सम्पूर्ण कबीर दोहवाली - भाग 2 | Kabir das ke Dohe with meaning in Hindi
Complete Kabir Dohavali in Hindi Part 2nd : कबीर दोहवाली का यह दूसरा भाग है जिसमें कबीर दास जी के 101 से 200 दोहों को हिन्दी अर्थ के साथ प्रकाशित किया गया है।
सम्पूर्ण कबीर दोहवाली - भाग 2 | Kabir Ke Dohe in Hindi
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न
पूर ॥१०१॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, आकाश में तारे तभी तक जगमगाते रहते हैं जब तक सूर्य का उदय नहीं होता है, जैसे ही सूर्य उदय होता है उन सभी की रोशनी चमक खतम हो जाती है। उसी प्रकार जब तक जीव को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक वह सांसरिक मोह माया, भोग विलास में लिप्त रहता है और दुखों को झेलता हुआ जीवन-मरण के चक्रव्युव्ह में फंसा रहता हैं। परंतु जब उसे वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, तब वह इन सबसे ऊपर उठ जाता है।
आस पराई राख्त, खाया घर का खेत।
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ १०२॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि तू दूसरों की रखवाली करता है और अपने घर को नहीं देखता यानि तू दूसरों को ज्ञान सिखाता है और स्वयं क्यों नहीं परमात्मा का भजन करता।
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका
दरार॥ १०३॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि सोना, सज्जन पुरुष और साधू जन किसी बात या कारण से अलग होने पर पुनः जुड़ जाते हैं। परंतु कुम्हार का घड़ा एक ही धक्के में टूट कर अलग हो जाता है अर्थात दुर्जन छोटी सी बात पर ही दरार पैदा कर देते हैं।
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न
जाय ॥ १०४॥
भावार्थ- कबीर दास जी गुरु की महिमा का बखान करते हैं, कि सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥१०५ ॥
भावार्थ- कबीर कहते हैं कि मेरी आधी साखी चारों वेदों की जान है तो मैं क्यों न उस दूध का सम्मान करूँ जिसमें घी निकले। जिस प्रकार दूध में घी है इसी भाँति मेरी आधी साखी चारों वेदों का निचोड़ है।
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥
१०६॥
भावार्थ- जब मन में प्रेम की अग्नि लग जाती है तो दूसरा उसे क्यों जाने ? या तो वह जानता है जिसके मन से अग्नि लगी है या आग लगाने वाला जानता है।
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय
॥१०७॥
भावार्थ- साधु गाँठ नहीं बाँधता अर्थात वह भंडारण के लिए ज्यादा अन्न नहीं एकत्र करता है, वह तो पेट भर अन्न लेता है क्योंकि वह जानता है आगे पीछे ईश्वर खड़े हैं। भाव यह है कि परमात्मा सर्वव्यापी है जीव जब माँगता है तब वह उसे देता है।
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार
॥१०८॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि तेरा बालकपन का मित्र और आरंभ से अंत तक का जो मित्र है वह हमेशा तेरे अंदर रहता है, तू जरा अंदर के पर्दे को दूर करके देख तो सम्मुख ही भगवान के दर्शन हो जाएंगे।
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥
१०९॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में या तो परमात्मा जागता है या ईश्वर का भजन करने वाला या पापी जागता है, और कोई नहीं जागता।
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय
॥११०॥
भावार्थ- यदि सोने के कलश में शराब है तो संत उसे बुरा कहेंगे। इस प्रकार कोई ऊँचे कुल में पैदा होकर बुरा कर्म करे तो वह भी बुरा होता है।
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार।
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर
विचार ॥ १११॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे पनिहारी का ध्यान हर समय गागर पर ही रहता है इसी प्रकार तुम भी हर समय उठते-बैठते ईश्वर में मन लगाओ।
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल
॥११२॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि जब जड़ मिट्टी से जुड़ जाती है, तब उसमें डालियाँ, पत्ते फूल सब आते है। इसी प्रकार जब मनुष्य ईश्वर से पकड़ मजबूत बना लेता तो उसे सुख, समृद्धि, वैभव इत्यादि सब चीज़ें प्राप्त हो जाती हैं।
जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख।
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥
११३॥
भावार्थ- जिस तरह सूखा पेड़ नहीं फलता इसी तरह राम के बिना कोई नहीं फल-फूल सकता । जिसके मन में राम-नाम के सिवा दूसरा भाव नहीं है उनको सुख-दुःख का बंधन नहीं है ।
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ ११४॥
भावार्थ- जिस तरह शेर अकेला जंगल में रहता हुआ पल-पल दौड़ता रहता है जैसा अपना मन वैसा ही औरों का भी इसी तरह मन रूपी शेर अपने शरीर में रहते हुए भी घूमता फिरता है।
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥
११५॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि यह माया ब्रह्मा भंगी की जोरु है, इसमें ब्रह्मा और जीव दोनों बाप-बेटों को उलझा रखा है मगर यह साथ एक का भी नहीं देगी, तुम भी इसके धोखे में न आओ।
जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन
विचार ॥ ११६ ॥
भावार्थ- हे कबीर! संसार में जिसने कुछ सोच-विचार रखा है वह ऐसे नहीं छोड़ता उसने तो पहले ही अपनी धरती में विष देकर थाँवला बनाया है। अब सागर से अमृत खींचता है तो क्या लाभ।
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥
११७॥
भावार्थ- यदि तुम्हारे मन में शांति है तो संसार में तुम्हारा कोई बैरी नहीं। यदि तू घमंड करना छोर दे तो सब तेरे ऊपर दया करेंगे।
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार
॥११८॥
भावार्थ- यदि तुम समझते हो कि वह जीवन हमारा तो उसे राम-नाम से भर दो क्योंकि यह ऐसा मेहमान है जो दुबारा मिलना मुस्किल है।
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥
११९॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि मैंने चन्दन की डाली पर चढ़ बहुत से लोगों को पुकारकर ठीक रास्ता बताया परंतु जो ठीक रास्ते पर नहीं आता वह ना आवे! हमारा क्या लेता है।अर्थात जो व्यक्ति सही रास्ते का अनुसरण नहीं करते है उसमें उनकी हानि है, मेरा कर्तव्य था सही दिशा दिखाना वह मैंने कर दिया है।
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे
कसाय ॥ १२० ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि लोग पता नहीं किसके भरोसे बैठे हैं। मैंढ़ा को जैसे कसाई मारता है, उसी प्रकार यमराज जीव के पीछे फिरता है। फिर भी लोग गुरु कि शिक्षा पाकर उससे बचने का प्रयास पता नही क्यूँ नहीं करते हैं।
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर
विचार ॥ १२१ ॥
भावार्थ- मैं उसे एक कहूँ तो सब जगत दिखता है और यदि दो कहूँ तो बुराई है। हे कबीर! बस विचार यही कहता हूँ कि जैसा है वैसा ही रह।
जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे
पास ॥ १२२ ॥
भावार्थ- परमात्मा का कहना है अगर तू मुक्ति चाहता है तो मेरे सिवाय सब आस छोड़ दे और मुझ जैसा हो जा, फिर तुझे कुछ परवाह नहीं रहेगी।
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥
१२३ ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि ईश्वर (परमात्मा) को सच पसंद है, और वह भी सत्य है। फिर उसके लिए तुम जटा बढ़ा कर सच बोलो या फिर सिर मुंडाकर सच बोलो। कोई फर्क नहीं है। अर्थात सत्य को बदला नहीं जा सकता है, सांसरिक वेश भूषा का उस पर कोई प्रभाव नहीं हैं।
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान
॥ १२४ ॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि परमात्मा को पूरी तरह से कोई भी नहीं जान सका है। जिसने भी उनके बारे में थोड़ा भी जान सका है, उसको लगा कि वह सब जान गया है। इसी घमंड की वजह से वह कुछ भी नहीं जान पाया है।
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥
१२५ ॥
भावार्थ- जो वीर है वह दो सेनाओं के बीच में भी लड़ता रहेगा। उसे अपने मरने की चिंता नहीं रहती है। वह कभी भी मैदान कायरता से नहीं छोड़ेगा।
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत
॥ १२६ ॥
भावार्थ- पुराने मार्ग को कायर, धोखेबाज और नालायक ही छोड़ते हैं । चाहे रास्ता कितना ही बुरा क्यों न हो शेर और योग्य बच्चे अपना पुराना तरीका नहीं छोड़ते हैं और वे इस तरह से चलते हैं कि जिसमें कुछ लाभ हो।
सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख
लेह ॥ १२७ ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि संत पुरुष (साधुओं) का शरीर और मन शीशे कि तरह साफ होता है, उनके मन में ईश्वर दृष्टि आती है। अगर तू ईश्वर के दर्शन करना चाहता है, तो उनके मन में ही देख लें।
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण
जोग ॥ १२८ ॥
भावार्थ- तू अपने आपको भूखा-भूखा कहकर क्या सुनाता है, लोग क्या तेरा पेट भर देंगे। याद रख, जिस परमात्मा ने तुझे शरीर और मुँह दिया है वही तेरे काम पूर्ण करेगा।
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया
शुक्देव ॥ १२९ ॥
भावार्थ- यदि किसी ने अपना गुरु नहीं बनाया और जन्म से ही हरि सेवा में लगा हुआ है तो वह शुक्रदेव की तरह है।
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥
१३० ॥
भावार्थ- चाहे लाख तरह के भेष बदलें। घर रहें, चाहे वन में जाएं परंतु सिर्फ प्रेम भाव होना चाहिए। अर्थात संसार में किसी भी स्थान पर, किसी भी स्थिति में रहें प्रेम भाव से रहना चाहिए।
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई
देह ॥ १३१ ॥
भावार्थ- जिस तरह कुम्हार बहुत ध्यान व प्रेम से कच्चे बर्तन को बाहर से चोट देता (थपथपाता) है और भीतर से सहारा देता है। उसी प्रकार गुरु को शिष्य का ध्यान रखना चाहिए।
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई
माहिं ॥ १३२ ॥
भावार्थ- ईश्वर जो चाहे कर सकता है बंदा कुछ नहीं कर सकता वह राई का पहाड़ बना सकता है और पहाड़ को राई कर दे, यानि छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा कर सकता है।
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥
१३३ ॥
भावार्थ- बिना प्रेम की भक्ति के वर्षों बीत गए तो ऐसी भक्ति से क्या लाभ ? जैसे बंजर जमीन में बोने से फल नहीं प्राप्त होता चाहे कितना ही मेह बरसे । ऐसे ही बिना प्रेम की भक्ति फलदायक नहीं होती ।
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ १३४ ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि हम सब उस एक परमात्मा के ही अंश हैं, उसी से अनेक हुये हैं। और पुनः सब एक ही हो जाएंगे अर्थात उसी में विलीन हो जाएंगे।
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ १३५
॥
भावार्थ- साधु, सती, सूरमा की बातें न्यारी हैं। यह अपने जीवन की परवाह नहीं करते हैं इसलिए इनमें साधन भी अधिक हैं। साधारण जीव उनकी समानता नहीं कर सकता।
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा
आप ॥ १३६ ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि हरि समरण (संगति) से जीवतमा को शांति प्राप्त हो गयी। मोह की ताप अग्नि शांत हो गयी (मिट गयी)। हृदय में ईश्वर के दर्शन होने लगे और दिन रात सुख शांति से व्यतीत होने लगे।
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ १३७
॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि ऐ जोगी! तुम आशा और तृष्णा को फूँककर राख करके फेरी करो तब सच्चे जोगी बन सकोगे।
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय
॥ १३८ ॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि मन के चिंताग्रस्त होने की स्थिति कुछ ऐसी ही होती है, जैसे समुद्र के भीतर आग लगी हो। इसमें से न धुआं निकलती है और न वह किसी को दिखाई देती है। इस आग को वही पहचान सकता है, जो खुद इस से हो कर गुजरा हो।
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को
