाए और मेरे सब संदेह जाते रहे (दूर हुए)॥114 (क)॥
मासपारायण, उनतीसवाँ विश्राम
ज्ञान-भक्ति-निरुपण, ज्ञान-दीपक और भक्ति की महान् महिमा
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन
प्रताप॥114 ख॥
भावार्थ :-मैं हठ करके भक्ति पक्ष पर अड़ा रहा, जिससे महर्षि लोमश ने मुझे शाप दिया, परंतु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुर्लभ है, वह वरदान मैंने पाया। भजन का प्रताप तो देखिए!॥114 (ख)॥
चौपाई :
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥
ते जड़ कामधेनु
गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥1॥
भावार्थ :-जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल
ज्ञान के लिए श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर खड़ी हुई कामधेनु को छोड़कर
दूध के लिए मदार के पेड़ को खोजते फिरते हैं॥1॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई॥
ते सठ महासिंधु बिनु
तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी॥2॥
भावार्थ :-हे पक्षीराज! सुनिए, जो लोग श्री हरि की भक्ति को छोड़कर दूसरे
उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनी वाले (अभागे) बिना ही जहाज के
तैरकर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं॥2॥
सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥
तव प्रसाद प्रभु मम
उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥3॥
भावार्थ :-(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! भुशुण्डिजी के वचन सुनकर गरुड़जी
हर्षित होकर कोमल वाणी से बोले- हे प्रभो! आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब
संदेह, शोक, मोह और कुछ भी नहीं रह गया॥3॥
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा॥
एक बात प्रभु
पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥4॥
भावार्थ :-मैंने आपकी कृपा से श्री रामचंद्रजी के पवित्र गुण समूहों को
सुना और शांति प्राप्त की। हे प्रभो! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ। हे
कृपासागर! मुझे समझाकर कहिए॥4॥
कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥
सोइ मुनि तुम्ह सन
कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥5॥
भावार्थ :-संत मुनि, वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ
कुछ भी नहीं है। हे गोसाईं! वही ज्ञान मुनि ने आपसे कहा, परंतु आपने भक्ति के
समान उसका आदर नहीं किया॥5॥
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥
सुनि उरगारि बचन सुख
माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥6॥
भावार्थ :-हे कृपा के धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है?
यह सब मुझसे कहिए। गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजी ने सुख माना और आदर
के साथ कहा-॥6॥
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु
अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥7॥
भावार्थ :-भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से
उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे
पक्षीश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिए॥7॥
ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब
भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती॥8॥
भावार्थ :-बहे हरि वाहन! सुनिए, ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान- ये सब
पुरुष हैं। पुरुष का प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया) स्वाभाविक
ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है॥8॥
दोहा :
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद
रघुबीर॥115 क॥
भावार्थ :- परंतु जो वैराग्यवान् और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष, जो विषयों के वश में हैं (उनके गुलाम हैं) और श्री रघुवीर के चरणों से विमुख हैं॥115 (क)॥
सोरठा
:
सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु
माया प्रगट॥115 ख॥
भावार्थ :- वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चंद्रमुख को देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। हे गरुड़जी! साक्षात् भगवान विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है॥115 (ख)॥
चौपाई
:
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ॥
मोह न नारि नारि कें
रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा॥1॥
भावार्थ :-यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत
(सिद्धांत) ही कहता हूँ। हे गरुड़जी! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के
रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती॥1॥
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥
पुनि रघुबीरहि भगति
पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥2॥
भावार्थ :-आप सुनिए, माया और भक्ति- ये दोनों ही स्त्री वर्ग की हैं, यह
सब कोई जानते हैं। फिर श्री रघुवीर को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चय ही
नाचने वाली (नटिनी मात्र) है॥2॥
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया॥
राम भगति निरुपम
निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी॥3॥
भावार्थ :-श्री रघुनाथजी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया
उससे अत्यंत डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमारहित और उपाधिरहित (विशुद्ध)
रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है,॥3॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥
अस बिचारि जे मुनि
बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी॥4॥
भावार्थ :-उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी
नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे भी सब सुखों की
खानि भक्ति की ही याचना करते हैं॥4॥
दोहा :
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न
होइ॥116 क॥
भावार्थ :-श्री रघुनाथजी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान
पाता। श्री रघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नहीं
होता॥116 (क)॥
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा
अबिछीन॥116 ख॥
भावार्थ :-हे सुचतुर गरुड़जी! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिए, जिसके सुनने से श्री रामजी के चरणों में सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम हो जाता है॥116 (ख)॥
चौपाई :
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुख रासी॥1॥
भावार्थ :-हे तात! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिए। यह समझते ही बनती है,
कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और
स्वभाव से ही सुख की राशि है॥1॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई।
