रुपये की आत्मकथा पर निबंध
रुपये की आत्मकथा पर निबंध
संकेत बिंदु- (1) समस्त कार्य-व्यवहार (2) रुपये के जन्म के विषय पर जिज्ञासा (3) टकसाल में रुपये के रूप में जन्म (4) रुपये के रूप में अनेक उपयोग (5) जीवन भर एक जगह से दूसरी जगह यात्रा।
समस्त कार्य-व्यवहार
एक दिन विद्यालय में मैंने अपना शुल्क दिया तो अध्यापक ने मुझे एक रुपये के नोट स्थान पर रुपये का सिक्का दे दिया। वह मैंने अपनी कमीज की जेब में रख लिया। रात्रि को सोने से पहले जब मैं कमीज उतारते लगा तो वह रुपया जेब में से निकल फर्श पर गिरा। 'खन्न्' की आवाज हुई। मैंने उठा कर वह रुपया फिर जेब में रख लिया और सोचने लगा कि यह रुपया भी अजीब चीज है, जिसके द्वारा लोगों के समस्त कार्य-व्यवहार हो रहे हैं। व्यापार में तो रुपये के बिना कुछ हो ही नहीं सकता, अन्य कार्य भी इसी की सहायता से होते हैं। मुझे ध्यान आया कि आज फीस के रूप में भी कई विद्यार्थियों ने रुपए ही दिए थे। इसका रंग रूप भी तो कितना चमकीला और गोल है! कितना चमकीला है! और आवाज ? मेरे कानों में वही 'खन्न्' का शब्द गूंजने लगा, जो उसके गिरने से हुआ था।
रुपये के जन्म के विषय पर जिज्ञासा
यह रुपया बना कैसे होगा? यह प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उभरा। मैंने सोचने समझने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया। रुपया कैसे बना, किसने बनाया, कैसे यह मुझ तक पहुंचा, इन्हीं बातों पर सोचता-सोचता मैं निद्रा की गोद में पहुँच गया। थोड़ी देर बाद मैं स्वप्न में क्या देखता हूँ कि रुपया मनुष्य की वाणी में अपनी आत्म-कथा कर रहा है।
वह बोला- भोले बालक! तू मेरे विषय में जानना चाहता था तो ले सुन। तुझे मालूम होना चाहिए कि मेरी माता पृथ्वी है। मैं अपनी माता के गर्भ में चाँदी के रूप में आराम से पड़ा था कि एक दिन ऊपर से खटखट की आवाज आई। मैं चौंक पड़ा। थोड़ी देर में देखता क्या हूँ कि कोई मुझे खींचकर बाहर ले आया और माता से मेरा सदा के लिए सम्बन्ध विच्छेद कर दिया। मैं माता से बिछुड़ने पर दुःखी था, किन्तु वह खुश था, और कह रहा था कि अहा! चाँदी मिल गई। वास्तव में मुझमें अनेक धातुएँ मिली हुई थीं। मुझे उस समय पता लगा कि मेरा शरीर चाँदी का है। बाहर निकालकर मुझे अन्य साथियों सहित टकसाल में पहुँचाया गया।
टकसाल में रुपये के रूप में जन्म
इस टकसाल की चहल-पहल देखकर मुझे कुछ नवीन वातावरण का अनुभव हुआ, किन्तु जल्दी ही मुझे पता चल गया कि हम नरक-कुण्ड में आकर गिर पड़े हैं। वहाँ मुझे धधकती हुई भट्टी में डालकर खूब गर्म किया गया और उसके बाद बड़े-बड़े हथौड़ों से पीटा गया। कितनी ही चोटें पड़ने से मेरे ऊपर की मैल उतर गई और मैं साफ हो गया। मेरा रूप श्वेत चाँदनी की तरह चमक रहा था।