फूट ॥ १३९ ॥
भावार्थ- जैसे कि शरीर में वीर की भाल अटक जाती है और वह बिना चुंबक के नहीं निकल सकती इसी प्रकार तुम्हारे मन में जो खोट (बुराई) है वह किसी महात्मा के बिना निकल नहीं सकती, इसलिए तुम्हें सच्चे गुरु की आवश्यकता है।
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान
॥ १४० ॥
भावार्थ- हरि का भेद पाना बहुत कठिन है पूर्णतया कोई भी न पा सका। बस जिसने यह जान लिया कि मैं सब कुछ जानता हूँ मेरे बराबर अब इस संसार में कौन है, इसी घमंड में होकर वास्तविकता से प्रत्येक वंचित ही रह गया।
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ १४१
॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि तू दूसरों की रखवाली करता है और अपने घर को नहीं देखता यानि तू दूसरों को ज्ञान सिखाता है और स्वयं क्यों नहीं परमात्मा का भजन करता।
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ १४२ ॥
भावार्थ- गाली आते हुए एक होती है परंतु उलटने पर बहुत हो जाती है। कबीरदास जी कहते हैं कि गाली के बदले में अगर उलट कर गाली न दोगे तो एक-की-एक ही रहेगी।
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद
॥ १४३ ॥
भावार्थ- जो मनुष्य इंद्रियों के स्वाद के लिए पूर्ण नाक तक भरकर खाये तो प्रसाद कहाँ रहा? तात्पर्य यह है कि भोजन या आहार शरीर की रक्षा के लिए सोच समझकर करें तभी वह उत्तम होगा। अर्थात सांसारिक भोग उपभोग ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करें।
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥
१४४॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जो इस संसार मे आया है, उसे जाना है चाहे वह राजा हो या फकीर (कंगाल) हो। लेकिन कोई सिंहासन पर बैठ कर जाएगा और कोई जंजीरों में बंधकर जाएगा। अर्थात जिसने अच्छे कर्म किए होंगे वह सम्मान के साथ जाएगा और जिसने बुरे कर्म किए होंगे वह कष्ट के साथ जाएगा।
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान
॥ १४५॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं की ऐ तू चादर तान कर सो रहा है, अपने होश ठीक कर और अपने आप को पहचान, तू किस काम के लिए आया था और तू कौन है? स्वयं को पहचान और अच्छे कर्म कर।
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥
१४६॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य उजले कपड़े पहनता है और पान-सुपारी खाकर भी अपने तन को मैला नहीं होने देता परंतु हरि का नाम न लेने पर यमदूत द्वारा बंधा हुआ नर्क में जाएगा।
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ १४७॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि कोई भी जीव स्वर्ग से नहीं आता है कि वहाँ का कोई हाल मालूम हो सके, यह बात पूछने से मालूम है कि उसको कुछ नहीं मालूम है, किन्तु यहाँ से जो जीव जाया करते हैं वे दुष्कर्मों के पोटरे बाँध के ले जाते हैं।
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥
१४८॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि शराब के अवगुण कहता हूँ, क्यूंकी इससे मनुष्य अपना आपा (अस्तित्व) खो देता है, और पशुओं कि तरह व्यवहार करने लगता है। साथ ही उसका एकत्रित धन भी ख़रच होता जाता है।
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥
१४९॥
भावार्थ- मैं उसे एक कहूँ तो सब जगत दिखता है और यदि दो कहूँ तो बुराई है। हे कबीर! बस विचार यही कहता हूँ कि जैसा है वैसा ही रह।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ १५०॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि हमेशा वाणी में मधुरता रखनी चाहिए और घमंड का त्याग करना चाहिए। जिससे औरों में भी शीतलता बनी रहे, साथ ही आपका मन भी शांत बना रहे।
कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न
जाय ॥ १५१॥
भावार्थ- कबीर जी कहते हैं कि साधु की संगति में जौ कि भूसी खाकर रहना उत्तम है, परंतु दुष्ट की संगति में खांड़ मिश्रित खीर खाकर भी रहना अच्छा नहीं।
