टेलीफोन की आत्मकथा पर निबंध | Telephone ki aatmkatha Essay in Hindi

Telephone ki Atmakatha Essay in Hindi: हिन्दी विषय की विभिन्न परीक्षाओं में टेलीफ़ोन की आत्मकथा (Autobiography of Telephpone in Hindi) पर निबंध पूछा जाता है। यहां पर नीचे महत्वपूर्ण बिन्दुओं के साथ निबंध को पढ़कर आप आसनी से एक अच्छा निबंध लिख सकते हैं। 

Telephone ki Atmakatha Essay in Hindi

टेलीफोन की आत्मकथा पर निबंध

संकेत बिंदु- (1) बातचीत का माध्यम, (2) मेरे आविष्कार की कहानी, (3) मेरे अंदर के यंत्र, (4) मेरी कार्य-प्रणाली, (5) उपसंहार।

बातचीत का माध्यम

जी हाँ, मैं टेलीफोन हूँ। हिन्दी-प्रेमी मुझे 'दूरभाष' के नाम से पुकारते हैं। मुझे कौन नहीं जानता? मेरे माध्यम से तुम दूर-से-दूर बैठे व्यक्ति से इस तरह बात कर सकते हो मानो वह तुम्हारे सामने ही बैठा हो और मध्य में कोई पर्दा या दीवार हो। इस समय मेरे परिवार की सदस्य-संख्या इतनी अधिक है कि उनकी गिनती करना कोई आसान काम नहीं। मेरे इन सम्बन्धियों ने एक कमरे को दूसरे कमरे से, एक नगर को दूसरे नगर से और एक देश को दूसरे देश से इस तरह जोड़ दिया है कि उनके बीच की दूरी मनुष्य को महसूस नहीं होती।

मेरे आविष्कार की कहानी

मेरे जन्मदाता (आविष्कारक) का नाम अलेक्जेण्डर ग्राहम बेल है, लेकिन उससे पहले भी कई व्यक्तियों के मस्तिष्क में मेरी कल्पना हिलोरें मार रही थी। सबसे पहले मेरा मस्तक अपने पितामह हेमहोल्टज् के चरणों में श्रद्धा से नत होता है, जिन्होंने लहरों की वैज्ञानिक सच्चाई को दुनिया के सामने रखा। 

इस जर्मन वैज्ञानिक ने दो प्यालों के बीच एक तार रखकर दूर तक आवाज भेजने के कई परीक्षण किए। इस सम्बन्ध में उसने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'सेन्सेशन ऑफ टोन' भी लिखी। इसमें प्रतिपादित सिद्धान्त ही मेरे जन्मदाता ग्राहम बेल की प्रेरणा के स्रोत सिद्ध हुए। 

सन् 1821 में चार्ल्स व्हीटस्टोन ने भी अपने अद्भुत यन्त्रों द्वारा दूर-दूर तक आवाज पहुँचाने के अनेक परीक्षण किए। जर्मनी के एक अन्य वैज्ञानिक फिलिप रेज ने भी इस दिशा में कुछ प्रयत्न किए, लेकिन उसका यंत्र मानव ध्वनि को अधिक दूर ले जाने में सफल नहीं हो सका। 19वीं सदी के मध्य तक मैं केवल कल्पना की ही वस्तु बना रहा। अन्त में मार्च, 1876 में ग्राहम बेल इस कल्पना को साकार रूप देने में सफल हुए।

ग्राहम बेल ने अमेरिका के फिलाडेल्फिया नगर में लगने वाली एक प्रदर्शनी में मुझे जनता के सामने प्रदर्शित करने का फैसला किया। एक दिन ब्राजील के राजा तथा रानी प्रदर्शनी देखने आए। उन्होंने मेरा प्रयोग करके देखा और अनायास ही उनके मुंह से निकल पड़ा, ओह भगवान् ! यह तो बोलता है। 

महान् अंग्रेज वैज्ञानिक कैल्विन ने भी मुझे उस नुमाइश में देखा। अब लोग मुझमें रुचि लेने लगे थे। कुछ ही समय में मेरा तथा मेरे जन्मदाता का नाम सारी दुनिया में फैल गया। जगह-जगह टेलीफोन-तार फैलाने का काम शुरू हो गया और बहुत ही कम समय में मैं सारी दुनिया में एक लोकप्रिय वस्तु बन गया।

मार्च, 1976 में मैं अपने जीवन की शताब्दी पूरी कर चुका हूँ। ग्राहम बेल ने पहले-पहल जिस रूप में मुझे जन्म दिया था उसमें और मेरे आज के रूप में बहुत अन्तर आ गया है। पहले तो मैं बहुत लम्बा तथा भारी था। अब तो कान से सुनने और मुँह से बोलने के लिए एक ही आला (यन्त्र) होता है, जिसे अंग्रेजी में 'रिसीवर' कहते हैं।

मेरे अंदर के यंत्र

तुमने मेरा इतिहास तो जान लिया, लेकिन शायद अब यह जाने के लिए उत्सुक होगे कि मैं किस जादू के जोर पर तुम्हारी आवाज मीलों दूर बैठे तुम्हारे मित्र के पास ज्यों-की-त्यों पहुंचा देता हूँ।

