Do Bailon Ki katha - दो बैलों की कथा | मुंशी प्रेमचंद की कहानी सारांश सहित
Do Bailon Ki katha : यह मुंशी प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी है, जिसमें
जानवरों के अंदर भी समझदारी और स्नेह भावना अपने मालिक के प्रति होती है, यह
दर्शाया गया है।
Do Bailon Ki katha - दो बैलों की कथा
जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता हैं। हम जब किसी आदमी को
पल्ले दरजे का बेवकूफ कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ
हैं, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी हैं, इसका
निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास
ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती हैं। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर हैं, लेकिन
कभी-कभी उसे भी क्रोध आ जाता हैं, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना।
जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके
चहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दुखायी देरी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल
कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर एक स्थायी
विषाद स्थायी रूप से छाया रहता हैं। सुख-दुःख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में
बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा
को पहुँच गये है, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता हैं। सद् गुणों का इतना अनादर कहीं
नहीं देखा।
कदाचित् सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं हैं। देखिये न, भारतवासियों की
अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही हैं। क्यों अमरीका में उन्हें घुसने नहीं
दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी
तोड़कर काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा
जाते हैं फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता हैं, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते
हैं। अगर वे ईट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते तो शायद सभ्य कहलाने लगते।
जापान की मिशाल सामने हैं। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य
बना दिया।
लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी हैं, जो उससे कम गधा हैं और वह हैं बैल। जिस
अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में ‘बछिया
के ताउ’ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में
सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं हैं। बैल कभी-कभी मारता भी हैं
और कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता हैं। और भी कई रीतिओं से अपना असंतोष
प्रकट कर देता हैं, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा हैं।
झूरी काछी के दोनो बैलों के बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति
के थे- देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों साथ
रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया। दोनो आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक
दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक-दूसरे के मन की बात कैसे समझ
जाते थे, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमे कोई ऐसी गुप्त शक्ति था, जिससे
जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित हैं। दोनों एक दूसरे को
चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी सींग भी मिला लिया करते थे —
विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे
दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता हैं। इसके बिना दोस्ती कुछ
फुसफसी, कुछ हल्की-सी रहती हैं, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता।
जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिये जाते और गरदन हिला-हिलाकर
चलते, उस वक्त हर एक की यही चेष्ठा होती थी कि ज्यादा से ज्यादा बोझ मेरी ही
गरदन पर रहे। दिनभर के बाद या संध्या को दोनों खुलते तो एक दुसरे को
चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लिया करते। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद
दोनों साथ ही उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मूँह हटा
लेता, तो दूसरा भी हटा लेता।
संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोई को सुसराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम
क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमे बेच दिया। अपना यों बेचा जाना
उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने , पर झूरी के साले गया को घर तक ले जाने
में दाँतों में पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दायें-बायें भागते,
पगहिया पकड़कर आगे से खींचता, तो दोनो पीछे को जोर लगाते। मारते तो दोनों
सींग नीचे करके हुँकारते। अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से
पूछते — तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो ? हमने तो तुम्हारी सेवा करने
में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था और काम ले लेते।
हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत
नही की। तुमने जो कुछ खिलाया, वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर भी तुमने हमें उस
जालिम के हाथ क्यों बेच दिया ?
