पारिवारिक जीवन पर निबंध

पारिवारिक जीवन पर निबंध

संकेत बिंदु- (1) पारिवारिक जीवन का अर्थ (2) नारी, पारिवारिक जीवन का आधार (3) परिवार में मर्यादाओं, कर्तव्यों और अनुशासन का महत्त्व (4) पारिवारिक संबंधों में ह्रास (5) उपसंहार।

पारिवारिक जीवन का अर्थ

एक घर में और विशेषत: एक कर्ता के अधीन या संरक्षण में रहने वाले लोगों का जीवन पारिवारिक जीवन है। परिवार मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति द्वारा स्थापित महत्त्वपूर्ण संस्था है।

शतपथ ब्राह्मण की धारणा है कि मनुष्य जन्मतः तीन ऋणों का ऋणी होता है। ये ऋण हैं-पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण तथा देव ऋण। पितृ ऋण का अर्थ है परिवार को सन्तानोत्पत्ति द्वारा आगे बढ़ाना। यह तभी सम्भव है जब मनुष्य पारिवारिक जीवन जीए।

नारी, पारिवारिक जीवन का आधार

पारिवारिक जीवन का मूल आधार बनी नारी। कारण 'न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृह मुच्यते।' (महाभारत, शांतिपर्व 14416) अर्थात् गृह-गृह नहीं है, अपितु गृहिणी गृह होता है। साथ ही यह भी निर्देश दिए गए 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' (मनुस्मृति 3/ 56) अर्थात् पारिवारिक जीवन में जब तक नारी का सम्मान रहेगा, वहाँ देवता निवास करेंगे अर्थात् सुख, शांति तथा समृद्धि की त्रिवेणी बहेगी।

परिणाम सुखद हुआ। नारी पुरुष के पौरुष, उत्साह और कर्म के भरोसे सुकुमार सौन्दर्य की प्रतिभा बनकर उसे रिझाने लगी और दुःखमय विषम स्थिति में संकटों का सहारा बनी। पुरुष अपने पौरुष से सम्पत्ति-निर्माण, उत्साह से प्रेरित होकर कर्म से पारिवारिक जीवन यापन करने लगा।

परिवार-जीवन भारतीय समाज की आधार शिला बना। पिता, पुत्र और पुत्री बनकर ही व्यक्ति अपना अस्तित्व प्रकट कर पाया। उसका विशुद्ध निजीपन कुछ नहीं रहा। परिवार के भूत, वर्तमान और भविष्य, इन तीन आयामों में उसका अस्तित्व देखा जाने लगा। व्यक्ति का यश-अपयश परिवार के दृष्टिकोण से आंका जाने लगा। 

परिवार में मर्यादाओं, कर्तव्यों और अनुशासन का महत्त्व

जैनेन्द्र जी पारिवारिक जीवन सामरस्यता के बारे में लिखते हैं- 'परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परम्परा में कुछ जनों की इकाई एक हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज्जत खानदान की होती है। हर एक उसमें लाभ लेता है और अपना त्याग देता है।' (इतस्ततः, पृष्ठ 158)।

पाश्चात्य सभ्यता के दुष्प्रभाव के कारण व्यक्ति में अहम् का भाव बढ़ गया। इस अहम् ने पारिवारिक जीवन को भी प्रभावित किया। माता-पिता पुराने जीवन के दकियानूसी बन गए। छोटी-छोटी बातों पर भाई-भाई में, देवरानी-जेठानी में, सास-बहू में, ननद-भाभी में असन्तोष बढ़ने लगा। असन्तोष में गृह-कलह का रूप लिया। सामूहिक परिवार नरक बनने लगे। नरक-कुण्ड से छुटकारे का एक उपाय था- संयुक्त परिवार का बिखराव।