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ १५२॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि हम सब उस एक परमात्मा के ही अंश हैं, उसी से अनेक हुये हैं। और पुनः सब एक ही हो जाएंगे अर्थात उसी में विलीन हो जाएंगे।
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का
होय ॥ १५३॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को कभी भी अपने ऊपर गर्व (घमंड)नहीं करना चाहिए और कभी भी किसी का उपहास नहीं करना चाहिए, क्योंकि आज भी हमारी नाव समुद्र में है। पता नहीं क्या होगा (डूबती है या बचती है)।
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै
समाय ॥ १५४॥
भावार्थ- संतों की संगति में रहने से मन से कलह एवं कल्पनादिक आधि-व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं तथा साधुसेवी व्यक्ति के पास दुख आने का साहस नहीं करता है वह तो सदैव सुख का उपभोग करता रहता है।
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति
बनाय ॥ १५५॥
भावार्थ- कबीर जी कहते हैं कि साधु की संगति नित्य ही करनी चाहिए। इससे दुर्बुद्धि दूर होके सुमति प्राप्त होती है।
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥
१५६॥
भावार्थ- साधु की संगति कभी निष्फल नहीं जाती है, चन्दन के हवन से उत्पन्न वास को नीम की वास कोई नहीं कह सकता है।
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै,
त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ १५७॥
भावार्थ- इस संसार बंधन से कोई नहीं छूट सकता। पक्षी जैसे-जैसे सुलझ कर भागना चाहता है। तैसे ही तैसे वह उलझता जाता है।
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा
म्यान ॥ १५८॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव सोकर क्या करेगा उठकर भगवान का थोड़ा-सा भजन कर ले नहीं तो अंत समय आ जाने पर यम के दूत तुझको ले जाएंगे और जो शरीर तू अब हृष्ट-पुष्ट कर रहा है यह शरीर म्यान की तरह पड़ा रह जाएगा।
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु
नाहिं ॥ १५९॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि इस पंच तत्व शरीर का क्या भरोसा है किस क्षण इसके अंदर रहने वाली प्राण वायु इस शरीर को छोड़कर चली जावे। इसलिए जितनी बार यह सांस तुम लेते हो दिन में उतनी बार भगवान के नाम का स्मरण करो कोई यत्न नहीं है।
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥
१६०॥
भावार्थ- जो कार्य, हे प्राणी कल करने का विचार है उसको अभी कर, नहीं तो हे प्राणी जाने किस समय मृत्यु आकर घेर ले और उस समय पश्चाताप करना निरर्थक होगा अर्थात जो कार्य करना है इस संसार में उसको शीघ्र कर ले नहीं तो समय निकल जाने पर फिर कुछ नहीं कर सकेगा।
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥
१६१॥
भावार्थ- काष्ठ रूपी काया को काल रूपी धुन भिन्न-भिन्न प्रकार से खा रहा है। शरीर के अंदर हृदय में भगवान स्वयं विराजमान है, इस बात को कोई बिरला ही जानता है।
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ १६२॥
भावार्थ-कबीरदास जी कहते हैं, कि जीव जब आता है तब वह अकारण की चीजों में व्यस्त रहता है, फिर जब उसका अंतिम समय आता है तब उसे ईश्वर भजन की चिंता होने लगती है। तब वह सोचता है कि अब समय नहीं है। इस प्रकार न उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है फलतः वह नरक में जाता है।
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार
॥ १६३॥
भावार्थ- कठोर वचन सबसे बुरी वस्तु है, यह मनुष्य के शरीर को जलाकर राख के समान कर देता है। सज्जनों के वचन जल के समान शीतल होते हैं। जिनको सुनकर अमृत की वर्षा हो जाती है।
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना
कोय ॥ १६४॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि प्रवचन देने वाले तो बहुत मिलते हैं, लेकिन उन पर अमल करने वाला कोई नहीं मिला। इसलिए जो अपने ज्ञान या प्रवचन पर खुद अमल ना करता हो सिर्फ दूसरे को उनके बारे में बताता हो, उन पर आपको भी अमल नहीं करना चाहिए।
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥
१६५॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, मन एक पंछी की तरह होता है, वह वैसा ही फल खाता है, जिस प्रकार के पेंड पर बैठता है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य जिस प्रकार की संगति करेगा उसका हृदय भी उसी प्रकार के कर्मो को बढ़ावा देगा।
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥
१६६॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, लोहा एक ही होता है बस उसे बनाने का फर्क होता है। क्योंकि उसी लोहे से बख्तर बनता है और उसी लोहे से तलवार। आप अपने मन को ईश्वर के स्मरण में लगा सकते हैं या फिर उसे बुरे कामों में भी लगा सकते हैं।
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ १६७॥
भावार्थ-कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक तू जीवित है तब तक दान दिये जा। प्राण निकलने पर यह शरीर मिट्टी हो जाएगा तब इसको देह कौन कहेगा।
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से
खाय ॥ १६८॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कि कार्य को सोच विचार कर करना चाहिए, जिस प्रकार बबूल का पेड़ बो कर आम खाने की इच्छा की जाय वह निष्फल रहेगी बगैर विचारे कार्य करके फिर क्यूँ पछता रहे हो।
कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे
नाहिं ॥ १६९॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, कस्तूरी हिरण की नाभि में ही विद्यमान होता है लेकिन हिरण अज्ञानता के कारण उसे अन्यत्र ढूँढता है, उसी प्रकार ये मनुष्य भी अज्ञान है जो ईश्वर को देवालयों, मंदिरों में ढूंढते हैं, जबकि ईश्वर उनके अंदर ही विद्यमान होता है। उसे पहचानने की आवश्यकता है।
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥
१७०॥
भावार्थ- कबीर अपने को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे कबीर! तू सोने में समय क्यों नष्ट करता है। उठ तथा भगवान कृष्ण का स्मरण कर और अपने जीवन को सफल बना। एक दिन इस शरीर को त्याग कर तो सोना ही है। अर्थात इस संसार को छोड़ कर जाना ही है।
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥
१७१॥
भावार्थ- कागा किसका धन हरता है जिससे संसार उससे नाराज रहता है और क्या कोयल किसी को अपनी धुन देती है वह तो केवल अपनी मधुर (शब्द) ध्वनि सुनाकर संसार को मोहित कर लेती है। इसी प्रकार मनुष्य को भी सदैव मीठी बोली का प्रयोग करना चाहिए।
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥
१७२॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि वही सच्चा पीर (साधु) है जो दूसरों की पीर (आपत्तियों) को भली प्रकार समझता है जो दूसरों की पीर को नहीं समझता वह बेपीर एवं काफिर होता है।
कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल
चाखि ॥ १७३॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि मन हाथी के समान है उसे अंकुश की मार से अपने कब्जे में रखना चाहिए इसका फल विष के प्याले को त्याग कर अमृत के फल के पाने के समान होता है।
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥
१७४॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार नाशवान है क्षण भर को कटु तथा क्षण भर को मधु प्रतीत होता है। जिस प्रकार कि कल कोई व्यक्ति मण्डप में बैठा हो और आज उसे शमशान देखना पड़े।
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ १७५॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि स्वयम को ठगना उचित है। किसी को ठगना नहीं चाहिए। अपने ठगने से सुख प्राप्त होता है और औरों को ठगने से अपने को दुख होता है।
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥
१७६॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, भगवान की कथा, भजन, स्मरण ही भव सागर की नाव हैं। भव सागर पार करने अर्थात मुक्ति का इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा
॥ १७७॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, यह जीवन (शरीर) दिन प्रति दिन जा रहा है, इसको संतों की सेवा और भगवान के स्मरण, भजन इत्यादि सही कामों में अभी ठौर लगा लो।
कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥
१७८॥
भावार्थ- यह कलयुग खोटा है और सारा जग अंधा है मेरी बात कोई नहीं मानता, बल्कि जिसको भली बात बताया हूँ वह मेरा बैरी हो जाता है।
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥
१७९॥
भावार्थ- बिना प्रेम की भक्ति के वर्ष बीत गया तो ऐसी भक्ति से क्या लाभ जैसे बंजर जमीन में बोने से फल नहीं होता चाहे कितना ही मेह बरसे ऐसे ही बिना प्रेम की भक्ति फलदायक नहीं होती।
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥
१८०॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं कि मैंने चन्दन की डाली पर चढ़ बहुत से लोगों को पुकारकर ठीक रास्ता बताया परंतु जो ठीक रास्ते पर नहीं आता वह ना आवे! हमारा क्या लेता है।अर्थात जो व्यक्ति सही रास्ते का अनुसरण नहीं करते है उसमें उनकी हानि है, मेरा कर्तव्य था सही दिशा दिखाना वह मैंने कर दिया है।
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥
१८१॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में या तो परमात्मा जागता है या ईश्वर का भजन करने वाला या पापी जागता है, और कोई नहीं जागता।
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की
खेह ॥ १८२॥
भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि जो साधु पुरुष धन का गठबंधन नहीं करते हैं तथा जो स्त्री से नेह नहीं करते हैं, हम तो ऐसे साधु के चरणों की धूल के समान हैं।
खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥
१८३॥
भावार्थ- जो वीर है वह दो सेनाओं के बीच में भी लड़ता रहेगा। उसे अपने मरने की चिंता नहीं रहती है। वह कभी भी मैदान कायरता से नहीं छोड़ेगा।
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं
विकार ॥ १८४॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं यह संसार सर्प की भांति विषधर है और साधू चन्दन के पेंड जैसा है। जैसे चन्दन के पेंड पर सर्प लिपटे रहते हैं लेकिन चन्दन के पेंड पर उस विश का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है, उसी प्रकार साधुओं पर समाज के विष से कोई विकार उत्पन्न नहीं होता है।
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल
॥ १८५॥
भावार्थ- तेल खाने से घी के दर्शन करना ही उत्तम है। मूर्ख मित्र रखना खराब है तथा बुद्धिमान शत्रु अच्छा है। मूर्ख में ज्ञान न होने के कारण जाने कब धोखा दे दे, परंतु चतुर वैरी हानि पहूँचाएगा उसमें चतुराई अवश्य चमकती होगी।
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच
॥ १८६॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, गाली यानि दुर्वचन से ही कलह, कष्ट और मृत्यु जैसी समस्याएं उत्पन्न हो जाती है, इन दुर्वचनों को सुनकर जो हार मानकर चला जाये वह साधु है, और जो इन गालियों को सुनकर गाली देने लगे वह नीच है।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥
१८७॥
भावार्थ- चलती हुई चक्की को देखकर कबीर रोने लगे कि दोनों पाटों के बीच में आकर कोई भी दाना साबुत नहीं बचा अर्थात इस संसार रूपी चक्की से निकलकर कोई भी प्राणी अभी तक निष्कलंक (पापरहित) नहीं गया है।
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि
॥ १८८॥
भावार्थ- जिस घड़ी साधु का दर्शन हो उसे श्रेष्ठ समझना चाहिए। और रामनाम को रटते हुए अपना जन्म सुधारना चाहिए।
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा
निज देव ॥ १८९॥