संध्या समय दोनों बैल अपने नये स्थान पर पहुँचे। दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब
नाँद में लगाये गये, तो एक ने भी उसने मुँह न डाला। दिल-भारी हो रहा था। जिसे
उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव,
नये आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे।
दोनों ने अपनी मूक-भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट
गये। जब गाँव में सोता पड़ गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुड़ा डाले औऱ घर
की तरफ चले। पगहे मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़
सकेगा; पर इन दोनों में इस समय दूना शक्ति आ गयी थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ
टूट गयी।
झूरी प्रातःकाल सोकर उठा, तो देखा दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं। दोनों की
गरदनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा हैं। घुटने तक पाँव कीचड़ से भरे हैं और
दोनों की आँखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा हैं।
झूरी बैलों के देखकर स्नेह से गदगद् हो गया। दौड़कर उन्हे गले लगा लिया।
प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा मनोहर था।
घर और गाँव के लड़के जमा हो गये और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे।
गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा
ने निश्चय किया, दोनों पशू-वीरों को अभिनन्दन पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर
से रोटियाँ लाया, कोई गुड़ , कोई चोकर , कोई भूसी।
एक बालक ने कहा — ऐसे बैल किसी के पास न होंगे। दूसरे ने समर्थन किया — इतनी
दूर से दोनों अकेले चले आये। तीसरा बोला — बैल नही हैं वे, उस जनम के आदमी
हैं। इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस नहीं हुआ।
झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा तो जल उठी। बोली — कैसे नमकहराम
बैल हैं कि एक दिन वहाँ काम न किया, भाग खड़े हुए।
झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका — नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न
दिया होगा, तो क्या करते ?
स्त्री रोब के साथ कहा — बस, तुम्हीं ही तो बैलों को खिलाना जानते हो और तो
सभी पानी पिला-पिलाकर रखते है।
झूरी ने चिढ़ाया — चारा मिलता तो क्यों भागते ?
स्त्री चिढ़ी — भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों के
सहलाते नहीं। खिलाते है तो रगड़कर जोतते भी हैं। ये ठहरे काम-चोर, भाग निकले,
अब देखूँ ? कहाँ से खली और चोकर मिलता हैं। सूखे-भूसे के सिवा कुछ न दूँगी,
खाये चाहे मरे।
वही हुआ। मजूर को बड़ी ताकीद कर दी गयी कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाय।
बैलों ने नाँद मे मुँह डाला, तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्या
खायँ ? आशा भरी आँखों से द्वार की ओर ताकने लगे।
झूरी ने मजूर से कहा — थोड़ी सी खली क्यों नहीं ड़ाल देता बे ? ‘मालकिन मुझे
मार डालेगी।’ ‘चुराकर डाल आ।’ ‘ना दादा, पीछे से तुम ही उन्हीं की-सी कहोगे
।’
दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी बार उसने दोनों को
गाड़ी मे जोता।
दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा; पर हीरा ने सँभाल
लिया। वह ज्यादा सहनशील था।
संध्या-समय घर पुहँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत
का मजा चखाया . फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी
सब कुछ दी।
दोनों बैलो का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता
था। उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे। यहाँ मार पड़ी। आहत-सम्मान की व्यथा
तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा।
दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव उठाने की
कसम खा ली थी। वह मारते मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब
उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डंडे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के
बाहर हो गया। हल लेकर भागा, हल रस्सी, जूआ सब टूट-टाट कर बराबर हो गया। गले
में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होती, तो दोनो पकड़ाई में न आते ।
हीरा ने मूक-भाषा में कहा – भागना व्यर्थ हैं । मोती ने उत्तर दिया —
तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी । ‘अबकी बार बड़ी मार पड़ेगी ।’ ‘पड़ने दो,
बैल का जन्म लिया हैं तो मार से कहाँ तक बचेंगे?’ ‘गया दो आदमियों के साथ
दौड़ा आ रहा हैं। दोनों के हाथ में लाठियाँ हैं ।’ मोती बोला — कहो तो दिखा
दूँ कुछ मजा मैं भी । लाठी लेकर आ रहा हैं । हीरा ने समझाया — नहीं भाई !
