सम्पूर्ण कबीर दोहावली हिन्दी अर्थ सहित | Kabir Dohavali (922 Kabir Ke Dohe) with Hindi Meaning
Kabir Das ke dohe in Hindi : सम्पूर्ण कबीर दोहवाली में कुल 922 दोहे हैं, इन सभी दोहो का प्रकाशन हम हिन्दी अर्थ (भावार्थ) के साथ कर रहें हैं, जिससे कबीर दास जी के विचारों को आप सभी आसानी से पढ़ और समझ सकें।
सम्पूर्ण कबीर दोहावली हिंदी अर्थ सहित | Kabir Das Ji ke Dohe
दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय॥१॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि दुःख में भगवान का स्मरण तो सभी करते हैं, सुख में कोई याद नहीं करता है। यदि सुख में भी भगवान का स्मरण किया जाये तो दुःख होगा ही क्यों।
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय ।
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय॥२॥
भावार्थ- तिनका अगर पैर के नीचे है तब भी उसे सूक्षम (तुच्छ) नहीं समझना चाहिए। अगर वह उड़ करके आँख मे चला जाये तो बहुत ही पीड़ा होती है।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर॥३॥
भावार्थ- कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय॥४॥
भावार्थ- कबीर दास जी इस दोहे में गुरु की महिमा बताते हुए कहते है, गुरु और गोविंद अर्थात भगवान आपके सामने खड़े हों, तब आपको पहले गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए, क्योंकि उस गुरु ने ही आपको भगवान तक पहुंचने का मार्ग बताया है, गुरु कृपा से ही आप भगवान तक पहुंचे हैं।
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार॥५॥
भावार्थ- कबीर दास जी इस दोहे में गुरु महिमा बताते हुए कहते हैं, मैं जीवन का प्रत्येक क्षण गुरु पर सैकड़ों बार न्यौछावर करता हूँ, क्यूंकि उनकी कृपा से बिना विलम्ब मुझे मनुष्य से देवता बना दिया।
कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख॥६॥
भावार्थ- कबीर जी कहते हैं कि माला तो मन की ही होती है बाकी तो सभी लोक दिखावा है। अगर माला फेरने से भगवान मिलता हो तो रहट के गले को देख, कितनी बार माला फिरती है। दिल की माला फिरने से ही भगवान मिलता है।
सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने
फरियाद॥७॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं जब मनुष्य के जीवन में सुख आता हैं, तब वो ईश्वर को याद नहीं करता लेकिन जैसे ही दुःख आता हैं, वो दौड़ा दौड़ा ईश्वर के चरणों में आ जाता हैं। फिर आप ही बताये कि ऐसे भक्त की पीड़ा को कौन सुनेगा।
साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा
जाय॥ ८॥
भावार्थ- कबीर दास जी ईश्वर से कहते है कि आप मुझे केवल इतना दीजिये कि जिससे मेरे और मेरे परिवार की गुजर बसर हो जाये। और मेरे घर से कोई भी साधु संत भुखा न जाये।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट॥
९॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, अभी समय है राम नाम का समरण कर लो, वरना समय निकल जाने पर पछताओगे अर्थात जब शरीर से प्राण निकल जाएंगे तब।
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो
म्यान॥१०॥
भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि संतजन (साधु) की जाति मत पूछो, यदि पूछना ही है तो उनके ज्ञान के बारे में पूछ लो। तलवार को खरीदते समय सिर्फ तलवार का ही मोल-भाव करो, उस समय . तलवार रखने के कोष को पड़ा रहने दो। उसका मूल्य नहीं किया जाता।
Kabir Ke Dohe | कबीर के दोहे
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ
क्षमा तहाँ आप॥११॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥१२॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते है, मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है, अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै
नहीं ठौर॥१३॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। अगर ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है लेकिन अगर गुरु आपसे रूठ गया तो दुनियां में कहीं आपका सहारा नहीं है।
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे
होय॥१४॥
भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि एक दिन में चौबीस घंटे होते हैं। इनमें पंद्रह घंटे काम-धंधों में बिता देते हैं, नौ घंटे सोने में। हमें हरि स्मरण करने फुरसत ही नहीं मिलती। हरि स्मरण बिना किये कोई मुक्ति कैसे पा सकते हैं? अर्थात् हरि स्मरण से ही कोई मुक्ति पा सकता है।
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी
म्यान॥१५॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी! तू सोता रहता है (अपनी चेतना को जगाओ) उठकर भगवान का स्मरण कर क्यूंकि जिस समय यमदूत तुझे अपने साथ लेने आएंगे तब तेरा यह शरीर खाली म्यान की तरह पड़ा रह जाएगा।
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन॥१६॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जो शील (शान्त एवं सदाचारी) स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया शीलवन्त (सदाचारी) व्यक्ति में हीं निवास करती है।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥१७॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य का मन तथा उसमे व्याप्त माया का नाश नहीं होता और उसकी आशा तथा इच्छाओं का कभी भी अन्त नहीं होता केवल दिखने वाला शरीर हीं मरता है। यही कारण है कि मनुष्य दु:ख रूपी समुद्र मे सदा गोते खाता रहता है ।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी
तोय॥१८॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे क्या रौंदता है । एक दिन ऐसा आएगा कि मै तुझे रौंदूंगी । अर्थात मृत्यु के पश्चात मनुष्य का शरीर इसी मिट्टी मे मिल जाएगा।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय॥१९॥
भावार्थ- कबीर दस जी कहते हैं, रात तो तुमने सोकर गंवा दी और दिन खाने-पीने में गंवा दिया। यह हीरे जैसा अनमोल मनुष्य रूपी जन्म को तुमने कौड़ियो मे बदल दिया।
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग॥२०॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी! उठ जाग, नींद तो मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा।
Kabir ke dohe with meaning | कबीर के दोहे अर्थ सहित
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है
त्रिशूल॥२१॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जो तेरे रास्ते में कांटे बोये उसके लिए भी तुम्हें फूल बोना चाहिए। तुझको फूल के फूल ही मिलेंगे और जिसने तेरे रास्ते मे कांटे बोये हैं उसको त्रिशूल की भांति चुभने वाले कांटे मिलेंगे। अर्थात मनुष्य को सबके लिए भला ही करना चाहिए, जो तुम्हारे लिए बुरा करेंगे वह स्वयं अपने दुष्कर्मों का फल पाएंगे।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न
लागे डार॥ २२ ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, यह मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है और यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जिस तरह पेड़ से पत्ता झड़ जाने के बाद फिर वापस कभी डाल मे नहीं लग सकता। अतः इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पहचानिए और अच्छे कर्मों मे लग जाइए।
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात
जंजीर॥२३॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जो इस संसार मे आया है, उसे जाना है चाहे वह राजा हो या फकीर (कंगाल) हो। लेकिन कोई सिंहासन पर बैठ कर जाएगा और कोई जंजीरों में बंधकर जाएगा। अर्थात जिसने अच्छे कर्म किए होंगे वह सम्मान के साथ जाएगा और जिसने बुरे कर्म किए होंगे वह कष्ट के साथ जाएगा।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥२४॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जो कल करना है उसे आज कर और जो आज करना है उसे अभी कर। समय और परिस्थितियाँ एक पल मे बदल सकती हैं, एक पल बाद प्रलय हो सकती हैं अतः किसी कार्य को कल पर मत टालो।
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की
सीख॥२५॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते है, माँगना मरने के बराबर है इसलिए किसी से भीख मत माँगो। सतगुरु की यही शिक्षा है की माँगने से मर जाना बेहतर है अतः प्रयास यह करना चाहिये की हमे जो भी वस्तु की आवश्यकता हो उसे अपने मेहनत से प्राप्त करें न की किसी से माँगकर।
