मेरी पहली रेलयात्रा पर निबंध | Meri Pehli Rail Yatra Essay in Hindi
Meri Pehli Rail Yatra Essay in Hindi: भारत के परिवहन में रेल एक महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। भारत में रेलवे लगभग हर शहर को आपस में जोड़ कर रखता है। इसलिए विभिन्न परीक्षाओं में रेल यात्रा से संबन्धित कुछ निबंध लिखने के लिए भी आते हैं, उनमे से प्रथम रेल यात्रा का वृतांत एक प्रमुख निबंध है। (Essay on My First Train Trip in Hindi )
मेरी पहली रेलयात्रा पर निबंध हिन्दी में
संकेत बिंदु- (1) रेलयात्रा की जिज्ञासा (2) रेलवे स्टेशन का दृश्य (3) यात्रा प्रारम्भ (4) रेल के अंदर के रोचक प्रसंग (5) रोचक और ज्ञानवर्धक यात्रा का अंत।
रेलयात्रा की जिज्ञासा
मेरी चौदह वर्ष की अवस्था हो गई थी, किन्तु अब तक मुझे कभी दिल्ली से बाहर किसी और शहर में जाने का अवसर नहीं मिला था। इसलिए मैं अब तक रेलयात्रा नहीं कर सका था। कुछ दिन पहले मैं अपने साथियों के साथ बालभवन देखने गया था। वहाँ छोटी-सी रेलगाड़ी को देखकर और उसमें बैठकर सैर करके मुझे बहुत आनन्द आया। मैं सोचने लगा कि असली रेलगाड़ी में यात्रा करते हुए अधिक आनन्द आएगा। मेरे मन में रेलयात्रा की इच्छा बढ़ती ही रही।
कुछ ही दिनों बाद एक ऐसा अवसर आ गया, जिससे मुझे रेलयात्रा का सु-अवसर मिल गया। मेरे पिताजी के घनिष्ठ मित्र श्री यशपाल ने अम्बाला छावनी से सूचना दी कि उनकी पुत्री का विवाह है। इस अवसर पर मेरे पिताजी का वहाँ जाना अनिवार्य था। जब वे अम्बाला जाने का कार्यक्रम बनाने लगे, तो मेरी रेलयात्रा की इच्छा जागृत हो उठी। मैंने पिता जी से कहा, 'मैं भी जाऊँगा, बहिनजी की शादी में।' पहले तो उन्होंने मुझे डाँटा, किन्तु मैं जाने की रट लगाता रहा। बाल-हठ के आगे भगवान् भी झुक जाते हैं। आखिर पिताजी भी मुझे साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए।
रेलवे स्टेशन का दृश्य
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से बारह बजकर दस मिनट पर 'फ्लाइंग मेल' चलती है। हम पौने बारह बजे ही स्टेशन पहुंच गए थे। पिताजी ने टिकट घर से टिकट लिए और गाड़ी की ओर चल दिए। गाड़ी के विशाल विस्तृत चबूतरे को देखकर जिज्ञासा प्रकट की तो पिताजी ने समझाया- यह विशालकाय लौहपथ गामिनी के ठहरने, विश्राम करने, दाना पानी लेने तथा अपने भार को हलका करने और नया भार लेने के लिए निश्चित स्थान है। गाड़ी पर यात्रियों के चढ़ने और उतरने के लिए यह चबूतरा या मंच है। इसे रेलवे की भाषा में 'प्लेटफार्म' कहते हैं।
यात्रियों की सुविधा के लिए प्लेटफार्म पर सार्वजनिक नल होता है, क्षुधाशान्ति के लिए जलपान की रेहड़ियाँ होती हैं। ज्ञानवर्धन और मानसिक भूख मिटाने के लिए बुकस्टाल होता है। इसके अतिरिक्त एक-दो रेहड़ियाँ बच्चों के खेल-खिलौनों या स्थान विशेष की प्रसिद्ध वस्तुओं की भी होती हैं।
यात्रा प्रारम्भ
गाड़ी में भीड़ बहुत थी। जब हम किसी डिब्बे में चढ़ने की कोशिश करते तो अन्दर बैठे यात्री हमारे साथ सहानुभूति दिखाते हुए कहते, 'आगे डिब्बे खाली पड़े हैं।' आगे गए तो वही हाल। तब मुझे पता लगा कि यह सहानुभूति नहीं, प्रवंचना थी।
