सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा या भारत देश महान् पर निबंध
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा या भारत देश महान् पर निबंध
संकेत बिंदु- (1) भारतीयों के स्वदेशप्रेम का परिचायक (2) जलवायु की दृष्टि से भारत सर्वश्रेष्ठ (3) भारत की विश्व सभ्यता का आदि स्रोत (4) भारतीय सभ्यता और धर्म का आधार ईश्वर (5) पाश्चात्य समाज केवल अधिकार को महत्त्व।
भारतीयों के स्वदेशप्रेम का परिचायक
उर्दू कवि इकबाल की यह काव्य-पंक्ति भारतीयों के स्वदेश प्रेम की परिचायक है, विश्व में भारत की सर्वश्रेष्ठता, महत्ता को सिद्ध करती है। भारत की संस्कृति-सभ्यता की भव्यता के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करती है।
इकबाल से पूर्व संस्कृत और हिन्दी-साहित्य में भारत-भू का गुणगान करने वालों की भरमार है। विष्णु पुराण में कहा गया है- 'गायन्ति देवाः किलगीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे' अर्थात् देवता भी कहते हैं कि भारत में जन्म लेने वाले लोग धन्य हैं। क्योंकि भारत स्वर्ग और अपवर्ग का हेतु है। नारद पुराण में कहा गया है- 'आज भी देवगण भारतभू में जन्म लेने के इच्छा करते हैं।' श्रीधर पाठक ने 'जगत मुकुट जगदीश दुलारा, शोभित सारा देश हमारा' कहकर भारत की वन्दना की है। मैथिलीशरण गुप्त पूछ ही बैठे, 'भूलोक का गौरव, प्रकृति की पुण्य लीला-स्थली है कहाँ ?' फिर वे स्वयं उत्तर देते हुए कहते हैं, 'फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ।'
भारत की महिमा का वर्णन करते हुए महादेवी वर्मा कहती हैं, 'संसार में इतना सुन्दर देश दूसरा नहीं है। जिन्होंने बाहर जाकर देखा है, वे भी यही कहेंगे कि वास्तव में ऐसी हरी-भरी भूमि जिसमें तुषार मंडित हिमालय भी है, जिसमें सूर्य की किरणें केसर के फूलों की तरह शोभा बरसाती हैं, जिसके कंठ में गंगा-यमुना जैसी नदियों की माला पड़ी हुई नदियाँ हैं, जिसके चरण तीन ओर से कन्याकुमारी में सागर धोता है, कितनी हरी-भरी है, कितनी सम-विषम है! ऐसी सुजला-सुफला भारत की ही धरती है।'
जलवायु की दृष्टि से भारत सर्वश्रेष्ठ
जलवायु की दृष्टि से भारत सारे संसार में श्रेष्ठ है। विश्व की जलवायु का ऐसा सन्तुलित विभाजन और कहाँ है? कोई देश ग्रीष्म में तप रहा है, तो कोई कठोर शीत से संत्रस्त है। यह भारत ही है जहाँ प्रचण्ड गर्मी भी है तो प्रबल शीत और भरपूर वर्षा भी। शुष्क पतझर भी है, तो हृदयहारी वसंत भी। गर्मी, बरसात और सर्दी अपने चातुर्मास्य काल में भारत को तृप्त करते हैं। षड्-ऋतुएँ (वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर) वर्ष भर के वातावरण को भिन्न-भिन्न ऋतुओं में विभक्त कर भारत वासियों को सुख-शान्ति प्रदान करते हैं। भारत-भू को सुजला-सुफला, सुवर्णा, मलयज शीतला बनाते हैं।
भारत की विश्व सभ्यता का आदि स्रोत
भारत विश्व-सभ्यता का आदि-स्रोत है। इसने विश्व के नंगे, असभ्य और अनाश्रित मानव को सभ्यता का पाठ पढ़ाया। जीवन जीने की शैली समझाई। मानव-मूल्यों की पहचान करवाई। मानवता को विकसित करने का पथ-प्रशस्त किया। व्यक्ति और समाज का जो समन्वय प्राचीन वर्णाश्रम-व्यवस्था में मिलता है, उसका उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
भारतीय सभ्यता और धर्म का आधार ईश्वर
विश्व की आदि पुस्तक वेद है। वेद ज्ञान के भण्डार हैं। सृष्टि में ज्ञान का उदय करने का और युगों-युगों से विश्व में ज्ञान की ज्योति जलाये रखने का पूर्ण दायित्व निर्वाह करने का श्रेय पवित्र वेदों को है। वेद संस्कृत में हैं। संस्कृत भारत की आदि भाषा है। वेद, उपनिषद् छहों दर्शन तथा मानस के समान अध्यात्म का पाठ पढ़ाने वाले धार्मिक-ग्रन्थ विश्व में अन्यत्र कहाँ हैं?