खड़े हो जाओ । ‘मुझे मारेगा तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगी ।’ ‘नहीं । हमारी
जाति का यह धर्म नहीं हैं’
मोती दिल में ऐंठकर रह गया । गया आ पहुँचा और दोनो को पकड़कर ले गया । कुशल
हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पड़ता । उसके तेवर देख
कर गया और उसके सहायक समझ गये कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत हैं ।
आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया । दोनों चुपचाप खड़े रहे। धर
के लोग भोजन करने लगे । उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लिये निकली और
दोनों के मुँह में देकर चली गयी । उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शान्त
होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया । यहाँ भी किसी सज्जन का वास
हैं । लड़की भैरो की थी । उसकी माँ मर चुकी थी । सौतेली माँ उसे मारती रहती
थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गयी थी ।
दोनों दिन-भर जोते जाते, डंडे खाते, अड़ते । शाम को थान में बाँध दिये जाते
और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती । प्रेम के इस प्रसाद की
यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते, मगर दोनों
की आँखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था ।
एक दिन मोती ने मुक-भाषा में कहा — अब तो नहीं सहा जाता, हीरा। ‘क्या करना
चाहते हो?’ ‘एकाध को सींगो पर उठाकर फेंक दूँगा।’
‘लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमे रोटियाँ हैं, उसी की लड़की हैं, जो
घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ हो जायगी?’ ‘मालकिन को न फेंक दूँ। वही तो उस
लड़की मारती हैं।’ ‘लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।’
‘तुम तो किसी तरह निकलने नही देते हो। बताओ, तुड़ा कर भाग चले।’ ‘हाँ, यह मैं
स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे ?’ ‘इसका एक उपाय हैं। पहले
रस्सी को थोड़ा सा चबा दो । फिर एक झटके में जाती हैं। ‘
रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गयी, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर
रस्सी मुँह में न आती थी । बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे ।
सहसा घर का द्वार खुला और वही लड़की निकली । दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने
लगे । दोनों की पूँछे खड़ी हों गयी । उसने उनके माथे सहलाये और बोली — खोले
देती हूँ । चुपके से भाग जाओ , नहीं तो यहाँ के लोग मार डालेंगे । आज ही घर
में सलाह हो रही हैं कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जायँ ।
उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खड़े रहे । मोती ने अपनी भाषा में पूछा
— अब चलते क्यों नही। हीरा ने कहा — चलें तो लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आयेगी ।
सब इसी पर संदेह करेंगे । सहसा बालिका चिल्लायी — दोनों फूफावाले बैल भागे जा
रहे हैं । ओ दादा ! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौड़ो ।
गया हड़बड़ाकर बाहर निकला और बैलों को पकड़ने चला । वे दोनों भागे । गया ने
पीछा किया । और भी तेज हुए । गया ने शोर मचाया । फिर गाँव के कुछ आदमियों को
भी साथ लेने के लिए लौटा । दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया । सीधे
दौड़ते चले गये । यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा । जिस परिचित मार्ग से आये
थे, उसका यहाँ पता न था । नये-नये गाँव मिलने लगे । तब दोनों एक खेत के
किनारे खड़े होकर सोचने लगे , अब क्या करना चाहिए ।
हीरा ने कहा — मालूम होता हैं, राह भूल गये । ‘तुम भी तो बेताहाशा भागे ।
वहीं मार गिराना था।’ ‘उसे मार गिराते तो, दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म
छोड़ दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोड़े ?’
दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे । खेत में मटर खड़ी थी । चरने लगे । रह-रहकर
आहट ले लेते थे, कोई आता जाता तो नहीं हैं ।
जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे ।
पहले दोनों ने डकार ली । फिर सींग मिलाये और एक दूसरे को ठेलने लगे । मोती ने
हीरा को कई कदम पीछे हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया । तब उसे भी
क्रोध आया । सभलकर उठा और फिर मोती से मिल गया । मोती ने देखा — खेल में
झगड़ा हुआ चाहता हैं तो किनारे हट गया ।
अरे ! यह क्या ? कौई साँड़ डौकता चला आ रहा हैं । हाँ, साँड ही हैं । वह
सामने आ पहुँचा । दोनो मित्र बगलें झाँक रहे हैं । साँड पूरा हाथी हैं । उससे
भिडना जान से हाथ धोना हैं , लेकिन न भिडने पर भी जान बचती नहीं नजर आती।
इन्हीं की तरफ आ भी रहा हैं । कितनी भयंकर सूरत हैं ।
मोती ने मूक भाषा में कहा — बुरे फँसे । जान बचेगी ? कोई उपाय सोचो।
हीरा मे चिन्तित स्वर में कहा — अपने घमंड में भूला हुआ हैं । आरजू-विनती न
सुनेगा ।
‘भाग क्यों न चले?’