आखिर हम एक डिब्बे में घुस गए। अन्दर विचित्र दृश्य था। पाँच-सात लोग खड़े थे और इधर-उधर झाँककर बैठने की जगह ढूँढ़ रहे थे। उधर दो-तीन लोग पैर पसारे पड़े थे। एक सज्जन ने सीट पर अपना बिस्तर रखा हुआ था। जो भी उनसे पूछता कहते, सवारी आने वाली है। इधर इंजन ने सीटी बजाई और उधर गार्ड ने भी सीटी बजाकर तथा हरी झंडी दिखाकर गाड़ी को चलने की स्वीकृति दे दी।
गाड़ी मन्दगति से चली जा रही थी। पाँच-सात मिनट पश्चात् सब्जी मण्डी का स्टेशन आया। गाड़ी थोड़ी देर रुकी और बीस-तीस यात्री चढ़े-उतरे। पुनः सीटी बजी और गाड़ी चल दी। सब्जी मण्डी स्टेशन छोड़ने के पश्चात् गाड़ी ने जो गति पकड़ी, उसका अनुमान लगाना मेरे लिए मुश्किल है। हाँ, इतना जरूर पता है कि वह छोटे-बड़े स्टेशन छोड़ती फकाफक चली जा रही थी। छोटे स्टेशन पर ठहरती नहीं, नरेला, समालखा जैसी मण्डियों की सुनती नहीं। अपनी धुन में मस्त चली जा रही थी।
रेल के अंदर के रोचक प्रसंग
यात्रियों की चर्चा में बाधा डालने वाले भी डिब्बे में आते रहते हैं। कोई आँखें अंधी होने की दुहाई देता है तो कोई अपने अंगहीन होने की दर्दनाक कहानी सुनाकर पैसे माँगता है। बैठे हुए यात्री भूख न महसूस करें, अतः विभिन्न प्रकार की खाने की चीजें बेचने वाले आते हैं। कोई दाल-सेवियाँ बेच रहा है, तो कोई मूंगफली। कई लोग अपने सुरमे तथा दंत-मंजन को 'विश्वविख्यात' की उपाधि से विभूषित कर यात्रियों की आँखों में धूल झोंकने की चेष्टा करते हैं।
पानीपत और करनाल के रास्ते में इन सब माँगने और बेचने वालों से अलग सफेद कपड़े पहने और टोप ओढ़े एक आदमी को हमने अपने डिब्बे में आते देखा। यह भी अजीब आदमी है। वह हर व्यक्ति से टिकट माँगता है। टिकट देखकर उसे अपनी मशीन से 'पंच' कर देता है। पिताजी ने समझाया यह 'टिकट चैकर' है। बिना टिकट सफर करने वालों को पकड़ना और उनसे जुर्माना वसूल करना, इसका काम है।
फ्लाइंग मेल पानीपत, करनाल और कुरुक्षेत्र पर रुकी। शेष स्टेशन छोड़ चली। करनाल जाकर पिताजी और मैं प्लेटफार्म पर उतरे। बड़ा शोरगुल था। कोई 'गर्म चाय' की आवाज लगा रहा था, तो कोई रोटी-छोले की। गाड़ी को पाँच मिनट रुकना है, अत: यात्री भी चाय पीने, पूरी खाने और सिगरेट पीने में लगे हुए हैं। हमने भी जल्दी-जल्दी चाय पी और बिस्कुट खाए। उधर गाड़ी ने सीटी दी और हम भागकर गाड़ी में चढ़ गए।
भगवान् कृष्ण की उपदेश-भूमि कुरुक्षेत्र के बाहर से दर्शन कर अपने को कृतार्थ समझा। घण्टे भर की यात्रा के बाद अम्बाला छावनी का स्टेशन आ गया। गाड़ी की गति मन्द हुई। लोगों ने अपने बिस्तर सम्भाले। हमने भी अपनी अटैची सम्भाली। झटके के साथ गाड़ी रुकी।
कुली गाड़ी की ओर झपट रहे थे। चाय, दूध, रोटी-छोले की वही आवाजें कानों में गूंज रही थीं और हम गाड़ी से उतरकर धीरे-धीरे प्लेटफार्म पर चल रहे थे। मार्ग में ही एक व्यक्ति पिताजी से गले मिला। दोनों बड़े प्रसन्न हो रहे थे। पिताजी उसे बधाइयाँ दे रहे थे। मैं समझ गया कि यही मेरे पिताजी के मित्र श्री यशपाल हैं। मैंने उनका चरणस्पर्श किया। उन्होंने मुझे प्यार से थपथपाया।
रोचक और ज्ञानवर्धक यात्रा का अंत
यही है मेरी पहली रेलयात्रा, रोचक भी और ज्ञानवर्धक भी।