जदपि मृषा छूटत कठिनई॥2॥
भावार्थ :-हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने
आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि वह
ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है॥2॥
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी॥
श्रुति पुरान बहु कहेउ
उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई॥3॥
भावार्थ :-तभी से जीव संसारी (जन्मने-मरने वाला) हो गया। अब न तो गाँठ
छूटती है और न वह सुखी होता है। वेदों और पुराणों ने बहुत से उपाय बतलाए हैं, पर
वह (ग्रंथि) छूटती नहीं वरन अधिकाधिक उलझती ही जाती है॥3॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥
अस संजोग ईस जब करई।
तबहुँ कदाचित सो निरुअरई॥4॥
भावार्थ :-जीव के हृदय में अज्ञान रूपी अंधकार विशेष रूप से छा रहा है,
इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा आगे
कहा जाता है) उपस्थित कर देते हैं तब भी कदाचित् ही वह (ग्रंथि) छूट पाती
है॥4॥
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई॥
जप तप ब्रत जम नियम
अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा॥5॥
भावार्थ :-श्री हरि की कृपा से यदि सात्विकी श्रद्धा रूपी सुंदर गो हृदय
रूपी घर में आकर बस जाए, असंख्य जप, तप व्रत यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार
(आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं,॥5॥
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥
नोइ निबृत्ति पात्र
बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा॥6॥
भावार्थ :-उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और
आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। निवृत्ति (सांसारिक विषयों से
और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास
(दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में
है), दुहने वाला अहीर है॥6॥
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई॥
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै।
धृति सम जावनु देइ जमावै॥7॥
भावार्थ :-हे भाई, इस प्रकार (धर्माचार में प्रवृत्त सात्विकी श्रद्धा
रूपी गो से भाव, निवृत्ति और वश में किए हुए निर्मल मन की सहायता से) परम धर्ममय
दूध दुहकर उसे निष्काम भाव रूपी अग्नि पर भली-भाँति औटावें। फिर क्षमा और संतोष
रूपी हवा से उसे ठंडा करें और धैर्य तथा शम (मन का निग्रह) रूपी जामन देकर उसे
जमावें॥7॥
मुदिताँ मथै बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी॥
तब मथि काढ़ि लेइ
नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता॥8॥
भावार्थ :-तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्व विचार रूपी मथानी से
दम (इंद्रिय दमन) के आधार पर (दम रूपी खंभे आदि के सहारे) सत्य और सुंदर वाणी
रूपी रस्सी लगाकर उसे मथें और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुंदर और अत्यंत पवित्र
वैराग्य रूपी मक्खन निकाल लें॥8॥
दोहा :
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल
जरि जाइ॥117 क॥
भावार्थ :-तब योग रूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी
ईंधन लगा दें (सब कर्मों को योग रूपी अग्नि में भस्म कर दें)। जब (वैराग्य रूपी
मक्खन का) ममता रूपी मल, जल जाए, तब (बचे हुए) ज्ञान रूपी घी को (निश्चयात्मिका)
बुद्धि से ठंडा करें॥117 (क)॥
तब बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि
बनाइ॥117 ख॥
भावार्थ :-तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस (ज्ञान रूपी) निर्मल घी को पाकर
उससे चित्त रूपी दीए को भरकर, समता की दीवट बनाकर, उस पर उसे दृढ़तापूर्वक
(जमाकर) रखें॥117 (ख)॥
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै
सुगाढ़ि॥117 ग॥
भावार्थ :-(जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) तीनों अवस्थाएँ और (सत्त्व, रज और तम) तीनों गुण रूपी कपास से तुरीयावस्था रूपी रूई को निकालकर और फिर उसे सँवारकर उसकी सुंदर कड़ी बत्ती बनाएँ॥117 (ग)॥
सोरठा :
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ
सब॥117 घ॥
भावार्थ :-इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावें, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जाएँ॥117 (घ)॥
चौपाई :
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख
सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥
भावार्थ :-'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत् कभी न
टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस
प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी
भ्रम का नाश हो जाता है,॥1॥
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तब मिटइ अपारा॥
तब सोइ बुद्धि पाइ
उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा॥2॥
भावार्थ :-और महान् बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अंधकार मिट
जाता है। तब वही (विज्ञानरूपिणी) बुद्धि (आत्मानुभव रूप) प्रकाश को पाकर हृदय
रूपी घर में बैठकर उस जड़ चेतन की गाँठ को खोलती है॥2॥
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥
छोरत ग्रंथ जानि खगराया।
बिघ्न नेक करइ तब माया॥3॥
भावार्थ :-यदि वह (विज्ञान रूपिणी बुद्धि) उस गाँठ को खोलने पावे, तब यह
जीव कृतार्थ हो, परंतु हे पक्षीराज गरुड़जी! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर
अनेकों विघ्न करती है॥3॥
रिद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई॥
कल बल छल करि
जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा॥4॥
भावार्थ :-हे भाई! वह बहुत सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि
को लोभ दिखाती हैं और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और
आँचल की वायु से उस ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती हैं॥4॥
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी॥
जौं तेहि बिघ्न
बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी॥5॥
भावार्थ :-यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई, तो वह उन (ऋद्धि-सिद्धियों) को
अहितकर (हानिकर) समझकर उनकी ओर ताकती नहीं। इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से
बुद्धि को बाधा न हुई, तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं॥5॥
इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं बिषय
बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥6॥
भावार्थ :-इंद्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं।
वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना किए (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही
वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं॥6॥
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो
प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥7॥
भावार्थ :-सज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह
विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभव रूप) प्रकाश
भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई (सारा किया-कराया चौपट हो
गया)॥7॥
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥
बिषय समीर बुद्धि
कत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥8॥
भावार्थ :-इंद्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान (स्वाभाविक ही) नहीं
सुहाता, क्योंकि उनकी विषय-भोगों में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय
रूपी हवा ने बावली बना दिया। तब फिर (दोबारा) उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन
जलावे?॥8॥
दोहा :
तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ
बिहगेस॥118 क॥
भावार्थ :-(इस प्रकार ज्ञान दीपक के बुझ जाने पर) तब फिर जीव अनेकों
प्रकार से संसृति (जन्म-मरणादि) के क्लेश पाता है। हे पक्षीराज! हरि की माया
अत्यंत दुस्तर है, वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती॥118 (क)॥
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह
अनेक॥118 ख॥
भावार्थ :-ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित् यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं॥118 (ख)॥
चौपाई :
ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥
जो निर्बिघ्न पंथ
निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥1॥
भावार्थ :-ज्ञान का मार्ग कृपाण (दोधारी तलवार) की धार के समान है। हे
पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती। जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले
जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपद को प्राप्त करता है॥1॥
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद॥
राम भजत सोइ मुकुति
गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं॥2॥
भावार्थ :-संत, पुराण, वेद और (तंत्र आदि) शास्त्र (सब) यह कहते हैं कि
कैवल्य रूप परमपद अत्यंत दुर्लभ है, किंतु हे गोसाईं! वही (अत्यंत दुर्लभ) मुक्ति
श्री रामजी को भजने से बिना इच्छा किए भी जबर्दस्ती आ जाती है॥2॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥
तथा मोच्छ सुख सुनु
खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥3॥
भावार्थ :-जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकार के
उपाय क्यों न करे। वैसे ही, हे पक्षीराज! सुनिए, मोक्षसुख भी श्री हरि की भक्ति
को छोड़कर नहीं रह सकता॥3॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥
भगति करत बिनु जतन
प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा॥4॥
भावार्थ :-ऐसा विचार कर बुद्धिमान् हरि भक्त भक्ति पर लुभाए रहकर मुक्ति
का तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करने से संसृति (जन्म-मृत्यु रूप संसार) की जड़
अविद्या बिना ही यंत्र और परिश्रम के (अपने आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है,॥4॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी॥
असि हरि भगति सुगम
सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई॥5॥
भावार्थ :-जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने आप (बिना हमारी चेष्टा के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरि भक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा?॥5॥
दोहा :
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत
बिचारि॥119 क॥
भावार्थ :-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे
सेव्य (स्वामी) हैं, इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता। ऐसा
सिद्धांत विचारकर श्री रामचंद्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए॥119 (क)॥
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते
धन्य॥119 ख॥
भावार्थ :-जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्री रघुनाथजी को जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं॥119 (ख)॥
चौपाई
:
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई॥
राम भगति चिंतामनि
सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर॥1॥
भावार्थ :-मैंने ज्ञान का सिद्धांत समझाकर कहा। अब भक्ति रूपी मणि की
प्रभुता (महिमा) सुनिए। श्री रामजी की भक्ति सुंदर चिंतामणि है। हे गरुड़जी! यह
जिसके हृदय के अंदर बसती है,॥1॥
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती॥
मोह दरिद्र निकट नहिं
आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥2॥
भावार्थ :-वह दिन-रात (अपने आप ही) परम प्रकाश रूप रहता है। उसको दीपक, घी
और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिए। (इस प्रकार मणि का एक तो स्वाभाविक प्रकाश रहता है)
फिर मोह रूपी दरिद्रता समीप नहीं आती (क्योंकि मणि स्वयं धनरूप है) और (तीसरे)
लोभ रूपी हवा उस मणिमय दीप को बुझा नहीं सकती (क्योंकि मणि स्वयं प्रकाश रूप है,
वह किसी दूसरे की सहायता से प्रकाश नहीं करती)॥2॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई॥
खल कामादि निकट नहिं
जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं॥3॥
भावार्थ :-(उसके प्रकाश से) अविद्या का प्रबल अंधकार मिट जाता है। मदादि
पतंगों का सारा समूह हार जाता है। जिसके हृदय में भक्ति बसती है, काम, क्रोध और
लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते॥3॥
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई॥
दब्यापहिं मानस रोग न
भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी॥4॥
भावार्थ :-उसके लिए विष अमृत के समान और शत्रु मित्र हो जाता है। उस मणि
के बिना कोई सुख नहीं पाता। बड़े-बड़े मानस रोग, जिनके वश होकर सब जीव दुःखी हो
रहे हैं, उसको नहीं व्यापते॥4॥
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग
माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं॥5॥
भावार्थ :-श्री रामभक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे स्वप्न में
भी लेशमात्र दुःख नहीं होता। जगत में वे ही मनुष्य चतुरों के शिरोमणि हैं जो उस
भक्ति रूपी मणि के लिए भली-भाँति यत्न करते हैं॥5॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई॥
सुगम उपाय पाइबे
केरे। नर हतभाग्य देहिं भटभेरे॥6॥
भावार्थ :-यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना श्री
रामजी की कृपा के उसे कोई पा नहीं सकता। उसके पाने के उपाय भी सुगम ही हैं, पर
अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं॥6॥
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना॥
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी।
ग्यान बिराग नयन उरगारी॥7॥
भावार्थ :-वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं। श्री रामजी की नाना प्रकार की
