विदुर नीति (पाँचवाँ अध्याय) | Fifth Chapter of Vidur Niti in Hindi
Fifth Chapter of Vidur Niti in Hindi : सम्पूर्ण विदुर नीति का यह पाँचवाँ अध्याय है, इसमें सभी श्लोक के अर्थ हिन्दी में दिये गए हैं। जिससे आप विदुर नीति को हिन्दी में आसानी से समझ सकते हैं।
विदुर नीति का पाँचवाँ अध्याय
विदुर उवाच ।
सप्तदशेमान्राजेन्द्र मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ।
वैचित्रवीर्य
पुरुषानाकाशं मुष्टिभिर्घ्नतः ॥ १ ॥
तानेविन्द्रस्य हि धनुरनाम्यं नमतोऽब्रवीत् ।
अथो मरीचिनः
पादाननाम्यान्नमतस्तथा ॥ २ ॥
यश्चाशिष्यं शासति यश् च कुप्यते यश्चातिवेलं भजते द्विषन्तम् ।
स्त्रियश्च
योऽरक्षति भद्रमस्तु ते यश्चायाच्यं याचति यश् च कत्थते ॥ ३ ॥
यश्चाभिजातः प्रकरोत्यकार्यं यश्चाबलो बलिना नित्यवैरी ।
अश्रद्दधानाय च यो
ब्रवीति यश्चाकाम्यं कामयते नरेन्द्र ॥ ४ ॥
वध्वा हासं श्वशुरो यश् च मन्यते वध्वा वसन्नुत यो मानकामः ।
परक्षेत्रे
निर्वपति यश्च बीजं स्त्रियं च यः परिवदतेऽतिवेलम् ॥ ५ ॥
यश्चैव लब्ध्वा न स्मरामीत्युवाच दत्त्वा च यः कत्थति याच्यमानः ।
यश्चासतः
सान्त्वमुपासतीह एतेऽनुयान्त्यनिलं पाशहस्ताः ॥ ६ ॥
विदूर कहते हैं- रजेन्द्र ! विचित्रवीर्यनन्दन ! स्वायन्भुव मनुजी ने कहा है वि नीचे लिखे सत्रह प्रकार के पुरुषों को पाश हाथम लिय यमराज के दूत नरक में ले जाते हैं-जो आकाश पर मुि मुष्टि प्रहर करता है, न झुकाये जा सकने वाले वर्षा कालीन इन्द्र थनुष को झुकाना चाहता है, पकड़ मे न आने वाली सर्य को किरणो को पकड़ने का प्रयास करता है, शासन के अयाग्य पुरूष पर शासन करता है, मयादा का उल्लंघन करके रून्तुष्ट होता है, शत्रु की सवा करता है, रक्षण के अयोग्य स्त्री की रक्षा करने का प्रयत्न करता तथा उसके द्वारा अपने कल्याण का अनुभव करता है, याचना करने के अयोग्य पुरुष से याचना करता है तथा आत्मप्रशंसा करता है, अच्छे कुल में उत्पन्न होकर भी नीच कर्म करता है, दुर्बल होकर भी बलवान से वैर बाँधता है, श्रद्धाहीन को उपदेश करता है, न चाहने योग्य (शास्त्रनिषिद्ध) वस्तु को चाहता है, श्वशुर होकर पुत्रवधू के साथ परिहास पसन्द करता है तथा पुत्रवधु से एकान्तवास करके भी निर्भय होकर समाज में अपनी प्रतिष्ठा चाहता है, पर स्त्री में अपने वीर्य का आधान करता है, आवश्यकता से अधिक स्त्री की निन्दा करता है, किसी से कोई बस्तु पाकर भी याद नहीं है', ऐसा कहकर उसे दबाना चाहता है, माँगने पर दान देकर उसके लिये अपनी डींग हाँकता है और झुठ को सही साबित करने का प्रयास करता है । १-६॥
यस्मिन्यथा वर्तते यो मनुष्यस् तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः ।
मायाचारो