‘भागना कायरता हैं ।’
‘तो फिर यहीं मरो । बन्दा तो नौ-दो-ग्यारह होता हैं ।’
‘और जो दौड़ाये ?’
‘तो फिर कोई उपाय सोचो जल्द ।’
‘उपाय यही हैं कि उस पर दोनो जने एक साथ चोट करे ? मै आगे से रगेदता हूँ तुम
पीछे से रगेदो , दोहरी मार पड़ेगी तो भाग खड़ा होगा । मेरी ओर झपटे, तुम बगल
से उसके पेट में सींग घुसेड देना । जान जोशिम हैं , पर दूसरा उपाय नहीं है ।’
दोनों मित्र जान हथेली पर लेकर लपके । साँड को भी संगठित शत्रुओ से लडने का
तजरबा न था । वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था । ज्योही हीरा पर
झपटा , मोती ने पीछे से दौड़ाया । साँड उसकी तरउ मुडा, तो हीरा ने रगेदा ।
साँड चाहता थि कि एक एक करके दोनो को गिरा ले, पर ये दोनो भी उस्ताद थे । उसे
अवसर न देते थे । एक बार साँड झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने ले लिए चला कि
मोती ने बगल से आकर पेट मे सींग भोक दी । साँड क्रोध मे आकर पीछे फिरा तो
हीरा ने दूसरे पहलू में सींग चुभा दिया । आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा और
दोनो मित्रो ने दूर तक उसका पीछा किया । यहाँ तक की साँड बेदम होकर गिर पड़ा
। तब दोनो ने उसे छोड़ दिया ।
दोनो मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे ।
मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा मे कहा — मेरा जी तो चाहता था कि बच्चा को मार ही
डालूँ ।
हीरा ने तिरस्कार किया — गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिये ।
‘यह सब ढोग हैं । बैरी को ऐसा मारना चाहिये कि फिर न उठे ।’
‘अब घर कैसे पहुँचेंगे , वह सोचो ।’
‘पहले कुछ खा ले, तो सोचे ।’
सामने मटर का खेत था ही । मोती उसमे घुस गया । हीरा मना करता रहा, पर उसने एक
न सुनी । अभी चार ही ग्रास खाये थे दो आदमी लाठियाँ लिये दौड़ पडे , और दोनो
मित्रो के घेर लिया । हीरा तो मेड पर था , निकल गया । मोती सीचे हुए खेत मे
था । उसके खुर कीचड़ मे धँसने लगे । न भाग सका । पकड़ लिया । हीरा ने देखा ,
संगी संकट मे हैं , तो लौट पड़ा फँसेगे तो दोनो फँसेगे । रखवालो ने उसे भी
पकड़ लिया ।
प्रातःकाल दोनो काँजीहौस में बन्द कर दिये गये।
दोनो मित्रो को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पड़ा कि सारा दिन बीत गया और
खाने को एक तिनका भी न मिला । समझ ही में न आता था , यह कैसा स्वामी हैं ।
इससे तो गया फिर भी अच्छा था । यहाँ कई भैसे थी, बकरियाँ , कई घोड़े, कई गधे;
पर किसी से सामने चारा न था , सब जमीन पर मुरदो की तरह पड़े थे । कई तो इतने
कमजार हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे । सारा दिन दोनो मित्र फाटक की ओर
टकटकी लगाये ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर न आता न दिखायी दिया । तब दोनो ने
दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरु की, पर इससे क्या तृप्ति होती ?
रात को भी जब कुछ भोजन न मिला तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी।
मोती से बोला — अब तो नही रहा जाता मोती !