जिसे तुम रिसीवर कहते हो उसके बोलने वाले हिस्से के अन्दर धातु की एक चपटी और पतली पतरी होती है, जिसे डिस्क या डायफ्राम कहते हैं। डायफ्राम के पीछे कार्बन के पतले तथा छोटे-छोटे टुकड़े पड़े रहते हैं। जैसे ही तुम बोलते हो, तुम्हारी आवाज से इसमें कम्पन पैदा होती है। यह कम्पन, जिसे तुम ध्वनि की तरंगें भी कह सकते हो, तारों के जरिए दूसरी ओर सुनने वाले के रिसीवर के कान वाले हिस्से में पहुंच जाता है। 

रिसीवर के हिस्से में बेलन के आकार का चुम्बक का एक टुकड़ा लगा होता है, जिसके आगे रेशम से ढके तारों से लिपटा हुआ नरम लोहे (Son Iron) का टुकड़ा लगा रहता है। इसका आखिरी छोर तारों से जुड़ा रहता है और इसके बिल्कुल सामने लोहे की एक लोचदार डिस्क होती है। 

जब बोलने वाले की आवाज का कम्पन रिसीवर के कान वाले भाग में जाता है और रेशम से लिपटे हुए तार से गुजरता हुआ सोफ्ट आयरन के टुकड़े में पहुँचता है तो उसमें चुम्बकीय प्रभाव पैदा हो जाता है। आवाज तेज होने पर यह प्रभाव अधिक होता है और धीमी होने पर कम।

अब लोहे का टुकड़ा अपने चुम्बकीय प्रभाव के कारण लोहे की लोचदार डिस्क को अपनी ओर खींचता है, जिससे एक कम्पन पैदा होती है। यही कम्पन तुम्हें शब्दों के रूप में सुनाई देता है। क्यों, समझ में आया न यह जादू!

मेरी कार्य-प्रणाली

यह तो सामान्य रूप में मैंने तुम्हें अपनी कार्य-प्रणाली बता दी, लेकिन शायद तुम अधिक विस्तार से मेरी कार्य-प्रणाली जानना चाहोगे। तो सुनो, 

हर एक छोटे शहर में एक टेलीफोन एक्सचेंज (केन्द्र) होता है। इस एक्सचेंज का काम होता है कि जिस व्यक्ति से तुम बात करना चाहते हो उसका नम्बर मिला दे। जब तुम अपना टेलीफोन उठाते हो तो विद्युत् तरंगों द्वारा एक्सचेंज की घंटी बजने लगती है और आपरेटर (जो व्यक्ति एक्सचेंज में तुम्हारे नम्बर मिलाने के लिए बैठा रहता है) तुरन्त तुम्हारी बात सुनने के लिए रिसीवर उठा लेता है और तुम्हारे मांगे गए नम्बर को प्लग द्वारा तुम्हारे नम्बर से मिला देता है। 

अब ऊपर बताए गए सिद्धान्त के अनुसार तुम अपने मित्र से बात कर लेते हो। यह रही स्थानीय लोगों से टेलीफोन मिलाने की बात, लेकिन अगर तुम किसी दूसरे नगर में बैठे हुए मित्र से टेलीफोन मिलाओ तो उसके लिए तुम्हारे नगर का आपरेटर तुम्हारे मित्र का नम्बर मिला देता है। एक एक्सचेंज से दूसरे एक्सचेंज को तारों द्वारा जोड़ा जाता है। अब टेलीफोन के तार जमीन के अन्दर बिछाए जाने लगे हैं। जमीन के अन्दर बिछाये जाने वाले इन तारों को 'केबिल' कहते हैं। .

अब मेरी कार्य-प्रणाली में पहले से काफी सुधार हो गया है। उदाहरण के लिए, बड़े-बड़े शहरों में अब एक्सचेंज से नम्बर माँगने की जरूरत नहीं है। अब यह कार्य मेरे नये मॉडल में लगे 'डायल' नामक अंग की सहायता से स्वतः ही हो जाता है। दूसरे शहरों के नम्बर भी डायल की सहायता से ही मिलाने का कार्य तेजी से फैलाया जा रहा है।

उपसंहार

इतना ही नहीं, अब तो सेल्युलर सेवा रूप में मेरा विकास हो चुका है। इसके माध्यम से किसी भी व्यक्ति से चाहे वह कार में घूम रहा हो, किसी सभा में बैठा हो या मनोरंजन में संलग्न हो, जहाँ से दूरभाष बहुत दूर है, तब भी वह सेल्युलर फोन से सम्पर्क कर सकता है। अर्थात् सेल्युलर फोन द्वारा किसी भी व्यक्ति से कहीं भी सम्पर्क किया जा सकता है। इसे 'एअर टेल' (Air Tel) प्रणाली कहते हैं।

उपग्रह द्वारा मोबाइल टेलीफोन रूप में विकास ने तो मेरी काया ही पलट दी है। इस सेवा का नाम है जी.एम.पी.सी.एस.' (G.M.P.C.S.) यह सेटेलाइन फ्रीक्वेंसी पर काम करती है। इसके जरिए ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में भी बात कि जा सकती है जो संचार सम्पर्क की दुनिया से सर्वथा अछूते हो। है न यह आश्चर्य की बात। ।

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