मायया वर्तितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युदेयः ॥ ७ ॥
जो मनुष्य अपने साथ जैसा बर्ताव करे उसके साथ वैसा ही वर्ताव करना चाहिये-यही नीति-धर्म है। कपट का आचरण करने वाले के साथ कपट पूर्ण बर्ताव करे और अच्छा बतर्ताव करने वाले के साथ. साधु-भाव से ही बर्ताव करना चाहिये ।॥ ७ ॥
जरा रूपं हरति धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान् धर्मचर्यामसूया ।
कामो हियं
वृत्तमना्यसेवा क्रोधः श्रियं सर्वमेवाभिमानः ॥ ८ ॥
बुढापा रूप का आशा धैर्य का, मृत्यु प्राणों का, असूया धर्माचरण का, काम लज्जा का, नीच पुरुषों की सेवा सदाचार का, क्रोध लक्ष्मी का और अभिमान सर्वस्व का ही नाश कर देता है ॥ ८॥
धृतराष्ट्र उवाच।
शतायुरुक्तः पुरुषः सर्ववेदेषु वै यदा ।
नाप्नोत्यथ च
तत्सर्वमायुः केनेह हेतुना ॥ ९ ॥
धृतराष्ट्र ने कहा-जब सभी वेदो में पुरुष को सो वर्ष की आयु वाला बताया गया है, तो वह किस कारण से अपनी पूर्ण आयु को नहीं पाता ? ॥ ९ ।
विदुर उवाच ।
अतिवादोऽतिमानश्च तथात्यागो नराधिपः ।
क्रोधश्चातिविवित्सा
च मित्रद्रोहश्च तानि षट् ॥ १० ॥
एत एवासयस्तीक्ष्णाः कृन्तन्त्यायूंषि देहिनाम् ।
एतानि मानवान्घ्नन्ति न
मृत्युर्भद्रमस्तु ते ॥ ११ ॥
विदुरजी बोले-राजन् ! आपका कल्याण हो। अल्यन्त अभिमान, अधिक बोलना, त्याग का अभाव, क्रोध, अपना ही पेट पालने की चिन्ता और मित्र द्रोह-ये छः तीखो तलवारें देहधारियों की आयु को काटती हैं। ये ही मनुष्यों का वध करती हैं, मत्यु नहीं ॥। १०-११ ।।
विश्वस्तस्यैति यो दारान्यश्चापि गुरु तक्पगः ।
वृषली पतिर्द्विजो यश्च
पानपश्चैव भारत ॥ १२ ॥
शरणागतहा चैव सर्वे ब्रह्महणैः समाः ।
एतैः समेत्य कर्तव्यं
प्रायश्चित्तमिति श्रुतिः ॥ १३ ॥
भारत ! जो अपने ऊपर विश्वास करने वाले की स्त्री के साथ समागम करता है, जो गुरु स्त्री गामी है, ब्राह्मण होकर शुद्र की स्त्री से सम्बन्ध रखता है, शराब पीता है तथा जो बड़ों पर हुकुम चलाने वाला दूसरों की जीविका नष्टः करने वाला, वाह्यणों को सेवा कार्य के लिये इधर-उधर भेजने वाला और शरणागत की हिसा करने वाला है ये सब के सब ब्रह्म हत्यारे के समान है, इनका सङ्ग ही जाने पर प्रायश्चित करे---यह वेदों की आज्ञा है । १२-१३ ॥
गृही वदान्योऽनपविद्ध वाक्यः शेषान्न भोकाप्यविहिंसकश् च ।
नानर्थकृत्त्यक्तकलिः
कृतज्ञः सत्यो मृदुः स्वर्गमुपैति विद्वान् ॥ १४ ॥
बड़ो की आज्ञा मानने वाला नीतिज्ञ, दाता यज्ञ शेष अन्र का भोजन करने वाला, हिंसा रहित, अनर्थकारी कार्यो से दूर रहने वाला, कृतज्ञ, सत्यवादी और कोमल स्वभाव वाला विद्वान् स्वर्ग-गामी होता है । १४ ।।
सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च
दुर्लभः ॥ १५ ॥
