प्रश्न-पत्र की आत्मकथा पर निबंध | Essay on Autobiography of Question Paper in Hindi
Prashn patra ki aatmkatha par nibandh: हिन्दी विषय की विभिन्न परीक्षाओं में निबंध लेखन में प्रश्न पत्र की आत्मकथा पर निबंध पूछा जाता है। निम्नलिखित निबंध के द्वारा इस विषय पर अच्छा लेख (अनुच्छेद) लिख सकते हैं।
प्रश्न-पत्र की आत्मकथा पर निबंध
संकेत बिंदु-(1) परीक्षार्थी की योग्यता की कसौटी (2) परीक्षा के लिए खाका तैयार (3) सावधानी और गोपनीयता (4) मेरे प्रति छात्रों की प्रतिक्रिया (5) मेरा सम्मान और अपमान।
परीक्षार्थी की योग्यता की कसौटी
परीक्षा और प्रश्नपत्र परीक्षार्थी की योग्यता की कसौटी हैं। प्रश्नपत्र को सही हल करने वाला व्यक्ति सफल माना जाता है और प्रश्नपत्र को हल न कर सकने वाला अयोग्य अथवा असफल घोषित कर दिया जाता है। वास्तव में अनेक बार तो यह भी देखा जाता है कि एक साधारण योग्यता का व्यक्ति अपने अनुकूल प्रश्न पूछे जाने के कारण प्रश्नपत्र को पूरी तरह हल कर लेता है और एक अत्यन्त योग्य व्यक्ति उसी प्रश्नपत्र को हल नहीं कर पाता या आंशिक रूप से हल कर पाता है।
यही कारण है कि परीक्षा और प्रश्नपत्र का सामना करते हुए सब परीक्षार्थी घबराते हैं। अपनी घबराहट को दूर करने तथा अपने अन्दर आत्मविश्वास का भाव पैदा.करने के लिए प्रायः परीक्षार्थी-चाहे वे स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी हों और चाहे किसी प्रतियोगितात्मक परीक्षा में सम्मिलित होने वाले, परीक्षा से पहले पिछले वर्षों के प्रश्न-पत्र अवश्य देखते हैं।
परीक्षा की तैयारी में लगे हुए परीक्षार्थी पिछले वर्षों के प्रश्न-पत्र देख रहे थे। उन्हें एक प्रश्न बहुत कठिन मालूम हुआ।वे उसकी आलोचना करने लगे और गालियाँ देने लगे। एक परीक्षार्थी ने प्रश्न-पत्र को उठाकर फेंक दिया। कुछ परीक्षार्थी फिर पढ़ने में लग गए। तभी उस दिशा से, जिधर प्रश्न-पत्र फेंका गया था, आवाज सुनाई देने लगी। परीक्षार्थी ने देखा, मालूम हुआ जैसे प्रश्न-पत्र कुछ कह रहा है। वे ध्यान से सुनने लगे। प्रश्न-पत्र कह रहा था
प्यारे परीक्षार्थियो ! कितना आश्चर्य है कि कठिन होने के कारण तुम मुझे गालियाँ दे रहे हो। जरा सोचो, इसमें मेरा क्या दोष है ? मैं तो वही हूँ जो परीक्षक ने बना दिया था। तब तुम मेरे बजाय परीक्षक को क्यों नहीं कोसते ? शायद तुम मेरी कहानी सुनकर आगे इस बात का ध्यान रख सको। इसलिए मैं तुम्हें अपनी आत्म-कथा सुनाता हूँ।
परीक्षा के लिए खाका तैयार
मुझे डी.ए.वी कॉलेज देहरादून के प्रोफेसर गणेश शर्मा शास्त्री ने बनाया था। उन्होंने पहले मेरा एक खाका-सा बनाया। एक कागज पर बीसियों प्रश्न लिखे। फिर उनमें अनेक बार संशोधन किए। सचमुच मैं भी उस समय परीक्षक के लिए सिर दर्द बना हुआ था। अन्त में मेरी रूपरेखा तैयार हो गई और मुझे एक साफ कागज पर सुन्दरता के साथ लिखा गया।
तब मुझे रजिस्टर्ड-डाक से यूनिवर्सिटी में भेजा गया और वहाँ से में प्रेस में पहुंचा। वहाँ मेरे अन्य साथी भी विद्यमान थे। हमें पाकर प्रेस के कर्मचारी बहुत गर्व का अनुभव कर रहे थे। वे सोचते थे कि यदि वे हमारे प्रश्नों को बाहर बता दें अर्थात् ऑउट कर दें तो हजारों विद्यार्थियों की किस्मत बदल सकती है और वे भी बहुत-सा धन पा सकते हैं, 'किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, कारण वे इसे पाप समझते थे।