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों
धीरज रोग॥२६॥
भावार्थ- जहाँ मनुष्य में घमंड हो जाता है वहाँ उस पर आपत्तियाँ आने लगती हैं और जहाँ संदेह होता है वहाँ निराशा और चिंता होने लगती है। कबीरदास जी कहते हैं की यह चारों रोग धीरज से हीं मिट सकते हैं।
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय॥ २७ ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, माया और छाया एक जैसी है इसे कोई-कोई ही जानता है यह भागने वालों के पीछे ही भागती है, और जो सम्मुख खड़ा होकर इसका सामना करता है तो वह स्वयं हीं भाग जाती है।
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान॥
२८॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं की ऐ तू चादर तान कर सो रहा है, अपने होश ठीक कर और अपने आप को पहचान, तू किस काम के लिए आया था और तू कौन है? स्वयं को पहचान और अच्छे कर्म कर।
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ
नांह॥ २९॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, इस शरीर का क्या भरोसा करना, इसका तो क्षण भर में विनाश हो जाता है, इसलिए हर सांस पर हरि (भगवान) का स्मरण करो इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो
नींच॥३०॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, गाली यानि दुर्वचन से ही कलह, कष्ट और मृत्यु जैसी समस्याएं उत्पन्न हो जाती है, इन दुर्वचनों को सुनकर जो हार मानकर चला जाये वह साधु है, और जो इन गालियों को सुनकर गाली देने लगे वह नीच है।
Kabir das famous dohe in hindi | कबीर दास के लोकप्रिय दोहे
दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय॥
३१॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कभी भी कमजोर व्यक्ति को सताना नहीं चाहिए क्योंकि उसकी हाय में अत्यंत शक्ति होती है, जैसे बिना जीवन वाली धौंकनी लोहे को भी भस्म कर डालती है।
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर॥
३२॥
भावार्थ- कबीर दास जी चेतावनी देते हुए कहते है, तुम अपनी आंखें खोलकर स्वयं देख लो, दान देने से धन नहीं घटता है और ना ही नदी का पानी पीने से नदी के पास पानी घटता है।
दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन॥३३॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, यह जो शरीर है इसमें जो प्राण वायु है वह इस शरीर में होने वाले दस द्वारों से निकल सकता है। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय मृत्यु का कारण बन सकती है।
ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय॥३४॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि हमेशा वाणी में मधुरता रखनी चाहिए और घमंड का त्याग करना चाहिए। जिससे औरों में भी शीतलता बनी रहे, साथ ही आपका मन भी शांत बना रहे।
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी
बाट॥३५॥
भावार्थ- इस दोहे में कबीर दास जी कहते हैं, कि हीरे को कभी भी बेईमानों और चोरों की बाजार में खोलना/दिखाना भी नहीं चाहिए। वहाँ से चुपचाप अपने रास्ते निकल जाना चाहिए क्यूंकी वहाँ आपके हीरे का कोई मोल ही नहीं साझेगा, इसलिए पोटली बंधी ही रखनी चाहिए। अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान को केवल आध्यात्मिक लोग ही समझ सकते हैं, इसलिए सांसरिक लोगों में आध्यात्मिक ज्ञान का हीरा ना ही दिखाना चाहिए, क्यूंकी वहाँ पर उसका कोई सही मूल्य नहीं जान सकता है।
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार॥३६॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब
कोय॥३७॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की
होय॥३८॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, मैं संसार में सभी के दुख देखकर रोता हूँ (दुखी होता हूँ) लेकिन कोई भी मेरा दुख नहीं देख पाता है। मेरा दुःख केवल वही सझ सकता है, जो मेरे शब्दों को समझता है।
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और