राजन् ! सदा प्रिय वचन बोलने वाले मनुष्य तो सहज में ही मिल सकते हैं, किंतु जो अप्रिय होता हुआ हितकारी हो, ऐसे वचन के वक्ता और श्रोता दोनों ही दुर्लभ हैं।। १५ ॥
यो हि धर्मं व्यपाश्रित्य हित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये ।
अप्रियाण्याह
पथ्यानि तेन राजा सहायवान् ॥ १६ ॥
जो धर्म का आश्रय लेकर तथा स्वामी को प्रिय लगेगा या अप्रिय-इसका विचार छोड़कर अप्रिय होने पर भी हित की बात कहता है; उसी से राजा को सच्ची सहायता मिलती है।। १६ ॥
त्यजेत्कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे
आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ १७ ॥
कुल की रक्षा के लिये एक मनुष्य का, ग्राम की रक्षाके लिये कुल का, देश की रक्षा के लिये गाँव का और आत्मा के कल्याण के लिये सारी पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिये । १७ ।
आपदर्थं धनं रक्षेद्दारान्रक्षेद्धनैरपि ।
आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि
धनैरपि ॥ १८ ॥
आपति के लिये धन की रक्षा करे, धन के द्वारा भी स्त्री की रक्षा करे और स्त्री एवं धन दोनों के द्वारा सदा अपनी रक्षा करे ॥ १८ ॥
द्यूतमेतत् पुराकल्पे दूष्टं वैरकरं नृणाम् ।
तस्माद् द्यूतं न सेवेत
हास्यार्थमपि बुद्धिमान् ॥ १९ ॥
पहले के समय में जुआ खेलना मनुष्यों में वैर डालने का कारण देखा गया हैं, अतः बुद्धिमान् मनुष्य हँसी के लिये भी जूआ न खेले।। १९ ॥
उक्तं मया द्यूतकालेऽपि राजन् नैवं युक्तं वचनं प्रातिपीय ।
तदौषधं
पथ्यमिवातुरस्य न रोचते तव वैचित्र वीर्य ॥ २० ॥
प्रतीपनन्दनं ! विचित्र वीर्य कुमार ! राजन् ! मेंने जूए का खेल आरम्भ होते समय भी कहा था कि यह ठीक नहीं है, किन्तु रोगी को जैसे दवा और पथ्य नहीं भाते, उसी तरह मेरी वह बात भी आपको अच्छी नहीं लगी ।। २० ।।
काकैरिमांश्चित्रबर्हान्मयूरान् पराजैष्ठाः पाण्डवान्धार्तराष्ट्रैः ।
हित्वा
सिंहान्क्रोष्टु कान्गूहमानः प्राप्ते काले शोचिता त्वं नरेन्द्र ॥ २१ ॥
नरेन्द्र ! आप कौओं के समान अपने पुत्र के ह्वारा विचित्र पंख वाले मोरों के सदश पाण्डवों को पराजित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, सिंहो को छोडकर सियारों की रक्षा कर रहे हैं; समय आने पर आप को इसके लिये पश्चाताप करना पड़ेगा।। २१ ।
यस्तात न क्रुध्यति सर्वकालं भृत्यस्य भक्तस्य हिते रतस्य।
तस्मिन्भृत्या
भर्तरि विश्वसन्ति न चैनमापत्सु परित्यजन्ति ॥ २२ ॥
तात . जो स्वामि सदा हितसाधनम लगे रहने वाले अपने भक्त सेवक पर कभी क्रोध नहीं करता, उस पर भूत्यगण विश्वास करते हैं और उसे आपत्ति के समय भी नहीं छोड़ते॥ २२ ॥
न भृत्यानां वृत्ति संरोधनेन बाह्यं जनं सञ्जिघृक्षेदपूर्वम् ।
त्यजन्ति