सावधानी और गोपनीयता
प्रेस में मुझे अन्य साथियों सहित बड़ी सावधानी एवं गोपनीयता के साथ रखा गया। यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है कि परीक्षा के दिन से पहले तक मुझे सर्वथा गुप्त रखा जाता है। मेरे सम्बन्ध में पूरी जानकारी मेरा निर्माण करने वाले परीक्षक के अतिरिक्त और किसी को नहीं होती।
जिस प्रेस में हमें छापा जाता है, उसके कर्मचारियों को इस बात के लिए वचनबद्ध किया जाता है कि वे मेरे बारे में कोई बात बाहर नहीं निकलने देंगे। प्रेस में मैंने एक और बात अनुभव की और वह यह कि मुझे मुद्रित रूप देते हुए भी बहुत सावधानी बरती गई। दो व्यक्तियों ने मेरी प्रूफ की त्रुटियाँ दूर की ये दोनों यही कहते थे कि प्रश्नपत्र में कोई अशुद्धि नहीं रहनी चाहिए, क्योंकि प्रश्नपत्र की एक अशुद्धि सहस्रों परीक्षार्थियों का अहित कर सकती है।
अब मैं छपकर तैयार हो गया था। मेरे साथ मेरे ही जैसे हजारों साथी और भी तैयार किये गये। हमें बण्डलों में बाँधकर फिर यूनिवर्सिटी भेज दिया गया, जहाँ से हम समय पर परीक्षा-केन्द्रों में पहुंचाए गये। यहाँ बन्द बण्डल में पड़े-पड़े मेरा दम घुट रहा था। एक दिन हमारे बण्डल खुलने की बारी आई और मेरी खुशी का ठिकाना न रहा।
जब परीक्षा भवन के व्यवस्थापक ने निरीक्षकों के सामने हमारा बण्डल खोला तो बहुत दिनों के बाद मुझे खुली हवा में साँस लेने का अवसर मिला। मैंने इसके लिए भगवान् को धन्यवाद दिया। अब हमें विद्यार्थियों में बाँटा जाने लगा। आपस में बिछुड़ने का हमें बड़ा दुःख हो रहा था, किन्तु हम कर भी क्या सकते थे?
मेरे प्रति छात्रों की प्रतिक्रिया
मैं एक मन्त्री महोदय की सुपुत्री के हाथ में गया। भाग्य की बात है कि वह लड़की उन्हीं प्रश्नों को तैयार करके आयी थी, जो परीक्षक ने पूछे थे। लड़की ने मुझे पढ़ा, वह मारे खुशी के झूम उठी उसने मुझे चूमा और माथे से लगाया। मन-ही-मन वह मेरी खूब प्रशंसा कर रही थी।
विद्यार्थियो! अब शायद तुम सोचरहे होगे कि हम भी प्रश्न-पत्र क्यों नहीं बन गये, किन्तु ऐसा नहीं सोचना चाहिए। यह तो भाग्य की बात है। मेरे दूसरे साथी जो उन परीक्षार्थियों के हाथ में गये, जिनकी तैयारी नहीं थी और प्रश्न-पत्र को कठिन समझ रहे थे, उनके साथ क्या बीती होगी? इसका भी अनुमान करो। उनमें से कुछ को तो खूब निरादर का सामना करना पड़ा होगा, गालियाँ सुननी पड़ी होंगी और कुछ तो शायद टुकड़े-टुकड़े करके फाड़ डाले गये होंगे। सोचो, जिनकी यह दशा हुई होगी, उन्हें कितना दुःख हुआ होगा!
हाँ, तो उक्त लड़की ने खुशी-खुशी सारे प्रश्नों के उत्तर लिखे। समय समाप्त होने पर परीक्षा-भवन से बाहर आई और उछलती-कूदती घर पहुंची।आज वह खुशी के मारे पागल हो रही थी। उसके ट्यूटर ने भी जब उसका प्रश्न-पत्र देखा तो वे भी प्रसन्न हुए। लड़की ने एक बार फिर मेरा गुणगान किया और पुस्तकों में रख दिया।
मेरा सम्मान और अपमान
प्यारे विद्यार्थियो! पुस्तकों के ढेर में से आज मैं तुम्हारे हाथ लगा और अपमानित हुआ। आगे भी मुझे मान और अपमान मिलते रहेंगे, किन्तु मैं समझता हूँ कि मेरा मान-अपमान, मेरी अपेक्षा परीक्षार्थी के ज्ञान पर अधिक निर्भर रहता है।