विद्यार्थी का दायित्व पर निबंध | Essay on Responsibility of Student in Hindi
Vidyarthi Ka Daitva par nibandh: इस निबंध के द्वारा आप विद्यार्थियों के दायित्वों और कर्तव्यों को अच्छी तरह से समझ सकते हैं। साथ ही विभिन्न परीक्षाओं में इस निबंध को बेहतर तरीके से लिख सकते हैं।
विद्यार्थी का दायित्व पर निबंध
संकेत बिंदु- (1) अध्ययन, मनन द्वारा विद्या अर्जन (2) अनुशासन का पालन (3) संस्कार-काल और परिवार और समाज के प्रतिदायित्व (4) प्रत्येक कार्य सीमा के भीतर (5) आपातकाल में परिवार और समाज के प्रतिदायित्व।
अध्ययन, मनन द्वारा विद्या अर्जन
अध्ययन, चिन्तन, मनन द्वारा विद्या अर्जित करना विद्यार्थी का दायित्व है। गुरुजनों का आज्ञाकारी बनना तथा विद्यालयीय अनुशासन में रहना विद्यार्थी का दायित्व है। धार्मिक संस्कारों को अपने हृदय में विकसित करना विद्यार्थी का दायित्व है। समाज और राष्ट्र के क्रिया-कलापों से अवगत रहना विद्यार्थी का दायित्व है। समाज अथवाराष्ट्र पर कोई विपत्ति या संकट आने पर राष्ट्र-रक्षा के लिए अपने को समर्पित करना विद्यार्थी का दायित्व है।
'दायित्व' का शाब्दिक अर्थ है जिम्मेदारी। दूसरे शब्दों में किसी कार्य की पूर्ति का भार। दायित्व के निर्वाह से शिक्षा मिलती है, बल की प्राप्ति होती है, जीवन का विकास होता है। मुंशी प्रेमचन्द के शब्दों में, 'जब हम राह भूलकर भटकने लगते हैं, तो दायित्व का ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।'
विद्यार्थी अर्थात् विद्या का अभिलाषी। विद्या प्राप्ति का इच्छुक। विद्या पढ़ने वाला विद्यार्थी कहलाता है, इसलिए अपने नाम के अर्थ के अनुरूप उसका सर्वप्रथम दायित्व है विद्या ग्रहण करना।
विद्या ग्रहण के लिए चाहिए निरन्तर अध्ययन, चिन्तन और मनन। अध्ययन ज्ञान का द्वार खोलता है, मस्तिष्क को परिष्कृत करता है तथा हृदय को सुसंस्कृत बनाता है। बेकन के शब्दों में 'अध्ययन, आनन्द, अलंकरण और योग्यता का काम करता है।' चिन्तन और मनन अध्ययन की परिचारिकाएँ हैं। इनके द्वारा ही अधीत विषय मानसिक माला में गुंथते हैं।
अध्ययन, चिन्तन तथा मनन के लिए नीतिज्ञ चाणक्य ने विद्यार्थी को आठ बातें छोड़ने की सलाह दी है-
कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रृंगारकौतुके।
अतिनिद्रातिसेवा च, विद्यार्थी
ह्यष्ट वर्जयेत्॥
अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रृंगार, तमाशे, अधिक निद्रा और अत्यधिक सेवा विद्यार्थी के लिए वर्जित हैं।
अनुशासन का पालन
विद्यालय के अनुशासन को स्वीकार करना विद्यार्थी का प्रमुख दायित्व है। इस दायित्व-निर्वाह से विद्यालय का वातावरण अध्ययनानुकूल बनेगा, जो विद्यार्थी के विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा, मन को परिष्कृत करेगा, प्रतिभा को योग्यता में परिणत करेगा, भावी जीवन की सफलता और उज्ज्वलता में सहायक होगा।
गुरुजनों की आज्ञा का पालन करना और विद्यालय के अनुशासन को बनाए रखना विद्यार्थी का दूसरा दायित्व है । कक्षा में अध्ययन करते हुए गुरु के वचनों को एकाग्रचित होकर सुनना, ग्रहण करना तथा घर पर प्रदत्त पाठ-कार्य की पूर्ति विद्यार्थी का महत्त्वपूर्ण दायित्व है। इससे पाठ पर पकड़ बढ़ेगी, पाठ मस्तिष्क में पूरी तरह बैठ जाएगा।