मोती ने सिर लटकाये हुए जवाब दिया — मुझे तो मालूम होतो हैं प्राण निकल रहे
हैं ।
‘इतनी जल्दी हिम्मत न हारो भाई ! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकलना चाहिये ।’
‘आओ दीवार तोड डालें।’
‘मुझसे तो अब कुछ नही होगा ।’
‘बस इसी बूते अकड़ते थे !’
‘सारी अकड़ निकल गयी।’
बाडे की दीवार कच्ची थी । हीरा मजबूत तो था ही , अपने नुकीले सींग दीवार में
गड़ा दिये और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड निकल आया । फिर तो उसका साहस
बढा । इसने दौड-दौडकर दीवार पर कई चोटे की और हर चोट मे थोडी थोड़ी मिट्टी
गिराने लगा।
उसी समय काँजीहौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरो की हाजिरी लेने आ निकला ।
हीरा का उजड्डपन देखकर उसने उसे कई डंडे रसीद किये और मोटी सी रस्सी से बाँध
दिया ।
मोती ने पड़े पड़े कहा — आखिर मार खायी, क्या मिला ?
‘अपने बूते भर जोर तो मार दिया।’
‘ऐसा जोर मारना किस काम का कि औप बंधन मे पड़ गये ।’
‘जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने वंधन पड़ जाये ।’
‘जान से हाथ धोना पड़ेगा ।’
‘कुछ परवाह नहीं । यो भी तो मरना ही हैं । सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी
जाने बच जाती । इतने भाई यहाँ बन्द हैं । किसी के देह में जान नहीं हैं । दो
चार दिन और यही हाल रहा तो सब मर जायेगे ।’
‘हाँ, यह बात तो हैं। अच्छा, तो लो, फिर में भी जोर लगाता हूँ ।’
मोती ने भी दीवार मे उसी जगह सींग मारा । थोडी सी मिट्टी गिरी और हिम्मत बढी
। फिर तो दीवार में सींग लगा कर इस तरह जोर करने लगा , मानो किसी
प्रतिद्वन्द्वी से लड रहा हैं । आखिर कोई दो घंटे की जोर आजमाई के बाद ,
दीवार का ऊपर से एक हाथ गि गयी । उसने दूनी शक्ति से दूसरा घक्का मारा, तो
आधी दीवार गिर गयी ।
दीवार का गिरना था कि अधमरे से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे । तीनो घोड़ियाँ
सरपट भाग निकली । फिर बकरियाँ निकली । उसके बाद भैंसे भी खिसक गयी ; पर गधे
अभी तक ज्यो के त्या खड़े थे ।
हीरा ने पूछा — तुम दोनो भाग क्यो नहीं जाते ?
एक गधे ने कहा — जो कही फिर पकड़ लिये जायँ ।
‘तो क्या हरज हैं । अभी तो भागने का अवसर हैं ।’
‘हमे तो डर लगता हैं। हम यही पड़े रहेंगे।’
आधी रात से ऊपर जा चुकी थी । दोनो गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे कि भागे या न
भागे , और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने मे लगा हुआ था । जब वह हार गया तो
हीरा ने कहा — तुम जाओ, मुझे यहीं पड़ा रहने दो । शायद कहीम भेट हो जाये ।
मोती ने आँखो मे आँसू लाकर कहा — सुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हैं हीरा । हम
और तुम इतने दिनो एक साथ रहे हैं । आज तुम विपत्ति मे पड़ गये तो मैं तुम्हें
छोडकर अलग हो जाऊँ ।
हीरा ने कहा — बहुत मार पड़ेगी। लोग समझ जायेगे, यह तुम्हारी शरारत हैं।
मोती गर्व से बोला — जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बन्धन पड़ा, उसके लिए
अगर मुझ पर मार पड़े तो क्या चिन्ता। इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियो की
जान बच गयी। वे सब तो आशीर्वाद देगे।
यह कहते हुए मोती ने दोनो गधों को सींगो से मार मारकर बाड़े के बाहर निकाला
और तब बन्धु के पास आकर सो रहा।
भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची ,
इसके लिखने की जरुरत नही । बस, इतना ही काफी हैं कि मोती की खूब मरम्मत हुई
और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया गया ।
एक सप्ताह तक दोनो मित्र वहाँ बँधे रहे । किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला ।
हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था । यहीं उनका आधार था । दोनों इतने दुबले
हो गये थे कि उठा तक न जाता था ; ठठरियाँ निकल आयी थी ।
एक दिन बाडे के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते होते वहाँ पचास-साठ आदमी
जमा हो गये । तब दोनो मित्र निकाले गये और उनकी देख भाल होने लगी । लोग आ आकर
उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते । ऐसे मृतक बैलो का कौन खरीदार
होता ?