अतः पारिवारिक जीवन एक पुरुष के परिवार में सीमित हो गया। पुरुष अपनी पत्नी और बच्चों में ही सुख का जीवन भोगने लगा। आनन्द का अनुभव करने लगा। सन्तुष्टि की सीमा समझने लगा।

पारिवारिक संबंधों में ह्रास

पारिवारिक संबंधों को ह्रास का कारण डॉ. गोपाल जी मिश्र औद्योगीकरण तथा नगरीकरण को भी मानते हुए लिखते हैं- 'समाज में ज्यों-ज्यों औद्योगीकरण एवं नगरीकरण बढ़ता जा रहा है, त्यों-त्यों पारिवारिक सम्बन्ध भी प्रभावित होते जा रहे हैं। समाज के कुछ ऐसे तथ्य जैसे कि बेरोजगारी, सुविधाओं की न्यूनता, विभिन्न संस्कृतियों का प्रभाव आदि पारिवारिक मूल्यों को प्रभावित करते जा रहे हैं। तेजी से बदलते हुए मूल्य पारिवारिक संगठन एवं वातावरण को प्रभावित करते जा रहे हैं। इस प्रभाव का परिणाम पारिवारिक सम्बन्धों में हास के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। सम्बन्धों में स्थिरता घट रही है। परिवर्तनशीलता बढ़ रही है।'

दूसरी ओर परिवार के वरिष्ठ-सदस्य का कठोर-व्यवहार भी पारिवारिक जीवन को विषैला बना देता है। उसके व्यवहार से सदस्यों में आक्रोश, कुण्ठा, असहायता, कुसमायोजन, निर्दयता,आक्रामकता, असत्यवादिता आदि विकार पैदा होकर पारिवारिक जीवन को प्रभावित कर देते हैं।

असन्तुष्टि और सौन्दर्य प्रियता वर्तमान सभ्यता के छूत के रोग हैं, जिनकी चपेट में आज के परिवार जल रहे हैं, तड़प रहे हैं। कमाई से असंतुष्टि, पति के व्यवहार से असन्तुष्टि, काम-पूर्ति में असन्तुष्टि, अपने सुखी जीवन से भी असन्तुष्टि पारिवारिक असन्तोष का कारण है। उस पर सौन्दर्य-प्रियता का कोढ़ पारिवारिक जीवन को बदरंग बना देता है। उसे नख से सिख तक एक रंग का परिधान और आभूषण चाहिएं। उसके शरीर को अलंकृत करने के लिए नये-नये फैशन चाहिएँ। मानो संसार का समस्त सौन्दर्य उसको ओढ़ लेना चाहिए। असम्भव को सम्भव बनाने के प्रयास में कलह का जन्म होता है। खर्च बढ़ता है, चादर से बाहर पैर पसारे जाते हैं। अधिक अर्थ-प्राप्ति के लिए भ्रष्टाचार का आश्रय लिया जाता है, भ्रष्टाचारी मानव कभी सुखी रहता?

उपसंहार

घर-घर में विद्यमान टेलीविजन ने आज नर-नारी और बच्चों में एक नई सभ्यता को जन्म दिया है। फैशनपरस्ती, गुण्डागर्दी, प्रेमालाप और बलपूर्वक प्रेमी-प्रेमिका-निर्माण, छुरेबाजी और अश्लील गाने जीवन को विकृत कर रहे हैं। विकृति के कारण पुत्र माता-पिता तथा गुरुजनों को श्रद्धा से नहीं देखता। बहिन, सहपाठिन या किसी भी समवयस्का को कामुकता की दृष्टि से देखता है। लड़ने-मरने को उद्यत रहता है। अद्यतन फैशन को अपनाना धर्म समझता है। परिणामत: आज का सीमित परिवार भी फूट, कलह और वेदना के कगार पर खड़ा सिसकियाँ भर रहा है।

इस इक्कीसवीं सदी के प्रवेश में पारिवारिक जीवन अत्यन्त संकुचित होता जा रहा है, लघुतर से लघुतम होता जा रहा है।

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