संस्कार-काल और परिवार और समाज के प्रतिदायित्व
केवल विद्यार्जन ही विद्यार्थी का दायित्व नहीं। विद्यार्थी-जीवन संस्कार-काल भी है। अन्तःकरण में सुसंस्कारों को उद्दीप्त करने का स्वर्ण अवसर है। कारण, विद्यार्थी-जीवन के संस्कार हृदय में बद्धमूल हो जाते हैं, जो जीवन-पर्यन्त साथ नहीं छोड़ते। ये संस्कार ही धर्म, समाज तथा राष्ट्र के प्रति कर्तव्य पूर्ति की प्रेरणा देते हैं, जीवन-समर्पण और उत्सर्ग के लिए प्रेरित करते हैं। अतः सुसंस्कारों का विकास विद्यार्थी का दायित्व बन जाता है।
विद्यार्थी विद्या-अध्ययन के प्रति समर्पित होते हुए भी परिवार, समाज, देश तथा धर्म के प्रति दायित्वों से विमुख नहीं हो सकता। आज का विद्यार्थी समाज और नगर से दूर गुरुकुलका छात्र नहीं है, जिसे दीन-दुनिया की कोई खबर न हो।आज का विद्यार्थी परिवार के कार्यों में हाथ बँटाता है। समाज-सेवा में रुचि लेता है। धार्मिक कृत्यों और उत्सवों में भाग लेता है। देश की समस्याओं के समाधानार्थ अपने को प्रस्तुत करता है । राजनीति को ओढ़ता है। चुनाव में भाग लेकर प्रांत का कर्णधार (मुख्यमंत्री) बनता है। इस रूप में विद्यार्थी के दायित्व का क्षेत्र विस्तृत और विशाल हो जाता है।
प्रत्येक कार्य सीमा के भीतर
प्रत्येक कार्य एक सीमा में ही सुशोभित होता है। 'अति' विनास की ओर अग्रसर करती है। दैनन्दिन पारिवारिक कार्यों में हाथ बंटाकर परिवार की सहायता करना विद्यार्थी का दायित्व है, परन्तु विद्यालय के पश्चात् सम्पूर्ण समय परिवार के लिए समर्पण करना अति है। समाज के छोटे-मोटे कार्यों में समय देकर समाज की सेवा करना विद्यार्थी का दायित्व है, क्योंकि वह समाज का एक घटक है, जिसमें वह विकसित हो रहा है, किन्तु सामाजिक कार्यों में ही अपने को समर्पित करना अति है। यह अति' अध्ययन में व्यवधान डालेगी, मूल दायित्व (विद्या-प्राप्ति की इच्छा) से उपेक्षित रखेगी। मूल दायित्व को त्यागना, उसे उपेक्षित करना या उसमें प्रवंचना करना विद्यार्थी का दायित्व नहीं, दायित्व के प्रति विमुखता है, पाप है।
राष्ट्र-सेवा और राज्य-सेवा विद्यार्थी का दायित्व नहीं। राजनीति के पंक में फंसना विद्यार्थी के लिए उचित नहीं। कारण, राजनीति वेश्या की भाँति अनेक रूपिणी है, जो विद्यार्थी के मूल दायित्व को अपने आकर्षण से भस्म कर देती है, कर्तव्य से च्युत कर देती है, लोकेषणा के पंख पर उड़ाकर उसको आत्म-विस्मृत कर देती है।
आपातकाल में परिवार और समाज के प्रतिदायित्व
किन्तु 'आपत्काले मर्यादा नास्ति।' परिवार, समाज, संस्कृति या राष्ट्र पर आपत्ति आ जाए, तो आपत्ति रूपी अग्नि में कूदना अनुचित नहीं। गुलामी के प्रतिकार के लिए गाँधी जी के आह्वान पर, आपत्काल में लोकनायक जयप्रकाश के आह्वान पर छात्रों का राजनीति में कूदना, अपने समर्पण से भारत माता का भाल उन्नत करना, प्रथम दायित्व था। असमी संस्कृति पर संकट आने पर असम के छात्र-छात्राओं का राजनीति में कूदना मातृभूमि के प्रति अपरिहार्य दायित्व था।
विद्या का अर्जन विद्यार्थी का प्रथम और महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। अध्ययन, मनन और चिन्तन इस दायित्व पूर्ति की सीढ़ियाँ हैं। मन की एकाग्रता, एकांतता और एकनिष्ठता लक्ष्य-पूर्ति के साधन हैं।