ह्येनमुचितावरुद्धाः स्निग्धा ह्यमात्याः परिहीनभोगाः ॥ २३ ॥
सेवकों की जीविका बन्द करके दूसरों के राज्य और धन के अपहरण का प्रयत्न नहीं करना चाहिये, क्योंकि अपनी जीविका छिन जाने से भोगों से वंचित होकर पहले के प्रेमी मन्त्री भी उस समय विरोधी बन जाते हैं और राजा का परित्याग कर देते हैं । २३ ॥
कृत्यानि पूर्वं परिसङ्ख्याय सर्वाण्य् आयव्ययावनुरूपां च वृत्तिम् ।
सङ्गृह्णीयादनुरूपान्सहायान्
सहायसाध्यानि हि दुष्कराणि ॥ २४ ॥
पहले कर्तव्य, आय-व्यय और उचित वेतन आदि का निश्चय करके फिर सुर्योग्य सहायका का संग्रह करे; क्यांकि कठिन से कठिन कार्य भी सहायको द्वारा साध्य होते हैं।। २४ ॥
अभिप्रायं यो विदित्वा तु भर्तुः सर्वाणि कार्याणि करोत्यतन्द्रीः ।
वक्ता
हितानामनुरक्त आर्यः शक्तिज्ञ आत्मेव हि सोऽनुकम्प्यः ॥ २५ ॥
जो सेवक स्वामी के अभिप्राय को समझकर आलस्थरहित हो समस्त कार्य का पूरा करता है, जो हितको बात कहने वाला, स्वामिभत्त, सज्जन और राजा की शक्ति की जानने वाला है, उसे अपने समान समझकर कृपा करना चाहिये ॥ २५ ॥
वाक्यं तु यो नाद्रियतेऽनुशिष्टः प्रत्याह यश्चापि नियुज्यमानः ।
प्रज्ञाभिमानी
प्रतिकूलवादी त्याज्यः स तादृक्त्वरयैव भृत्यः ॥ २६ ॥
जो सेवक स्वामी के आज्ञा देने पर उनकी बात का आदर नहीं करता, किसी काम में लगाये जाने पर इनकार कर जाता है, अपनी बुद्धि पर गर्व करने और प्रतिकूल बोलने वाले उस भूत्य को शीघ्र ही त्याग देना चाहिये ।| २६ ॥
अस्तब्धमक्लीबमदीर्घसूत्रं सानुक्रोशं श्लक्ष्णमहार्यमन्यैः।
अरोग
जातीयमुदारवाक्यं दूतं वदन्त्यष्ट गुणोपपन्नम् ॥ २७ ॥
अहंकाररहित, कायरता शून्य, शीष्र काम पूरा करनेवाला, दयालु, शुद्धहदय, दूसरा के बहकावे में न आनेवाला, नीरीग और उदार बचनवाला- इन आठ मुणों से युक्त मनुष्य को दूत बनाने योग्य बताया गया हैं॥ २७ ॥
न विश्वासाज्जातु परस्य गेहं गच्छेन्नरश्चेतयानो विकाले ।
न चत्वरे निशि
तिष्ठेन्निगूढो न राजन्यां योषितं प्रार्थयीत ॥ २८ ॥
सावधान मनुष्य विश्वास करके असमय में कभी किसी दुसरे अविश्वस्त मनुष्य के घर न जाय, रात मे छिपकर चौराहे पर न खड़ा हो आर राजा जिस स्त्री को ग्रहण करना चाहता हो, उसे प्राप्त करने का यल्न न करें ॥ २८ ॥
न निह्नवं सत्र गतस्य गच्छेत् संसृष्ट मन्त्रस्य कुसङ्गतस्य ।
न च
ब्रूयान्नाश्वसामि त्वयीति स कारणं व्यपदेशं तु कुर्यात् ॥ २९ ॥
दुष्ट सहायको वाला राजा जब बहुत लोगों के साथ मन्त्रणा समिति में बैठकर सलाह ले रहा हो, उस समय उसकी बात का खण्डन न करे; मैं तुम पर विश्वास नहीं करता ऐसा भी न कहे, अपितु कोई युक्तिसङ्गत बहाना बनाकर वहाँ से हट जाय ॥ २९ ॥
घृणी राजा पुंश्चली राजभृत्यः पुत्रो भ्राता विधवा बाल पुत्रा ।