भावार्थ- जब तक भक्ति स्वार्थ के लिए है तब तक ईश्वर की भक्ति निष्फल है। इसलिए भक्ति निष्काम करनी चाहिए। कबीर जी कहते हैं कि इच्छारहित भक्ति में भगवान के दर्शन होते हैं।
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है
तिरशूल ॥ १९०॥
भावार्थ- कबीर दास जी कहते हैं, जो तेरे रास्ते में कांटे बोये उसके लिए भी तुम्हें फूल बोना चाहिए। तुझको फूल के फूल ही मिलेंगे और जिसने तेरे रास्ते मे कांटे बोये हैं उसको त्रिशूल की भांति चुभने वाले कांटे मिलेंगे। अर्थात मनुष्य को सबके लिए भला ही करना चाहिए, जो तुम्हारे लिए बुरा करेंगे वह स्वयं अपने दुष्कर्मों का फल पाएंगे।
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन
प्रान ॥ १९१॥
भावार्थ- जिस आदमी के हृदय में प्रेम नहीं है वह श्मशान के सदृश्य भयानक एवं त्याज्य होता है। जिस प्रकार के लुहार की धौंकनी की भरी हुई खाल बगैर प्राण के साँस लेती है उसी प्रकार उस आदमी का कोई महत्व नहीं है।
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर
ढ़ूंढ़त जांहि ॥ १९२॥
भावार्थ- जिस प्रकार नेत्रों के अंदर पुतली रहती है और वह सारे संसार को देख सकती है, किन्तु अपने को नहीं उसी तरह भगवान हृदय में विराजमान है और मूर्ख लोग बाहर ढूँढ़ते फिरते हैं।
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप
॥ १९३॥
भावार्थ- निराकार ब्रह्म का कोई रूप नहीं है वह सर्वत्र व्यापक है न वह विशेष सुंदर ही है और न कुरूप ही है वह अनूठा तत्व पुष्प की गन्ध से पतला है।
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों
बाधक रोग ॥ १९४॥
भावार्थ- जहाँ पर भाव है वहाँ पर आपत्तियां हैं। और जहाँ संशय है वहाँ पर रोग होता है। कबीरदास जी कहते हैं कि ये चारों बलिष्ट रोग कैसे मिटें। अर्थात भगवान के स्मरण करने से नष्ट हो जाते हैं।
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो
म्यान ॥ १९५॥
भावार्थ- कबीरदास कहते हैं कि संतजन (साधु) की जाति मत पूछो, यदि पूछना ही है तो उनके ज्ञान के बारे में पूछ लो। तलवार को खरीदते समय सिर्फ तलवार का ही मोल-भाव करो, उस समय . तलवार रखने के कोष को पड़ा रहने दो। उसका मूल्य नहीं किया जाता।
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन
वोचार ॥ १९६॥
भावार्थ- कबीर कहते हैं कि जब तूने धरती में जहर को बोया हैं तो सागर से अमृत खीचने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला। दुष्ट अपनी दुष्टता कहाँ छोड़ सकता हैं उसमे सोचने विचारने की शक्ति कहाँ होती हैं।
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी
शब्द की छाँय ॥ १९७॥
भावार्थ- कबीर जी कहते हैं कि जिस स्थान पर ग्राहक है वहाँ मैं नहीं हूँ और जहाँ मैं हूँ वहाँ ग्राहक नहीं, यानि मेरी बात को मानने वाले लोग नहीं हैं, बस लोग बिना ज्ञान के भरमाते फिरते हैं।
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ
गोद ॥ १९८॥
भावार्थ- झूठे सुख को सुख माना करते हैं तथा अपने में बड़े प्रसन्न होते हैं, वह नहीं जानते कि मृत्यु के मुख में पड़ कर आधे तो नष्ट हो गए और आधे हैं वह भी और नष्ट हो जाएंगे। भाव यह है कि कबीरदास जी कहते हैं कि मोहादिक सुख को सुख मत मान और मोक्ष प्राप्त करने के लिए भगवान का स्मरण कर। भगवत भजन में ही वास्तविक सुख है।
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे
पास ॥ १९९॥
भावार्थ- परमात्मा का कहना है अगर तू मुक्ति चाहता है तो मेरे सिवाय सब आस छोड़ दे और मुझ जैसा हो जा फिर तुझे कुछ परवाह नहीं रहेगी।
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥
२००॥
भावार्थ- यदि तुम समझते हो कि यह जीव हमारा है तो उसे राम-नाम से भी भर दो क्योंकि यह ऐसा मेहमान हो जो दुबारा मिलना मुश्किल है।
Complete Kabir Dohavali ( 922 Kabir ke Dohe in Hindi) को हमने कई भागों में विभाजित किया है, क्यूंकी सम्पूर्ण कबीर दोहवाली को हिन्दी अर्थ सहित एक पोस्ट में प्रकाशित करना सुविधाजनक नहीं है। इसलिए सभी भागों को पढ़ सकते हैं।