सहसा एक दढियल आदमी, जिसकी आँखे लाल थी और मुद्रा अत्यन्त कठोर , आया और दोनो
मित्रो के कूल्हों में उँगली गोदकर मुंशीजी से बात करने लगा । उसका चेहरा
देखकर अन्तर्ज्ञान सं दोनो मित्रों के दिल काँप उठे । वह कौन है और उन्हें
क्यो टटोल रहा हैं, इस विषय में उन्हें कोई सन्देह न हुआ । दोनो ने एक दूसरे
को भीत नेत्रों स देखा और सिर झुका लिया ।
हीरा ने कहा — गया के घर से नाहक भागे । अब जान न बचेगी ।
मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया — कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते
हैं । उन्हें हमारे ऊपर क्यो दया नही आती?
‘भगवान् के लिए हमारा मरना-जीना दोनो बराबर हैं । चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन
उसके पास तो रहेंगे । एक बार भगवान् ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था
क्या अब न बचायेंगे ।’
‘यह आदमी छुरी चलायेगा । देख लेना ।’
‘तो क्या चिन्ता हैं? माँस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी न किसी काम आ जायेंगी।’
नीलाम हो जाने के बाद दोनो मित्र दढियल के साथ चले । दोनो की बोटी-बोटी काँप
रही थी । बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे , पर भय के मारे गिरते-पड़ते भागे
जाते थे ; क्योकि बह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डंडा जमा देता था ।
राह में गाय-बैलो का एक रेवड हरे-हरे हार मे चरता नजर आया । सभी जानवर
प्रसन्न थे , चिकने , चपल । कोई उछलतास कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था ।
कितना सुखी जीवन था इनका; पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि
उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी है ।
यहसा दोनो को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह हैं । हाँ, इसी रास्ते से गया
उन्हे ले गया था । वही खेत, वही बाग, वही गाँव मिलने लगे । सारी थकान, सारी
दुर्बलता गायब हो गयी । आह ? यह लो ! अपना ही हार आ गया । इसी कुएँ पर हम पुर
चलाने आया करते थे ; यही कुआँ हैं ।
मोती ने कहा — हमारा घर नगीच आ गया ।
हीरा बोला — भगवान् की दया हैं ।
‘मै तो अब घर भागता हूँ ।’
‘यह जाने देगा ?’
‘इसे मार गिराता हूँ ।’
‘नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से आगे न जायेंगे ।’
दोनो उन्मत होकर बछड़ो की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े ।
वह हमारा थान हैं। दोनो दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये। दढियल भी
पीछे पीछे दौड़ा चला आता था।
धूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौडा और उन्हें
बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे ।
एक झूरी के हाथ चाट रहा था ।
दढियल ने जाकर बैलो की रस्सी पकड़ ली ।
झूरी ने कहा — मेरे बैल हैं ।
‘तुम्हारे बैल कैसे ? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिये आता हूँ ।’
‘मैं समझता हूँ कि चुराये लिये आते हो ! चुपके से चले जाओ । मेरे बैल हैे ।
मैं बेचूँगा तो बिकेंगे । किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार हैं
?’