सेना जीवी
चोद्धृत भक्त एव व्यवहारे वै वर्जनीयाः स्युरेते ॥ ३० ॥
अधिक दयालु राजा, व्यभिचारिणी स्त्री, राजकर्मचारी, पुत्र, भाई, छोटें बच्चों बाली विधवा., सैनिक और जिसका अधिकार छीन लिया गया हो, वह इन सबके साथ लेन-देन का व्यवहार न करे । । ३० ॥
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपर्यन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च श्रुतं दमश्च ।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥ ३१ ॥
ये आठ गुण परुष की शोभा बढ़ाते हैं- बुद्धि लीनता शास्त्र ज्ञान, इन्द्रिय निम्रह, पराक्रम, अधिक न बोलने का स्वभाव, यथाशक्ति दान और कतज्ञता ।। ३१ ।।
एतान् गुणांस्तात महानुभावा-नेको गुण: संश्रयते प्रसह्य ।
यदा सत्कुरुते
मनुष्यं सर्वान् गुणानेष गुणो बिभर्ति ॥ ३२ ॥
तात ! एक गुण एसा है, जो इन सभा नहत्त्वपूर्ण गुण पर हठात् आधिकार कर लेता है। राजा जिस समय किसी मनुष्य का सत्कार करता है, उस समय यह गुण (राज सम्मान) उपर्युक्त सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है॥ ३२ ॥
गुणा दश स्नानशीलं भजन्ते बलं रूपं स्वरवर्णप्रशुद्धिः ।
स्पर्शश्च गन्धश्च
विशुद्धता च श्रीः सौकुमार्यं प्रवराश्च नार्यः ॥ ३३ ॥
नित्य स्नान करने वाले मनुष्य को बल, रूप, मधुर स्वर, उज्ज्वल वर्ण, कोमलता, सुगंन्ध, पवित्रता, शोभा, सुकुमारता और सुन्दरी स्त्रियाँ- ये दस लाभ प्राप्त होते हैं ३३ ॥
गुणाश्च षण्मितभुक्तं भजन्ते आरोग्यमायुश्च सुखं बलं च ।
अनाविलं चास्य
भवेदपत्यं न चैनमाद्यून इति क्षिपन्ति ॥ ३४ ॥
थोड़ा भोजन करने वाले को निम्नड्कित छः गुण प्राप्त होते हैं- आरोग्य, आयु, बल और सुख तो मिलते ही हैं, उसकी संतान सुन्दर होती है तथा यह बहुत खाने वाला है ऐसा कहकर लोग उसपर आक्षेप नहीं करते ॥ ३४ ॥
अकर्म शीलं च महाशनं च लोकद्विष्टं बहु मायं नृशंसम् ।
अदेशकालज्ञमनिष्ट
वेषम् एतान्गृहे न प्रतिवासयीत ॥ ३५ ॥
अकर्मण्य, बहुत खाने वाले, सब लोगो से वेर करने वाले अधिक मायावी, क्रूर, देश-काल का ज्ञान न रखने वाले और निन्दित वेष धारण करने वाले मनुष्य को कभी अपने घर में न ठहरने दे। ३५ ॥
कदर्यमाक्रोशकमश्रुतं च वराक सम्भूतममान्य मानिनम् ।
निष्ठूरिणं कृतवैरं
कृतघ्नम् एतान्भृतार्तोऽपि न जातु याचेत् ॥ ३६ ॥
बहुत दुःखी होने पर भी कृपण, गाली बकने वाले, मूर्ख, जंगल में रहने वाले, धूर्त, नीच सेवी, निर्दयी, वैर बाँधने वाले और कृतन्न से कभी सहायता की याचना नहीं करनी चाहिये ॥ ३६ ॥
सङ्क्लिष्टकर्माणमतिप्रवादं नित्यानृतं चादृढ भक्तिकं च ।
विकृष्टरागं
बहुमानिनं चाप्य् एतान्न सेवेत नराधमान्षट् ॥ ३७ ॥
