मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना पर निबंध
मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना पर निबंध
संकेत बिंदु- (1) घर में विवाह का वातावरण (2) कन्या पक्ष के घर प्रस्थान (3) माता की अकस्मात् मृत्यु का समाचार (4) मंगलमय अवसर पर अमंगल (5) कर्तव्य की भावना पर विजय।
घर में विवाह का वातावरण
ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को श्री गंगा दशहरा का पावन दिन। अंग्रेजी तिथि के अनुसार 30 मई 1993, रविवार। भगवान् भास्कर का वृष राशि में स्थित होना। विवाह के उपलक्ष्य में अपनी वाग्दत्ता की गोद भरने, विवाह की लग्न-पत्रिका तथा टीका लेने का निश्चित दिन। घरभर में मंगल-आह्लाद और उत्साह का वातावरण। महा कवि प्रसाद के शब्दों में
मांसल सी आज हुई थी, हिमवती प्रकृति पाषाणी।
उस लास-रास में विह्वल थी,
हँसती-सी कल्याणी॥
1989 में बड़ी बहिन का विवाह हुआ था। चार वर्ष पश्चात् परिवार में पुन: मंगलमय अवसर आया था। पर परिवार विभक्त था। मेरे साथ केवल पिताश्री तथा अग्रज परिवार था। वह मंगलमय प्रभात अपनी अरुणतापूर्ण मादकता के साथ उदित होकर हृदय को अपने माधुर्य की सुनहली किरणों से रंजित कर रहा था। कवि पंत के शब्दों में सच्चाई तो यह-
जग भी अब प्रसन्न-सा लगता था (मेरे मन की प्रसन्नता)
कन्या पक्ष के घर प्रस्थान
प्रातः 11 बजे कन्या पक्ष के घर प्रस्थान करने का समय निश्चित था। बड़ी बहन और बहनोई एक दिन पहले ही आ गए थे। दूसरी बहिन को प्रात: 8 बजे बुलाया था, ताकि दोनों बहिनें और भाभी मिलकर वधू-गृह ले जाने योग्य सामान का पुनर्निरीक्षण कर लें। वह 8 बजे आकर और 9.30 बजे के लगभग परिधान-परिवर्तन के लिए अपने घर चली गई।
माता की अकस्मात् मृत्यु का समाचार
हम सब 10 बजे तक तैयार होकर निश्चित भाव से प्रस्थान समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। सम्पूर्ण व्यवस्था ठीक थी, इसलिए समय बिता रहे थे, तभी 10 बजकर 10 मिनिट पर एक परिचित व्यक्ति पिताश्री के पास आए। कुर्सी पर बैठे और धीरे से बोले, 'तुम्हारी मिसिस की डेथ हो चुकी है।'
अत्यंत अप्रिय समाचार सुनकर पिताजी का हृदय धक्रह गया। उन्हें लगा कि राजा दशरथ की भांति, 'मोर मनोरथ सुर तरु फूला। फरत करिनिजिमि हतेउ समूला।' मेरी ऐसी स्थिति थी मानों बाज वन में बटेर पर झपटा हो और ताड़ के पेड़ को बिजली ने मार दिया हो। मेरे चेहरे का रंग उड़ गया।
प्रकृति के क्रूर खिलवाड़ की बात पिताजी के गले नहीं उतरी। उन्होंने पूछा, 'आप कैसे कहते हैं?' उसने उदासीन भाव से बताया मैं अभी पहली मंजिल पर देख कर आया हूँ। डॉक्टर आया था। वह 'डेथ डिक्लेयर' कर गया है।
माता के स्वर्गारोहण को लगभग 90 मिनिट बीत चुके थे। हम मकान के भूमितल (ग्राउंट फ्लोर) पर आनन्द में लीन थे। ऊपर शेष भाई-बहनों ने जो पिताजी और हमसे अलग थे, यह सब कार्य इतनी शांति और चतुराई से किया कि हमें आहट तक न होने दी।
माँ की मृत्यु पर उनमें से कोई रोया तक नहीं, विलाप नहीं किया। न सिसिकयाँ भरीं। उनका हृदय रोता तो चीख प्राचीर तोड़ती, आहे अंतरिक्ष को गुंजाती। पर यहाँ तो वैसा ही शांत वातावरण है। स्थित प्रज्ञता की-सी स्थिति।
मंगलमय अवसर पर अमंगल
मेरा मन तड़फ उठा। मंगलमय अवसर पर अमंगल होने से ही नहीं, अपितु माता के विछोह से भी। मन ने कहा साहस करो, ऊपर चलकर सच्चाई देख लो, पर दूसरे ही क्षण उसने कहा, नहीं। सच्चाई की तेज रोशनी से तुम्हारी आँखें चुंधिया गईं तो! चारों भाई बहन धक्के देकर, ठोकर मार कर द्वार को ताला लगा देंगे। याद रहे, अभिमन्यु के समान चक्रव्यूह में घुस गए तो सुरक्षित नहीं लौटोगे। याद करो, उस क्षण को जब सगाई करके जब तुम अपने जीजा के साथ घोर बीमार माता का आशीर्वाद लेने गए थे, तो उन्होंने सीढ़ियों पर ताला लगा दिया था।
माता जी की मृत्यु की किसी भाई-बहन या सगे संबंधी ने 'प्रमाणित' नहीं की थी। उस समय एक-एक सेकिंड मुझे एक घंटे के समान लग रहा था। मन व्यग्र था, सत्य को जानने के लिए। इसी समय डिजरायली के शब्द स्मरण हो आए, “Every thing comes if only a man will wait, यदि मनुष्य प्रतीक्षा करे तो हर वस्तु प्राप्त हो सकती है। दस मिनिट पश्चात् ताऊजी आए। वे आए तो थे मंगलकार्य में भाग लेने, पर जब उन्हें अमंगल का पता लगा, तो सन्न रह गए। उन्हें ऊपर जाने से कोई रोक नहीं सकता था। अतः वे ऊपर गए और पता कर आये कि सचमुच माताजी का स्वर्गवास हो गया है।
इस दुर्घटना के थोड़ी देर बाद ही पिताजी को हृदय-आघात हुआ। वे अपने कमरे में जाकर 'सॉरबीट्रेट' लेकर लेट गए। उधर मेरे विवाह के मांगलिक कार्य के निमित्त अनेक संबंधी आ चुके थे। उन सबकी खुशी गम में बदल चुकी थी। हर्षित चेहरे मुँह लटकाए जगन्नियन्ता के क्रूर अट्टसास पर अश्रु बहा रहे थे।
तब 'सत्ये धर्मः प्रतिष्ठितः' मानकर सम्मुख खड़े कर्तव्य की चुनौती को स्वीकार किया। जीजा जी से वधू-गृह फोन करवाया। दूसरा फोन, छोटी बहिन को करवाया, जो कुछ देर पहले ही परिधान-परिवर्तन के लिए गई थी।
दिल क्या बुझा, चिराग बुझे, तारे बुझ गए।
दुनिया की आग या दिलो सोजा लिए
हुए। (राजबहादुर वर्मा 'राज')
कर्तव्य की भावना पर विजय
उधर कर्तव्य पुकार रहा था। भावना उसे अग्रसर होने से रोक रही थी। कुछ देर पश्चात् कर्तव्य ने भावना पर विजय पाई। अमंगल और मृत्यु के स्वागत के लिए तैयार होते समय मुझे यह अनुभूति हुई
छोड़ पुरानी देह, देह में मेरी रही विराज।
मेरे जीवन में जीवित है, मेरी
माँ भी आज॥ लक्ष्मणसिंह चौहान (कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के पति)