साँप॥३९॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं की यदि साधू (सज्जन) सो रहा है तो उसे जगाना उचित है, क्यूंकी उसके जगने से ज्ञान की वर्षा होगी। वही दूसरी ओर अधर्मी, शेर और साँप को सोने देना ही सही है, क्यूंकी इनके जगने से सिर्फ लोगों को कष्ट और परेशानियाँ ही बढ़ेंगी।
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात॥४०॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि शराब पीने का अवगुण / लत बहुत ही बुरी है, क्यूंकी शराब के नशे में मद मस्त होकर मनुष्य पशुओं कि भांति व्यवहार करने लगता है। समाज में मान सम्मान के साथ आर्थिक स्थिति भी खराब हो जाती है।
Kabir ke dohe with meaning in hindi | कबीर के दोहे हिन्दी अर्थ सहित
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ॥४१॥
भावार्थ- जैसे बाजीगर (जादूगर) के साथ बंदर होता है, बाजीगर उसे अपने इशारे पर नचाता रहता है। उसी प्रकार यह मन भी जीव (मनुष्य) को अपने इशारों पर नचाता रहता है। जबकि मनुष्य को अपने मन पर काबू रखना चाहिए।
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को
फ़ूट॥४२॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते है, जिस प्रकार योद्धा के शरीर में भाले की टूटी हुई नोक बिना चुंबक की सहायता से नहीं निकाली जा सकती है, उसी प्रकार मन में व्याप्त बुराई को बिना सतगुरु रूपी चुंबक के निकालना संभव नहीं है।
कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या
होय॥४३॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि इस लकड़ी कि बनी माला को जपने से क्या दिखावा कर रहे हो? जब तक अपने हृदय / मन से ईश्वर का नाम / जप नहीं करोगे, तब तक इसका कोई फायदा नहीं है। इसलिए लकड़ी की माला को छोडकर मन रूपी माला से भगवान का भजन करो (स्मरण करो), वही महत्वपूर्ण है।
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप॥४४॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, पवित्रता मैली ही भली है फिर चाहे वह रंग में काली हो, फटे वस्त्र पहने हुये और कुरूप हो। इस पवित्रता के रूप पर भी मैं करोड़ों सुंदरियों को न्यौछावर करता हूँ।
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार॥४५॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, बैद्य जो चिकित्सा करता है वह भी मरेगा, रोगी रोग के कारण मर जाएगा, इसी प्रकार सारा संसार मरेगा। वह कहते हैं कि मै (कबीर दास) तो मरूंगा ही नहीं। यदि राम नहीं मरता तो मैं भी नहीं मरूंगा। मेरा आधार वह राम है जो अनादि, अनंत, अनश्वर है। मैं उसी में समाहित हूं, उसी में लीन हूं। इसलिए जब तक वह ब्रह्म है तब तक मैं भी हूं।
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध॥४६॥
भावार्थ- संत कबीर दास जी कहते है, जो थोड़ा थोड़ा जप करे वह मानव है, जो अधिक स्मरण व जप करे वह साधु है। परंतु जो हद और बेहद अर्थात जो स्मरण व जप करते ही नही, हमेशा सोये रहते हैं उनके साथ क्या अगाध हुआ, पता नहीं?
राम रहे बन भीतरे, गुरु की पूजा ना आस।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश॥४७॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जो राम राम मन से जपते है, परंतु गुरु के उपदेशों का न तो पालन करते है और न ही गुरु सेवा की इच्छा रखते हैं। ऐसे लोग पाखण्डी, झूठे होते हैं, ये हमेशा निराश रहते हैं। उनकी इस झूठी भक्ति का कोई फल उन्हें प्राप्त नहीं होता है।
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच।
वाके संग न लागिये, खाले
वटिया काँच॥४८॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जिनका अपनी जीभ अर्थात वाणी पर नियंत्रण नहीं होता है, साथ ही उनके हृदय में सत्य नहीं होता है। ऐसे लोग औषधि की खाली कांच की शीशी की भांति होते हैं, इनसे आपको कोई लाभ नहीं होता है, वरन नुकसान अवश्य पहुंच सकता है, इनकी संगति कभी नहीं करनी चाहिए।
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार।
सत्-गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर
विचार॥४९॥
भावार्थ- कबीर दास जी का विचार है, कि किसी तीर्थ जाने से एक फल की प्राप्ति होती है, संतो की संगति से चार फलों की प्राप्ति होती है। लेकिन एक सदगुरु मिल जाये तो उससे अनेक फलों की प्राप्ति होती है अर्थात सद्गुरु के मिलने से जीवन धन्य हो जाता है।