क्लेशप्रद कर्म करने वाला, अत्यन्त प्रमादी, सदा असत्यभाषण करने वाला, अस्थिर भक्ति वाला स्नेह से रहित अपने को चतुर मानने वाला- इन छः प्रकार के अधम पुरुषों की सेवा न करे ॥ ३७ ॥
सहायबन्धना ह्यर्थाः सहायाश्चार्थबन्धनाः ।
अन्योन्यबन्धनावेतौ विनान्योन्यं
न सिध्यतः ॥ ३८ ॥
धन की प्राप्ति सहायक की अपेक्षा रखती है और सहायक धन की अपेक्षा रखते हैं। से दोनों एक-दूसरे के आश्रित हैं, परस्पर के सहयोग बिना इनकी सिद्धि नहीं होती । ३८॥
उत्पाद्य पुत्राननृणांश्च कृत्वा वृत्तिं च तेभ्योऽनुविधाय कां चित् ।
स्थाने
कुमारीः प्रतिपाद्य सर्वा अरण्यसंस्थो मुनिवद्बुभूषेत् ॥ ३९ ॥
पुत्रो को उत्पन्न कर उन्हें ऋण के भार से मुक्त करके उनके लिये किसी जीविका का प्रबून्ध कर दे, फिर कन्याओ का योग्य वरके साथ विवाह कर देने के पश्चात् बन मे मुनिवृत्ति से रहने की इच्छा करे।। ३९ ॥
हितं यत्सर्वभूतानामात्मनश्च सुखावहम् ।
तत्कुर्यादीश्वरो ह्येतन्मूलं
धर्मार्थसिद्धये ॥ ४० ॥
जो सम्पूर्ण प्रापियों के लिये हितकर और अपने लिये भी सुखद हो, उसे ईश्वरार्पणबुद्धि से करे, सम्पूर्ण सिद्धियों का यही मूल मन्त्र है॥ ४० ॥
बुद्धिः प्रभावस्तेजश्च सत्त्वमुत्थानमेव च ।
व्यवसायश्च यस्य
स्यात्तस्यावृत्ति भयं कुतः ॥ ४१ ॥
जिसमें बढ़ने की হक्ति, प्रभाव, तेज, पराक्रम, उद्योग और निश्चय है,उसे अपनी जीविका के नाश का भय कैसे हो सकता
पश्य दोषान्पाण्डवैर्विग्रहे त्वं यत्र व्यथेरन्नपि देवाः स शक्राः ।
पुत्रैर्वैरं
नित्यमुद्विग्नवासो यशः प्रणाशो द्विषतां च हर्षः ॥ ४२ ॥
पाण्डवं के साथ युद्ध करने में जो दोष हैं, उन पर दृष्टि डालिये, उनसे संग्राम छिड़ जाने पर इन्द्र आदि देवताओं को भी कष्ट ही उठाना पड़ेगा। इसके सिवा पुत्रो के साथ वैर, निल्प उद्वेगपूर्ण जीवन, कीर्ति का नाহা और शत्रुओ को आनन्द होगा ॥ ४२ ॥
भीष्मस्य कोपस्तव चेन्द्र कल्प द्रोणस्य राज्ञश्च युधिष्ठिरस्य ।
उत्सादयेल्लोकमिमं
प्रवृद्धः श्वेतो ग्रहस्तिर्यगिवापतन्खे ॥ ४३ ॥
इन्द्र के समान पराक्रमी महाराज ! अआकाश मे तिरछा उदित हुआ धूमकेतु जैसे सारे संसार में अशान्ति और उपद्रव खड़ी कर देता है, उसी तरह भग्म, आप द्रोणाचार्य और राजा युधिष्टिर का बढ़ा हुआ कोप इस संसार का संहार कर सकता है ॥ ४३ ॥
तव पुत्रशतं चैव कर्णः पञ्च च पाण्डवाः ।
पृथिवीमनुशासेयुरखिलां
सागराम्बराम् ॥ ४४ ॥
आपके सौ पुत्र, कर्ण और पाँच पाण्डव - ये सब मिलकर समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कर सकते हैं ॥ ४४ ॥
धार्तराष्ट्रा वनं राजन्व्याघ्राः पाण्डुसुता मताः ।
मा वनं छिन्धि स
व्याघ्रं मा व्याघ्रान्नीनशो वनात् ॥ ४५ ॥
राजन् ! आपके पुत्र वन के समान हैं और पाण्डव उसमें रहने वाले व्याघ्र हैं। आप व्याघ्रों सहित समस्त वन को नष्ट न कीजिये तथा बन से उन व्याघ्रो को दूर न भगाइये ॥ ४५॥