कथाएँ उन पर्वतों में सुंदर खानें हैं। संत पुरुष (उनकी इन खानों के रहस्य को
जानने वाले) मर्मी हैं और सुंदर बुद्धि (खोदने वाली) कुदाल है। हे गरुड़जी! ज्ञान
और वैराग्य ये दो उनके नेत्र हैं॥7॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी॥
मोरें मन प्रभु अस
बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥8॥
भावार्थ :-जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता है, वह सब सुखों की खान इस
भक्ति रूपी मणि को पा जाता है। हे प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री
रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं॥8॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा॥
सब कर फल हरि भगति सुहाई।
सो बिनु संत न काहूँ पाई॥9॥
भावार्थ :-श्री रामचंद्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्री हरि
चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं। सब साधनों का फल सुंदर हरि भक्ति ही है। उसे
संत के बिना किसी ने नहीं पाया॥9॥
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा॥10॥
भावार्थ :-ऐसा विचार कर जो भी संतों का संग करता है, हे गरुड़जी उसके लिए
श्री रामजी की भक्ति सुलभ हो जाती है॥10॥
दोहा :
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता
जाहिं॥120 क॥
भावार्थ :-ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता हैं, जो
उस समुद्र को मथकर कथा रूपी अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती
है॥120 (क)॥
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस
बिचारि॥120 ख॥
भावार्थ :-वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोह रूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करती है, वह हरि भक्ति ही है, हे पक्षीराज! इसे विचार कर देखिए॥120 (ख)॥
गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तर
चौपाई :
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥
नाथ मोहि निज सेवक जानी।
सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥1॥
भावार्थ :-पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर
आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान
कर कहिए॥1॥
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन कवन सुख
भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥2॥
भावार्थ :-हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा
शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर
संक्षेप में ही कहिए॥2॥
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति
बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥3॥
भावार्थ :-संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का
वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान् पुण्य कौन सा है और
सबसे महान् भयंकर पाप कौन है॥3॥
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति
प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥4॥
भावार्थ :-फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी
कृपा भी बहुत है। (काकभुशुण्डिजी ने कहा-) हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ
सुनिए। मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूँ॥4॥
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी।
ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥5॥
भावार्थ :-मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी
याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी
ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥5॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें
ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥6॥
भावार्थ :-ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का
भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ
से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं॥6॥
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन
काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥7॥
भावार्थ :-जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के
समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना,
यह संतों का सहज स्वभाव है॥7॥
संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत
कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥8॥
भावार्थ :-संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों
को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए
भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)॥8॥
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।
अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥9॥
भावार्थ :-किंतु दुष्ट लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें
बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु
गरुड़जी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही
दूसरों का अपकार करते हैं॥9॥
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति
हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥10॥
भावार्थ :-वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती
का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह
केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही होता है॥10॥
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित
अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा॥11॥
भावार्थ :-और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और
सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है
और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है॥11॥
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग
करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥12॥
भावार्थ :-शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में)
मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की
निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत् में कौए का शरीर धारण करके
जन्म लेता है॥12॥
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत
निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥13॥
भावार्थ :-जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव
नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह
रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया)
रहता है॥13॥
सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा।
जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥
भावार्थ :-जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म
लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥14॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ
अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥
भावार्थ :-सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत
से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त
है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना॥16॥
भावार्थ :-यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)॥16॥
चौपाई :
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥
भावार्थ :-ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की
अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती
है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥17॥
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी।
त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥
भावार्थ :-अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ,
कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग
है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥
भावार्थ :-मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे
रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥19॥
दोहा :
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि
लहै समाधि॥121 क॥
भावार्थ :-एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से
असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि
(शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥121 (क)॥
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं
हरिजान॥121 ख॥
भावार्थ :-नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥121 (ख)॥
चौपाई
:
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं
गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥
भावार्थ :-इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय,
प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग
कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥1॥
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।
मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥2॥
भावार्थ :-प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ
क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर
ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या
चीज हैं॥2॥
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन
बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥3॥
भावार्थ :-यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥3॥
भजन महिमा
चौपाई :
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग
नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥
भावार्थ :-श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण
बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो
तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥4॥
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई।
बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥
भावार्थ :-हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में
वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा
रूपी दुर्बलता मिट जाए॥5॥
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद।
जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥6॥
भावार्थ :-इस प्रकार सब रोगों से छूटकर जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल
में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी,
शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचार में परम निपुण जो मुनि हैं,॥6॥
सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥7॥
भावार्थ :-हे पक्षीराज! उन सबका मत यही है कि श्री रामजी के चरणकमलों में
प्रेम करना चाहिए। श्रुति, पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की
भक्ति के बिना सुख नहीं है॥7॥
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु
बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥8॥
भावार्थ :-कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी
को मार डाले, आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें, परंतु श्री हरि से
विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता॥8॥
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अंधकारु बरु रबिहि
नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥9॥
भावार्थ :-मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर
पर भले ही सींग निकल आवे, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे, परंतु श्री राम से
विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता॥9॥
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥10॥
भावार्थ :-बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो
जाएँ), परंतु श्री राम से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता॥10॥
दोहा :
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न तव तरिअ यह
सिद्धांत अपेल॥122 क॥
भावार्थ :-जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से
भले ही तेल निकल आवे, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा
जा सकता, यह सिद्धांत अटल है॥122 (क)॥
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं
प्रबीन॥122 ख॥
भावार्थ :-प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब संदेह त्यागकर श्री रामजी को ही भजते हैं॥122 (ख)॥
श्लोक :
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं
तरन्ति ते॥122 ग॥
भावार्थ :-मैं आपसे भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूँ- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं॥122 (ग)॥
चौपाई
:
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥
श्रुति सिद्धांत इहइ
उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥1॥
भावार्थ :-हे नाथ! मैंने श्री हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार
कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से कहा। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियों
का यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्री रामजी का भजन करना
चाहिए॥1॥
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही॥
तुम्ह बिग्यानरूप
नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा॥2॥
भावार्थ :-प्रभु श्री रघुनाथजी को छो़ड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाए, जिनका मुझ जैसे मूर्ख पर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ! आप विज्ञान रूप हैं, आपको मोह नहीं है। आपने तो मुझ पर बड़ी कृपा की है॥2॥
रामायण माहात्म्य, तुलसी विनय और फलस्तुति
पूँछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि॥
सत संगति दुर्लभ
संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा॥3॥
भावार्थ :-जो आपने मुझ से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजी के मन को प्रिय लगने
वाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसार में घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी
सत्संग दुर्लभ है॥3॥
देखु गरु़ड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥
सकुनाधम सब भाँति
अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥4॥
भावार्थ :-हे गरुड़जी! अपने हृदय में विचार कर देखिए, क्या मैं भी श्री
रामजी के भजन का अधिकारी हूँ? पक्षियों में सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र
हूँ, परंतु ऐसा होने पर भी प्रभु ने मुझको सारे जगत् को पवित्र करने वाला
प्रसिद्ध कर दिया (अथवा प्रभु ने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया)॥4॥
दोहा :
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम
दीन॥123 क॥
भावार्थ :-यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी आज मैं धन्य हूँ,
अत्यंत धन्य हूँ, जो श्री रामजी ने मुझे अपना 'निज जन' जानकर संत समागम दिया
(आपसे मेरी भेंट कराई)॥123 (क)॥
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ
कोइ॥123 ख॥
भावार्थ :-हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा, कुछ भी छिपा नहीं रखा। (फिर भी) श्री रघुवीर के चरित्र समुद्र के समान हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है?॥123 (ख)॥
चौपाई :
सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना॥
महिमा निगम नेत
करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई॥1॥
भावार्थ :-श्री रामचंद्रजी के बहुत से गुण समूहों का स्मरण कर-करके सुजान
भुशुण्डिजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं। जिनकी महिमा वेदों ने 'नेति-नेति' कहकर
गाई है, जिनका बल, प्रताप और प्रभुत्व (सामर्थ्य) अतुलनीय है,॥1॥
सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई॥
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न
देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ॥2॥
भावार्थ :-जिन श्री रघुनाथजी के चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य
हैं, उनकी मुझ पर कृपा होनी उनकी परम कोमलता है। किसी का ऐसा स्वभाव कहीं न सुनता
हूँ, न देखता हूँ। अतः हे पक्षीराज गरुड़जी! मैं श्री रघुनाथजी के समान किसे
गिनूँ (समझूँ)?॥2॥
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी॥
जोगी सूर सुतापस
ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥3॥
भावार्थ :-साधक, सिद्ध, जीवनमुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान, कर्म
(रहस्य) के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण,
पंडित और विज्ञानी-॥3॥
तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी॥
सरन गएँ मो से अघ
रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी॥4॥
भावार्थ :-ये कोई भी मेरे स्वामी श्री रामजी का सेवन (भजन) किए बिना नहीं
तर सकते। मैं, उन्हीं श्री रामजी को बार-बार नमस्कार करता हूँ। जिनकी शरण जाने पर
मुझ जैसे पापराशि भी शुद्ध (पापरहित) हो जाते हैं, उन अविनाशी श्री रामजी को मैं
नमस्कार करता हूँ॥4॥
दोहा :
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल ॥
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ
अनुकूल॥124 क॥
भावार्थ :-जिनका नाम जन्म-मरण रूपी रोग की (अव्यर्थ) औषध और तीनों भयंकर
पीड़ाओं (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों) को हरने वाला है, वे कृपालु
श्री रामजी मुझ पर और आप पर सदा प्रसन्न रहें॥124 (क)॥
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत
संदेह॥124 ख॥
भावार्थ :-भुशुण्डिजी के मंगलमय वचन सुनकर और श्री रामजी के चरणों में उनका अतिशय प्रेम देखकर संदेह से भलीभाँति छूटे हुए गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले॥124 (ख)॥
चौपाई :
मैं कृतकृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी॥
राम चरन नूतन रत भई।
माया जनित बिपति सब गई॥1॥
भावार्थ :-श्री रघुवीर के भक्ति रस में सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं
कृतकृत्य हो गया। श्री रामजी के चरणों में मेरी नवीन प्रीति हो गई और माया से
उत्पन्न सारी विपत्ति चली गई॥1॥
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए॥
मो पहिं होइ न प्रति
उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा॥2॥
भावार्थ :-मोह रूपी समुद्र में डूबते हुए मेरे लिए आप जहाज हुए। हे नाथ!
आपने मुझे बहुत प्रकार के सुख दिए (परम सुखी कर दिया)। मुझसे इसका प्रत्युपकार
(उपकार के बदले में उपकार) नहीं हो सकता। मैं तो आपके चरणों की बार-बार वंदना ही
करता हूँ॥2॥
पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी॥
संत बिटप सरिता गिरि
धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥3॥
भावार्थ :-आप पूर्णकाम हैं और श्री रामजी के प्रेमी हैं। हे तात! आपके
समान कोई बड़भागी नहीं है। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी- इन सबकी क्रिया
पराए हित के लिए ही होती है॥3॥
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता।
पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥4॥
भावार्थ :-संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है,
परंतु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना, क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने
से पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं॥4॥
जीवन जन्म सफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर।
पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर॥5॥
भावार्थ :-मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया। आपकी कृपा से सब संदेह चला गया।
मुझे सदा अपना दास ही जानिएगा। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! पक्षी श्रेष्ठ गरुड़जी
बार-बार ऐसा कह रहे हैं॥5॥
दोहा :
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि
रघुबीर॥125 क॥
भावार्थ :-उन (भुशुण्डिजी) के चरणों में प्रेमसहित सिर नवाकर और हृदय में
श्री रघुवीर को धारण करके धीरबुद्धि गरु़ड़जी तब वैकुंठ को चले गए॥125 (क)॥
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद
पुरान॥125 ख॥
भावार्थ :-हे गिरिजे! संत समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है। पर वह (संत समागम) श्री हरि की कृपा के बिना नहीं हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं॥125 (ख)॥
चौपाई :
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा॥
प्रनत कल्पतरु करुना
पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा॥1॥