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह
दीन ॥५०॥
भावार्थ- संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते है, ईश्वर का स्मरण उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार मछली पानी से दूर जाने पर अपने प्राण त्याग देती है। उसी प्रकार की भक्ति से ही जीवन धन्य होता है।
Kabir das ke dohe with meaning in Hindi
Kabir ke Dohe with meaning in Hindi : संत कबीर दास जी अपना आराध्य ब्रह्मा को मानते थे, उनका मानना था ईश्वर निराकार है और वह एचएम सबके अंदर ही है। कबीर दास जी ने कर्म और भक्ति पर ज़ोर दिया है। साथ ही मुक्ति का धाम गुरु चरणों को बताया है। यद्यपि कबीर दास की वाणी आज नहीं सुनी जा सकती है। परंतु उनके विचार उनके रचनाओं के माध्यम से जान सकते हैं, और उनके बताए मार्ग का अनुसरण कर सकते हैं। कबीर के दोहों को कबीर अमृतवाणी का भी नाम दिया है।
समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥५१॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, मैं तुझे अपनी ओर खींच रहा हूँ, लेकिन तू दूसरों के हाथ बिक रहा है, और यमलोक को जा रहा है। मेरे लाख समझाने पर भी तू नहीं समझता है।
हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा
कराय॥५२॥
भावार्थ- सोने के थाल में मोती भरे हुए बिक रहे हैं। लेकिन जो उनकी कद्र नहीं जानते वह क्या करें, उन्हे तो हंस रूपी जौहरी हीं पहचान कर ले सकता है।
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय॥ ५३ ॥
भावार्थ- मुझे जो कहना था वो मैंने कह दिया और अब जा रहा हूँ, मुझसे अब कुछ और कहा नहीं जाता। एक ईश्वर के अलावा सब नश्वर है और हम सब इस संसार को छोड़ कर चले जायेंगे। लहरें कितनी भी ऊंची उठ जाएँ वो वापस नदी में हीं आकार उसमें समा जाएँगी ठीक उसी प्रकार हम सब को परमात्मा के पास वापस लौट जाना है।
वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल॥ ५४ ॥
भावार्थ- ज्ञान जैसी अमूल्य वस्तु तो उपस्थित है, परंतु उसको कोई लेने वाला नहीं है क्योंकि ज्ञान, बिना सेवा के नहीं मिलता और सेवा करने वाला कोई नहीं है इसलिए कोई भक्ति और सेवा कर सकता है तो ले सकता है।
कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय।
चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय॥ ५५ ॥
भावार्थ- यह कलयुग खोटा है और सारा जग अंधा है मेरी बातों को कोई नहीं मानता बल्कि जिसको भली बात बताता हूँ वही मेरा दुश्मन हो जाता है।
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल
खोय॥ ५६ ॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी, लोभी इन तीनों से भक्ति नहीं हो सकती। भक्ति तो कोई शूरवीर ही कर सकता है जिसने जाति, वर्ण और कुल का मोह त्याग दिया हो।
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय॥ ५७ ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि जगते हुए मे भी सोये हुए के समान हरि को याद करते रहना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हरि नाम का तार टूट जाय। अर्थात प्राणी को जागते-सोते हर समय ईश्वर का स्मरण करते रहना चाहिए।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय॥ ५८ ॥
भावार्थ- जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता हैं वैसे इस दुनिया में सज्जनों की जरुरत हैं जो सार्थक चीजों को बचा ले और निरर्थक को चीजों को निकाल दे।
लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर
चबाय॥ ५९ ॥
भावार्थ- जिस वस्तु कि किसी को लगन लग जाती है उसे वह नहीं छोड़ता। चाहे कितनी हीं हानि क्यूँ न हो जाय, जैसे अंगारे में क्या मिठास होती है जिसे चकोर (पक्षी) चबाता है? अर्थ यह है कि चकोर कि जीभ और चोंच भी जल जाय तो भी वह अंगारे को चबाना नहीं छोड़ता वैसे हीं भक्त को जब ईश्वर कि लगन लग जाती है तो चाहे कुछ भी हो वह ईश्वर भक्ति नहीं छोड़ता ।
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक
कहां राय॥६०॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर भक्ति तो गेंद के समान है। चाहे जो ले जाय इसमे क्या राजा और क्या कंगाल किसी में कुछ भेद नहीं समझा जाता। चाहे जो ले जाय।
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार॥६१॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं की जो तुम्हारे बचपन का मित्र और आरंभ से अन्त तक का मित्र है, जो हमेशा तुम्हारे अन्दर रहता है। तू जरा अपने अन्दर के परदे को हटा कर देख। तुम्हारे सामने हीं भगवान आ जाएंगे।
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार॥६२॥
भावार्थ- हे प्रभु आप हृदय की बात जानने वाले और आप हीं आत्मा के मूल हो, जो तुम्हीं हांथ छोड़ दोगे तो हमें और कौन पार लगाएगा।
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेंरी करो
सम्हार॥६३॥
भावार्थ- मै जन्म से हीं अपराधी हूँ, मेरे नाखून से लेकर चोटी तक विकार भरा हुआ है, तुम ज्ञानी हो दु:खों को दूर करने वाले हो, हे प्रभु तुम मुझे सम्हाल कर कष्टों से मुक्ति दिलाओ।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले
जाय॥६४॥
भावार्थ- प्रेम न तो बागों में उगता है और न बाज़ारों में बिकता है, राजा या प्रजा जिसे वह अच्छा लगे वह अपने आप को न्योछावर कर के प्राप्त कर लेता है।
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का
लेय॥६५॥
भावार्थ- जो प्रेम का प्याला पीता है वह अपने प्रेम के लिए बड़ी से बड़ी आहूति देने से भी नहीं हिचकता, वह अपने सर को भी न्योछावर कर देता है। लोभी अपना सिर तो दे नहीं सकता, अपने प्रेम के लिए कोई त्याग भी नहीं कर सकता और नाम प्रेम का लेता है।
सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि
संग॥६६॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि भक्त ईश्वर की साधना में इस प्रकार मन लगाता है, उसे एक क्षण के लिए भी भुलाता नहीं, यहाँ तक की प्राण भी उसी के ध्यान में दे देता है। अर्थात वह प्रभु भक्ति में इतना तल्लीन हो जाता है की उसे शिकारी (प्राण हरने वाला) के आने का भी पता नहीं चलता।
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट
खोल॥६७॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, एकचित्त होकर परमात्मा का सुमिरन कर और मुँह से कुछ न बोल, तू बाहरी दिखावे को बंद कर के अपने सच्चे दिल से ईश्वर का ध्यान कर।
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार॥६८॥
भावार्थ- परमात्मा का सच्चा नाम दूध के समान है और पानी के जैसा इस संसार का व्यवहार है। पानी मे से दूध को अलग करने वाला हंस जैसा साधू (सच्चा भक्त) होता है। जो दूध को पानी मे से छानकर पी जाता है और पानी छोड़ देता है।
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके
तो जाग॥६९॥
भावार्थ- जिस तरह तिलों में तेल और चकमक पत्थर में आग छुपी रहती है। वैसे हीं तेरा सांई (मालिक) परमात्मा तुझमें है अगर तू जाग सकता है तो जाग और अपने अंदर ईश्वर को देख और अपने आप को पहचान।
जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे
नाहिं॥७०॥
भावार्थ- जिस भगवान को तू सारे संसार में ढूँढता फिरता है। वह मन में ही है। तेरे अंदर भ्रम का परदा दिया हुआ है इसलिए तुझे भगवान दिखाई नहीं देते।
जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश।
मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास॥७१॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान का नाम लेते ही पाप का नाश हो जाता है। जिस तरह अग्नि की चिंगारी पुरानी घास पर पड़ते ही घास जल जाती है। इसी तरह ईश्वर का नाम लेते ही सारे पाप दूर हो जाते हैं।
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही
सोय॥७२॥
भावार्थ- कबीर जी कहते है कि न तो शीतलता चंद्रमा में है न ही शीतलता बर्फ में है वही सज्जन शीतल हैं जो परमात्मा के प्यारे हैं अर्थात वास्तविकता मन की शांति ईश्वर-नाम में है।
आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद॥७३॥
भावार्थ- जो मनुष्य इंद्रियों के स्वाद के लिए पूर्ण नाक तक भरकर खाये तो प्रसाद कहाँ रहा? तात्पर्य यह है कि भोजन या आहार शरीर की रक्षा के लिए सोच समझकर करें तभी वह उत्तम होगा। अर्थात सांसारिक भोग उपभोग ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करें।