न स्याद्वनमृते व्याघ्रान्व्याघ्रा न स्युरृते वनम् ।
वनं हि रक्ष्यते
व्याघ्रैर्व्याघ्रान्रक्षति काननम् ॥ ४६ ॥
व्याघ्रों के बिना वन की रक्षा नहीं हो सकती तथा वन के बिना व्याघ्र नहीं रह सकते; क्योंकि व्याघ्र वन की रक्षा करते हैं और वन व्याघों की ।। ४६ ।।
न तथेच्छन्त्यकल्याणाः परेषां वेदितुं गुणान् ।
यथैषां ज्ञातुमिच्छन्ति
नैर्गुण्यं पापचेतसः ॥ ४७ ॥
जिनका मन पाप में लगा रहता है, वे लोग दूसरी के कल्याणमय गुण को जानने की वेसी इच्छा नहीं रखते, जैसी कि उनके अवगुणों को जानने की रखते हैं ॥ ४७ ॥
अर्थसिद्धिं परामिच्छन्धर्ममेवादितश् चरेत् ।
न हि धर्मादपैत्यर्थः
स्वर्गलोकादिवामृतम् ॥ ४८ ॥
जो अर्थ का पूर्ण सिद्धि चाहता हो उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये । जैसे स्वर्ग से अमृतd दूर नही होता उसी प्रकार धर्म से अर्थ अलग नहीं होता |॥ ४८ ॥
यस्यात्मा विरतः पापात्कल्याणे च निवेशितः ।
तेन सर्वमिदं बुद्धं
प्रकृतिर्विकृतिर्श्च या ॥ ४९ ॥
जिसकी बुद्धि पाप से हटाकर कल्याण में लगा दी गयी है, उसने संसार में जो भी प्रकृति और विकृति हैं- उन सबको जान लिया है ॥ ४९ ।॥
यो धर्ममर्थं कामं च यथाकालं निषेवते ।
धर्मार्थकामसंयोगं योऽमुत्रेह च
विन्दति ॥ ५० ॥
जो समयानुसार धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है, वह इस लोक और परलोक में भी धर्म, अर्थ और काम को प्राप्त करता है ५० ॥
संनियच्छति यो वेगमुत्थितं क्रोधहर्षयोः ।
स श्रियो भाजनं राजन्यश्चापत्सु न
मुह्यति ॥ ५१ ॥
राजन् ! जो क्रोध और हर्षके उठे हुए वेग को रोक लेता है और आपत्ति में भी धैर्य को खो नहीं बैठता, बही राजलक्ष्मी का अधिकारी होता है ॥ ५१ ॥
बलं पञ्च विधं नित्यं पुरुषाणां निबोध मे ।
यत्तु बाहुबलं नाम कनिष्ठं
बलमुच्यते ॥ ५२ ॥।
अमात्यलाभो भद्रं ते द्वितीयं बलमुच्यते ।
धनलाभस्तृतीयं तु बलमाहुर्जिगीषवः
॥ ५३ ॥
यत्त्वस्य सहजं राजन्पितृपैतामहं बलम् ।
अभिजात बलं नाम तच्चतुर्थं बलं
स्मृतम् ॥ ५४ ॥
येन त्वेतानि सर्वाणि सङ्गृहीतानि भारत ।
यद्बलानां बलं श्रेष्ठं तत्प्रज्ञा
बलमुच्यते ॥ ५५ ॥
आपका कल्याण हो, ननुष्या में सदा पाँच प्रकार का बल होता है, उसे सुनिये । जो बहुबल नामक बल है, वह कनिष्ठ बल कहलाता है; म्न्त्री को मिलना दूसरा बल हैं; मनीषी लोग धन के लाभ को तीसरा बल बतात। है, और राजन् ! जो बाप दादो से प्राप्त हुआ ननुष्य का स्वाभाविक बल (कुटम्ब का बल) है, वह अभिजात नामक चौथा बल है। भारत! जिसमे इन सभी बलों का संगह हो जाता है ता जो सब बलों में श्रेष्ठ बल है, वह पाँचवा बुद्धि का बल' कहलाता है। ५२-५५॥
महते योऽपकाराय नरस्य प्रभवेन्नरः ।
तेन वैरं समासज्य दूरस्थोऽस्मीति