भावार्थ :-मैंने यह परम पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानों से सुनते ही भवपाश
(संसार के बंधन) छूट जाते हैं और शरणागतों को (उनके इच्छानुसार फल देने वाले)
कल्पवृक्ष तथा दया के समूह श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम उत्पन्न होता
है॥1॥
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
तीर्थाटन साधन
समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥2॥
भावार्थ :-जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म
(शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, योग,
वैराग्य और ज्ञान में निपुणता,॥2॥
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना॥
भूत दया द्विज गुर
सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई॥3॥
भावार्थ :-अनेकों प्रकार के कर्म, धर्म, व्रत और दान, अनेकों संयम दम, जप, तप और यज्ञ, प्राणियों पर दया, ब्राह्मण और गुरु की सेवा, विद्या, विनय और विवेक की बड़ाई (आदि)-॥3॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी॥
सो रघुनाथ भगति श्रुति
गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई॥4॥
भावार्थ :-जहाँ तक वेदों ने साधन बतलाए हैं, हे भवानी! उन सबका फल श्री
हरि की भक्ति ही है, किंतु श्रुतियों में गाई हुई वह श्री रघुनाथजी की भक्ति श्री
रामजी की कृपा से किसी एक (विरले) ने ही पाई है॥4॥
दोहा :
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं
मानि बिस्वास॥126॥
भावार्थ :-किंतु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंतर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनि दुर्लभ हरि भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं॥126॥
चौपाई
:
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता॥
धर्म परायन सोइ कुल
त्राता। राम चरन जा कर मन राता॥1॥
भावार्थ :-जिसका मन श्री रामजी के चरणों में अनुरक्त है, वही सर्वज्ञ (सब
कुछ जानने वाला) है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है। वही पृथ्वी का भूषण, पण्डित और
दानी है। वही धर्मपरायण है और वही कुल का रक्षक है॥1॥
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना॥
सोइ कबि कोबिद
सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा॥2॥
भावार्थ :-जो छल छो़ड़कर श्री रघुवीर का भजन करता है, वही नीति में निपुण
है, वही परम् बुद्धिमान है। उसी ने वेदों के सिद्धांत को भली-भाँति जाना है। वही
कवि, वही विद्वान् तथा वही रणधीर है॥2॥
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥
धन्य सो भूपु नीति जो
करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥3॥
भावार्थ :-वह देश धन्य है, जहाँ श्री गंगाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो
पातिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण
धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता है॥3॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥
धन्य घरी सोइ जब
सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥4॥
भावार्थ :-वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति होती है (जो दान देने में व्यय
होता है) वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य
है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखण्ड भक्ति हो॥4॥ (धन
की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच
गति है। जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।)
दोहा :
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज
बिनीत॥127॥
भावार्थ :-हे उमा! सुनो वह कुल धन्य है, संसारभर के लिए पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्री रघुवीर परायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हों॥127॥
चौपाई :
मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी॥
तव मन प्रीति देखि
अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई॥1॥
भावार्थ :-मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको
छिपाकर रखा था। जब तुम्हारे मन में प्रेम की अधिकता देखी तब मैंने श्री रघुनाथजी
की यह कथा तुमको सुनाई॥1॥
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि॥
कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि
कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि॥2॥
भावार्थ :-यह कथा उनसे न कहनी चाहिए जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभाव के हों
और श्री हरि की लीला को मन लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामी को, जो चराचर
के स्वामी श्री रामजी को नहीं भजते, यह कथा नहीं कहनी चाहिए॥2॥
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ॥
रामकथा के तेइ
अधिकारी। जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी॥3॥
भावार्थ :-ब्राह्मणों के द्रोही को, यदि वह देवराज (इन्द्र) के समान
ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा न सुनानी चाहिए। श्री रामकथा के अधिकारी
वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यंत प्रिय है॥3॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई॥
ता कहँ यह बिसेष
सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई॥4॥
भावार्थ :-जिनकी गुरु के चरणों में प्रीति है, जो नीतिपरायण हैं और
ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही इसके अधिकारी हैं और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख
देने वाली है, जिसको श्री रघुनाथजी प्राण के समान प्यारे हैं॥4॥
दोहा :
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट
पान॥128॥
भावार्थ :-जो श्री रामजी के चरणों में प्रेम चाहता हो या मोक्षपद चाहता
हो, वह इस कथा रूपी अमृत को प्रेमपूर्वक अपने कान रूपी दोने से पिए॥128॥
चौपाई
:
राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी॥
संसृति रोग सजीवन मूरी।
राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥1॥
भावार्थ :-हे गिरिजे! मैंने कलियुग के पापों का नाश करने वाली और मन के मल
को दूर करने वाली रामकथा का वर्णन किया। यह रामकथा संसृति (जन्म-मरण) रूपी रोग के
(नाश के) लिए संजीवनी जड़ी है, वेद और विद्वान पुरुष ऐसा कहते हैं॥1॥
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना॥
अति हरि कृपा जाहि पर
होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई॥2॥
भावार्थ :-इसमें सात सुंदर सीढ़ियाँ हैं, जो श्री रघुनाथजी की भक्ति को
प्राप्त करने के मार्ग हैं। जिस पर श्री हरि की अत्यंत कृपा होती है, वही इस
मार्ग पर पैर रखता है॥2॥
मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन
करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥3॥
भावार्थ :-जो कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामना की