मैं तो समझा था कि अब मेरे दुखों का अन्त हो गया और अब मैं चैन से जीवन बिता सकूँगा। मुझे जरा भी ज्ञात नहीं था कि आगे इससे भी अधिक दुखों का सामना करना पड़ेगा। एक दिन सहसा मुझे बड़े-बड़े टुकड़ों के रूप में कड़ाहे में डालकर भट्टी के ऊपर रख दिया गया। अग्नि का ताप बढ़ता गया। असह्य वेदना होने लगी। आखिर भट्टी का ताप इतना बढ़ा कि मेरा ठोस रूप पिघलने लगा और कड़ाहा तरल पदार्थ से भर गया। वेदना की अत्यधिकता से मैं बेहोश हो गया। मुझे ज्ञात नहीं कि उसके बाद क्या हुआ? जब मुझे होश आया तो मैंने अपने आपको वर्तमान गोलाकार रूप में पाया। मेरे साथ मेरे जैसे हजारों साथी थे। मेरे एक ओर भारत सरकार का राजकीय चिह्न तीन सिहों की मूर्ति अंकित थी और दूसरी ओर मध्य में अनाज की बाली एवं गोलाई में अंग्रेजी व हिन्दी में एक रुपया लिखा था। साथ ही मेरा जन्म-सन् भी अंकित था। अब मुझे ज्ञात हुआ कि मेरा नाम 'रुपया' रखा गया है। मैं अपने नए रूप पर स्वयं ही मुग्ध था।
रुपये के रूप में अनेक उपयोग
कुछ समय पश्चात् हजारों साथियों सहित बक्सों में भरकर मुझे बैंक भेज दिया गया। वहाँ एक सज्जन आए और उन्होंने खजांची को 100 का नोट देकर चाँदी के रुपए मांगे। खजांची ने मुझे अन्य 11 साथियों सहित उनके हवाले कर दिया। उन व्यक्ति ने हमें ले जाकर एक संदूक में बन्द कर दिया। अगले दिन प्रात:काल हमें एक सुन्दर थाल में रख दिया गया। हम अपनी इस शोभा पर क्यों न मुस्कराते? थोड़ी ही देर में हमारे इस मालिक ने हमसे बिना पूछे वह थाल अपनी सुपुत्री के मंगेतर के हाथ में रख दिया। वह हमें प्राप्त कर बड़ा खुश हुआ। हम समझ गए कि हमारी यात्रा किसी को 'शगुन' देने से शुरू हुई है। हमने अपने को बड़ा भाग्यशाली समझा कि दो प्राणियों को मिलाने में हमें माध्यम बनाया गया है।
जीवन भर एक जगह से दूसरी जगह यात्रा
यह आदमी कोई निम्न मध्यवर्ग का मालूम पड़ता था। इसने हमें घर में ले जाकर रख दिया। एक दिन उस घर में भीड़ इकट्ठी हुई। बड़ी खुशी का वातावरण नजर आ रहा था। हमारे नए मालिक स्वयं पूजा स्थल पर बैठे थे और हम सब साथी उनके पिता की जेब में छिपे हुए थे। उसी समय पण्डित जी ने कहा कि 'सवा रुपया गणेश जी के सम्मुख रख दो। बस, फिर क्या था! उसके पिता ने झट मुझे मेरे साथियों से अलग करके पूजा की थाली में गणेश जी के पास रख दिया। पूजा-समाप्ति के अनन्तर ब्राह्मण ने वहाँ से उठाकर मुझे अपनी जेब के हवाले किया। बाद में ब्राह्मण महोदय मुझे एक बनिए के पास ले गए। उसने मुझे उठाया और पेटी में डाल दिया। यहाँ मेरे बहुत से साथी पहले ही विश्राम कर रहे थे। समझा तो यह था कि यहाँ कुछ दिन विश्राम करूँगा, किन्तु वह मेरी भूल थी। थोड़ी ही देर बाद उसने अपने लड़के की फीस में मुझे शिक्षक महोदय को दे दिया। इस प्रकार मैं एक हाथ से दूसरे हाथ और दूसरे हाथ से तीसरे हाथ में चलता गया। मैंने बहुत दूर-दूर की यात्रा की।
इन सब यात्राओं का आनन्द लेते-लेते और मार्ग की कठिनाइयों को सहते-सहते एक दिन मैं तुम्हारे अध्यापक के हाथ आ पड़ा। वे मुझे अपनी जेब में रखकर खुश नहीं थे। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, मेरे कारण जेब भारी हो जाती है और लोग इतने नाजुक बदन हो गए हैं कि अब मेरा बोझ सहन करने में असमर्थ हैं। अत: उन्होंने झट तुम्हें देकर अपनी जान छुड़ाई। अब मैं तुम्हारी जेब में पड़ा हूँ। चाहे तो मुझसे प्यार करो, चाहे ठुकरा दो।