नाश्वसेत् ॥ ५६ ॥
जो मनुष्य का बहुत बड़ा अपकार कर सकता है, उस पुरुष के साथ बैर ठानकर इस विश्वास पर निश्चिन्त न हो जाय कि मैं उससे दूर हूँ (बह मेरा कुछ नहीं कर सकता) ।॥ ५६ ॥
स्त्रीषु राजसु सर्पेषु स्वाध्याये शत्रुसेविषु ।
भोगे चायुषि विश्वासं कः
प्राज्ञः कर्तुमर्हति ॥ ५७ ॥
ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो स्त्री, राजा, साँप, पढ़े हुए पाठ, सामर्थ्यशाली व्यक्ति, शत्रु भोग और आयुष्य पर पूर्ण विश्वास कर सकता
प्रज्ञा शरेणाभिहतस्य जन्तोश् चिकित्सकाः सन्ति न चौषधानि ।
न होममन्त्रा न
च मङ्गलानि नाथर्वणा नाप्यगदाः सुसिद्धाः ॥ ५८ ॥
जिस को बुद्धि के बाण से मारा गया है, उस जीव के लिये न कोई वैध्य है, न दवा है, न होम है, न मन्त्र है, न कोई माङ्गलिक कार्य, न अरथववेदोक्त प्रयोग और न भलीं-भाँति सिद्ध जड़ी-बूटी ही है । ५८ ॥
सर्पश्चाग्निश्च सिंहश्च कुलपुत्रश्च भारत ।
नावज्ञेया मनुष्येण सर्वे ते
ह्यतितेजसः ॥ ५९ ॥
भारत ! मनुष्य को चाहिये कि वह सर्प, अग्नि, सिंह और अपने कुल में उत्पत्र व्यक्तिव अनादर न करे, क्योंकि ये सभी बड़े तेजस्वी होते हैं।। ५९ ॥
अग्निस्तेजो महल्लोके गूढस्तिष्ठति दारुषु ।
न चोपयुङ्क्ते तद्दारु यावन्नो
दीप्यते परैः ॥ ६० ॥
संसार में अग्नि एक गहान् तेज हैं, बह काठ में छिपी रहती है; किन्तु जबतक दूरे लग उस प्र्चटत न कर दे, तवतक वह उस काठ को नहीं हे ।। ६० ।।
स एव खलु दारुभ्यो यदा निर्मथ्य दीप्यते ।
तदा तच्च वनं चान्यन्निर्दहत्याशु
तेजसा ॥ ६१ ॥
वही अग्नि यदि काष्ठ से मथकर उद्दीप्त कर दी जाती है, तो बह अपने तेज से उस काष्ठ को, जङ्गल को तथा दूसरी वस्तुओं को भी जल्दी ही जला डालती है। ६१ ॥
एवमेव कुले जाताः पावकोपम तेजसः ।
क्षमावन्तो निराकाराः काष्ठेऽग्निरिव
शेरते ॥ ६२ ॥
इसी प्रकार अपने कुल में उत्पन्न वे अग्रि के समान तेजस्वी पाण्डव और विकार शून्य हो काष्ठ में छिपी अग्रि की तरह शान्त भाव स्थित हैं॥ ६२ ॥
लता धर्मा त्वं सपुत्रः शालाः पाण्डुसुता मताः ।
न लता वर्धते जातु
महाद्रुममनाश्रिता ॥ ६३ ॥
अपने पुत्रो सहित आप लताके समान है और पाण्डव महान् शालबूक्ष सदृश हैं, महान् वृक्षका आश्रय लिये बिना लता कभी बढ़ नः सकती ॥ ६३ ॥
वनं राजंस्त्वं सपुत्रोऽम्बिकेय सिंहान्वने पाण्डवांस्तात विद्धि ।
सिंहैर्विहीनं
हि वनं विनश्येत् सिंहा विनश्येयुरृते वनेन ॥ ६४ ॥
राजन् ! अम्बिकानन्दन ! आपके पुत्र एक वन हैं और पाण्डवों को उस भीतर रहने वाले सिंह समझिये। तात ! सिंह से सुना हो जाने पर वन नष्ट हो जाता है और वन के बिना सिंह भी नष्ट हो जाते हैं॥ ६४ ॥
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरवाक्ये सप्तत्रिंशोऽध्यायः । ३७ ।॥