सिद्धि पा लेते हैं, जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं, वे संसार
रूपी समुद्र को गो के खुर से बने हुए गड्ढे की भाँति पार कर जाते हैं॥3॥
सुनि सब कथा हृदय अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई॥
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा।
राम चरन उपजेउ नव नेहा॥4॥
भावार्थ :-(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) सब कथा सुनकर श्री पार्वतीजी के हृदय
को बहुत ही प्रिय लगी और वे सुंदर वाणी बोलीं- स्वामी की कृपा से मेरा संदेह जाता
रहा और श्री रामजी के चरणों में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया॥4॥
दोहा :
मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल
कलेस॥129॥
भावार्थ :-हे विश्वनाथ! आपकी कृपा से अब मैं कृतार्थ हो गई। मुझमें दृढ़ राम भक्ति उत्पन्न हो गई और मेरे संपूर्ण क्लेश बीत गए (नष्ट हो गए)॥129॥
चौपाई
:
यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा॥
भव भंजन गंजन संदेहा। जन
रंजन सज्जन प्रिय एहा॥1॥
भावार्थ :-शम्भु-उमा का यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करने वाला और शोक
का नाश करने वाला है। जन्म-मरण का अंत करने वाला, संदेहों का नाश करने वाला,
भक्तों को आनंद देने वाला और संत पुरुषों को प्रिय है॥1॥
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह कें कछु नाहीं॥
रघुपति कृपाँ
जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा॥2॥
भावार्थ :-जगत् में जो (जितने भी) रामोपासक हैं, उनको तो इस रामकथा के
समान कुछ भी प्रिय नहीं है। श्री रघुनाथजी की कृपा से मैंने यह सुंदर और पवित्र
करने वाला चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है॥2॥
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ
रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥3॥
भावार्थ :-(तुलसीदासजी कहते हैं-) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत
और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस, श्री रामजी का ही स्मरण करना, श्री
रामजी का ही गुण गाना और निरंतर श्री रामजी के ही गुणसमूहों को सुनना चाहिए॥3॥
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना॥
ताहि भजहि मन तजि
कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई॥4॥
भावार्थ :-पतितों को पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है, ऐसा
कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं- रेमन! कुटिलता त्याग कर उन्हीं को भज। श्री राम
को भजने से किसने परम गति नहीं पाई?॥4॥
छंद :
पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध
गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम
बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥1॥
भावार्थ :-अरे मूर्ख मन! सुन, पतितों को भी पावन करने वाले श्री राम को
भजकर किसने परमगति नहीं पाई? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत से दुष्टों
को उन्होंने तार दिया। आभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जो अत्यंत पाप
रूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्री रामजी
को मैं नमस्कार करता हूँ॥1॥
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम
राम धाम सिधावहीं॥
सत पंच चौपाई मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन
अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै॥2॥
भावार्थ :-जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्री रामजी का यह चरित्र कहते हैं,
सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुग के पाप और मन के मल को धोकर बिना ही परिश्रम
श्री रामजी के परम धाम को चले जाते हैं। (अधिक क्या) जो मनुष्य पाँच-सात चौपाइयों
को भी मनोहर जानकर (अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्य का
सच्चा निर्णायक) जानकर उनको हृदय में धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकार की
अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्री रामजी हरण कर लेते हैं, (अर्थात् सारे
रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयों को भी समझकर उनका अर्थ
हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्री रामचंद्रजी हर
लेते हैं)॥2॥
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित
निर्बानप्रद सम आन को॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो
परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥3॥
भावार्थ :-(परम) सुंदर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते
हैं, ऐसे एक श्री रामचंद्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करने
वाला (सुहृद्) और मोक्ष देने वाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपा से
मंदबुद्धि तुलसीदास ने भी परम शांति प्राप्त कर ली, उन श्री रामजी के समान प्रभु
कहीं भी नहीं हैं॥3॥
दोहा :
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव
भीर॥130 क॥
भावार्थ :-हे श्री रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई
दीनों का हित करने वाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरण के
भयानक दुःख का हरण कर लीजिए॥130 (क)॥
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय
लागहु मोहि राम॥130 ख॥
भावार्थ :-जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा
लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे रामजी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥130 (ख)॥
श्लोक
:
यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं
प्राप्तयै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तमः शान्तये।
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्॥1॥
भावार्थ :-श्रेष्ठ कवि भगवान् श्री शंकरजी ने पहले जिस दुर्गम
मानस-रामायण की, श्री रामजी के चरणकमलों में नित्य-निरंतर (अनन्य) भक्ति प्राप्त
होने के लिए रचना की थी, उस मानस-रामायण को श्री रघुनाथजी के नाम में निरत मानकर
अपने अंतःकरण के अंधकार को मिटाने के लिए तुलसीदास ने इस मानस के रूप में
भाषाबद्ध किया॥1॥
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं। मायामोहमलापहं सुविमलं
प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते
संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥2॥
भावार्थ :-यह श्री रामचरित मानस पुण्य रूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति को देने वाला, माया मोह और मल का नाश करने वाला, परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचण्ड किरणों से नहीं जलते॥2॥
मासपारायण, तीसवाँ विश्राम नवाह्नपारायण, नवाँ विश्राम
इति
श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के
समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह सातवाँ सोपान समाप्त
हुआ।
(उत्तरकाण्ड समाप्त)