‘जाकर थाने मे रपट कर दूँगा ।’
‘मेरे बैल हैं। इसका सबूत हैं कि मेरे द्वार पर खड़े हैं ।’
दढियल झल्लाकर बैलो को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढा । उसी वक्त मोती ने
सींग चलाया । दढियल पीछे हटा । मोती ने पीछा किया । दढियल भागा। मोती पीछे
दौड़ा । गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका ; पर खड़ा दढियल का रास्ता देख
रहा था । दढियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था , पत्थर
फेंक रहा था । और मोती विजयी शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खड़ा था । गाँव
के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे ।
जब दढियल हारकर चला गया , तो मोती अकड़ता हुआ लौटा ।
हीरा मे कहा — मैं डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से मे आकर मार न बैठो ।
‘अगर वह मुझे पकड़ता , तो बे-मारे न छोड़ता ।’
‘अब न आयेगा ।’
‘आयेगा तो दूर ही से खबर लूँगा । देखूँ कैसे ले जाता हैं ।’
‘जो गोली मरवा दे ?’
‘मर जाऊँगा ; पर उसके काम तो न आऊँगा ।’
‘हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता ।’
‘इसीलिए कि हम इतने सीधे हैं ।’
जरा देर मे नादों में खली , भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनो मित्र
खाने लगे । झूरी खड़ा दोनो को सहला रहा था और बीसो लड़के तमाशा देख रहे थे ।
सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था ।
उसी समय मालकिन ने आकर दोनो के माथे चूम लिये।
दो बैलों की कथा का सारांश
Do bailon ki katha Summary in Hindi- NCERT Pattern Class 9 की किताब 'हिन्दी
क्षितिज' का First Chapter मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी "दो बैलों की कथा"
है।
दो बैलों की कथा का सारांश (Do bailon ki katha ka Saransh)-
मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'दो बैलों की कथा' हीरा और मोती नाम के दो बैलों के अपने
स्वामी के प्रति स्नेह और लगाव को दर्शाती है। ये दोनों झुरी नाम के व्यक्ति के
संरक्षण में रहते हैं, और उसका काम करते हैं। एक दिन झुरी का साला गया, किसी काम
के लिए दोनों बैलों को अपने साथ ले जाता है।
बैलों के मन में ये बात घर कर जाती है कि झुरी ने उन्हे गया के हाथ बेंच दिया है,
जब बैल गया के घर पहुँचते हैं और वह उन्हे बांधकर रात को आराम करने चला जाता है,
तब ये बैल रस्सी तोड़कर पुनः झुरी के पास ही पहुँच जाते हैं। इस पर झुरी तो
प्रसन्न था कि हीरा और मोती उससे कितना स्नेह करते हैं, लेकिन उसकी पत्नी उन्हे
कामचोर कहकर बहुत गुस्सा होती है। दोबारा गया आकर बैल पुनः ले जाता है, और जुताई
करते समय क्रोध से बैलों कि बहुत पिटाई करता है। पुनः रात मे गया की बेटी बैलों
को रोटी खिलाकर आजाद कर देती है,
बैल रास्ता भटक जाते हैं, रास्ते में एक मटर के खेत में भूख शांत करने के लिए
चरने लगते हैं। वहाँ से लोग पकड़ कर उन्हे कांजीहौस मे बंद कर देते हैं। और उसके
बाद उनकी नीलामी मवेशी बाजार में कर दी जाती है, उन्हे एक दढ़ियल खरीदता है, बिना
चारा पानी के उनकी हालत बहुत खराब हो जाती है। उनके शरीर में दुर्बलता आ जाती है।
तभी उन्हे रास्ता कुछ जाना पहचाना लगता है, और वह झुरी के घर की तरफ भागने लगते
हैं।
झुरी उन्हे देखकर बहुत खुश होता है, और उसकी पत्नी भी बहुत खुश होती है। तभी
दढ़ियल कहता है कि यह बैल उसने नीलामी में खरीदे हैं, झूरी और दढ़ियल के बीच बहस
होती है कि बैल किसके हैं। तभी मोती दढ़ियल को मारने दौड़ता है, दढ़ियल को वह गाँव
के बाहर तक भगाता है। अंत में वह दोनों झुरी के पास ही रह जाते हैं।
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