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय॥७४॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक संसार का संबंध है यानी मन सांसारिक वस्तुओं में आसक्त है तब तक भक्ति नहीं हो सकती जो संसार का संबंध तोड़ दे और भगवान का भजन करे, वही भक्त होते हैं।
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा
नाम॥७५॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जैसे मछ्ली को पानी प्यारा लगता है, लोभी को धन प्यारा लगता है, माता को पुत्र प्यारा लगता है, वैसे ही भक्त को भगवान प्यारे लगते है।
दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे
दर्जी॥७६॥
भावार्थ- लोगों का स्वार्थ देखकर मनरूपी आकाश फट गया। उसे दर्जी क्योंकर सी सकता है! वह तो तब ही ठीक हो सकता है, जब कोई हृदय का मर्म जानने वाला मिले।
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई
बात॥७७॥
भावार्थ- सज्जन और दुष्ट को उसकी बातों से पहचाना जाता है क्योंकि उसके अंदर का सारा वर्णन उसके मुँह द्वारा पता चलता है। व्यक्ति जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार उसका व्यवहार बनता है।
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज
देव॥७८॥
भावार्थ- जब तक भक्ति इच्छा सहित है तब तक परमात्मा की सेवा व्यर्थ है। अर्थात भक्ति बिना कामनाओं के करनी चाहिए। कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक इच्छाओं से रहित भक्ति न हो तब तक परमात्मा कैसे मिल सकता है? अर्थात नहीं मिल सकता है।
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम
महन्त॥७९॥
भावार्थ- जिसकी ज्ञान रूपी आँखें फूटी हुई हैं वह सन्त-असन्त को कैसे पहचाने ? उनकी यह स्थिति है, कि जिसके साथ दस-बीस चेले देखें उसी को महन्त समझ लिया।
दया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि
साखी शब्द॥ ८०॥
भावार्थ- जिसके हृदय के अंदर दया तो लेशमात्र नहीं और वह ज्ञान की बातें खूब बनाते हैं वे आदमी चाहे जितनी साखी (भगवान की कथा) क्यों न सुने उन्हें नरक ही मिलेगा।
दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय॥८१॥
भावार्थ- किस पर दया करनी चाहिए किस पर निर्दयता करनी चाहिए ? हे मानव तू सब पर समान भाव रख। कीड़ा और हाथी दोनों ही परमात्मा के जीव हैं, अर्थात सब को दया दृष्टि से ही देखना चाहिए।
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में
दो न समाय॥८२॥
भावार्थ- कबीर जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर मैं (अहंकार) था तब परमात्मा नहीं था, अब परमात्मा है तो अहंकार मिट गया यानी परमात्मा के दर्शन से अहंकार मिट जाता है।
छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम
कहावे सोय॥८३॥
भावार्थ- जो छिन (तुरंत) में उतरे और छिन में चढ़े उसे प्रेम मत समझो। जो कभी भी घटे नहीं, हरदम शरीर की हड्डियों के भीतर तक में समा जाये वही प्रेम कहलाता है।
जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम।
दोनों कबहूँ नहिं मिले,
रवि रजनी इक धाम॥८४॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जहां काम की भावना होती है वहाँ हरि भजन नही होता, जहां भगवान का भजन और नाम स्मरण किया जाता है वहाँ काम की भावना समाप्त हो जाती है। जिस प्रकार दिन और रात एक साथ नहीं मिल सकते हैं, उसी प्रकार जिस मन में ईश्वर का स्मरण है वहाँ कामनाएँ नहीं रह सकतीं हैं।
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय॥८५॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि हाथी के धैर्य धारण करने से ही वह मन भर भोजन करता है, परंतु कुत्ता धैर्य नहीं धारण करने से घर-घर एक टूक के लिए फिरता है। इसलिए सम्पूर्ण जीवों को चाहिए कि वह धैर्य धारण करे।
ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय॥८६॥
भावार्थ- पानी ऊँचे पर नहीं ठहरता है, वह नीचे ही फैलता है। जो नीचा झुकता है वह भर पेट पानी पी लेता है, जो ऊँचा ही खड़ा रहे वह प्यासा रह जाता है।
सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय।
जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय॥८७॥
भावार्थ- संत कबीर दास जी कहते हैं, सबसे छोटा बनकर रहने में सब काम आसानी से निकल जाते हैं जैसे कि दूज के चंद्रमा को सब सिर झुकाते हैं।
संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे
चूक॥८८॥
भावार्थ- जो आदमी सच्चाई को बांटता है यानी सच्चाई का प्रचार करता है और रोटी में से टुकड़ा बाँटता है कबीर दास जी कहते हैं उस भक्त से भूल-चूक नहीं होती।
मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष॥८९॥
भावार्थ- रास्ते चलते-चलते जो गिर पड़े उसका कोई कसूर नहीं माना जाता है, लेकिन कबीरदास जी कहते हैं कि जो बैठा ही रहेगा उसके सिर पर तो कठिन कोस बने ही रहेंगे अर्थात कार्य करने में बिगड़ जाये तो उसे सुधारने का प्रयत्न करें परंतु न करना अधिक दोषपूर्ण है।
जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी
घास॥९०॥
भावार्थ- जिस प्रकार अग्नि की चिंगारी पुरानी घास में पड़कर उसको फूँक देती है, वैसे ही हरि के ताप से पाप नष्ट हो जाते हैं। जब भी आपके हृदय में हरि नाम स्मरण दृढ़ हो जाएगा, तभी समस्त पापों का नाश होगा।
काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय।
काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय॥९१॥
भावार्थ- शरीर रूपी काठ को काल रूपी घुन की तरह से खाये जा रहे हैं । लेकिन इस शरीर में भगवान भी रहते हैं यह भेद कोई बिरला ही जानता है।
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं
शाह॥९२॥
भावार्थ- शील स्वभाव, सुख का सागर है जिसकी थाह कोई नहीं पा सकता है, वैसे ही भगवान के भजन के बिना साधु नहीं होता है। जैसे धन के बिना शाह (राजा) नहीं कहलाता है।
बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम॥९३॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, तुझे संसार के दिखावे से क्या काम है, तुझे तो अपने भगवान से काम है इसलिए भगवान का स्मरण अन्तर्मन में ही करना चाहिए।
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम॥९४॥
भावार्थ- जो मनुष्य अपने मन में इच्छा को रखकर निजी स्वार्थ से सेवा करता है वह सेवक नहीं है, वह तो सेवा के बदले कीमत चाहता है, सेवा निःस्वार्थ होनी चाहिए।
तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर
ढ़ूँढ़त घास॥९५॥
भावार्थ- कबीरदास कहते हैं, कि भगवान तुम्हारे अंदर ही वास करता है, जिस प्रकार पुष्पों में सुगंध व्याप्त रहती है। फिर तू कस्तुरी वाले हिरण की भांति घास और जंगल में कस्तुरी ढूँढता फिरता है, जबकि कस्तुरी तो उसकी नाभि में ही होती है।
कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव।
कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव॥९६॥
भावार्थ- संत कबीरदास जी कहते है कि संसार रूपी भवसागर से पार उतरने के लिए कथा-कीर्तन की नाव चाहिए इसके अतिरिक्त पार उतरने का कोई और उपाय नहीं है ।
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा॥९७॥
भावार्थ- हे कबीर! यह तेरा तन जा रहा है इसे ठिकाने लगा ले। यानी सारे जीवन की मेहनत तेरी व्यर्थ जा रही है। इसे संत सेवा और गोविंद (ईश्वर) का भजन करके अच्छा बना ले।
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन
समाय॥९८॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य का शरीर विमान के समान है और मन कौवे के समान है कि कभी तो नदी में गोते मारता है और कभी आकाश में जाकर उड़ता है।
जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की
छाँय॥९९॥
भावार्थ- कबीर जी कहते हैं कि जिस स्थान पर ग्राहक है वहाँ मैं नहीं हूँ और जहाँ मैं हूँ वहाँ ग्राहक नहीं, यानि मेरी बात को मानने वाले लोग नहीं हैं, बस लोग बिना ज्ञान के भरमाते फिरते हैं ।
कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय॥
१००॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि प्रवचन देने वाले तो बहुत मिलते हैं, लेकिन उन पर अमल करने वाला कोई नहीं मिला। इसलिए जो अपने ज्ञान या प्रवचन पर खुद अमल ना करता हो सिर्फ दूसरे को उनके बारे में बताता हो, उन पर आपको भी अमल नहीं करना चाहिए।