भारत की प्राचीन वास्तुकला आज के वैज्ञानिकों को विस्मय में डाल देती है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, ज्योतिष, गणित, राजनीति, चित्रकला, वस्त्र-निर्माण आदि सभी में प्राचीन भारत किसी समय बहुत उन्नत था। अजन्ता के रंगीन-चित्र प्राकृतिक-आघातों का सामना करते हुए आज तक सुरक्षित हैं। महरौली (नई दिल्ली) का लोह स्तम्भ सहस्रों वर्षों से जलवायु प्रदूषण से अप्रभावित खड़ा है।
यूरोपीय देशों ने जीवन की समृद्धि के लिए एक ही उपाय स्वीकार किया और वह है आवश्यकताओं की वृद्धि, किन्तु भारत ने अपरिग्रह का और आवश्यकताएं घटाओ का उपदेश दिया। 'सादा जीवन उच्च विचार का सन्देश सुनाया'। 'तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद् धनम्' का आदर्श प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में समाज-कल्याण के लिए जीवन समर्पण का पथ प्रशस्त किया। चिन्तन के इसी अन्तर के कारण पाश्चात्य नागरिकों का अन्त:करण अशांत है, अतृप्त है, विक्षुब्ध है और इसीलिए नैराश्य पूर्ण जीवन में वहाँ आत्म-हत्याओं की प्रमुखता है, विक्षिप्तता का प्राचुर्य है, सोने के लिए नींद की गोलियों का सहारा लिया जाता है।
पाश्चात्य समाज केवल अधिकार को महत्त्व
भौतिकवादी पाश्चात्य समाज केवल अधिकार को महत्त्व देता है। अधिकार प्राप्ति इच्छा ही उसके असंतोष और संघर्ष का मूल कारण है। मजदूर मालिक से, किसान जमींदार से, शासित-शासक से और इतना ही नहीं विद्यार्थी अपने अध्यापक से अधिकार प्राप्ति की लिप्सा में संघर्षरत है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी करोड़ों रुपए व्यय कर, समय लगाकर मानवीय अधिकारों की ही व्याख्या की है, किन्तु कहीं कर्तव्य भावना का जिक्र नहीं। भारत में कर्तव्य सर्वोपरि है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की शिक्षा यहाँ माँ के दूध के साथ दी जाती है। इसलिए अधिकार लिप्सु राष्ट्र एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए संहारकारी शस्त्रास्त्र निर्माण की होड़ में लगे हैं। मानव और मानवता को नष्ट करने पर तुले हैं और भारत 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः' की प्रार्थना करते हुए भौतिक उन्नति करने के साथ-साथ मानव और मानवता का संरक्षण कर रहा है। मानवीय मूल्यों के संरक्षण-संवर्द्धन के कारण भी हमारा हिन्दोस्ताँ सारे जहाँ से अच्छा है।
विश्व के लाखों लोग भारत के अध्यात्म-तत्व और जीवन-मूल्यों के प्रति आकर्षित हैं। भौतिक-वैज्ञानिक सुखों को त्याग कर आत्म-ज्ञान के लिए भारत की ओर उन्मुख हैं। संघर्ष और युद्ध का मार्ग छोड़ शांति, प्रेम, स्नेह का जीवन जीने के लिए भारत की ओर निहार रहे हैं।
संस्कृति, सभ्यता, जीवन-मूल्य, जीवन-शैली, जीवन मुक्ति तथा आत्मविकास का ज्ञान भारत-भूमि के कण-कण में व्याप्त है। इसी के तत्त्वज्ञान के आचरण में जीवन का सच्चा सुख है और है परलोक की उन्नति। इसीलिए भारत देश सारे देशों से श्रेष्ठ है, अजर है, अमर है। 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' के गायक कवि इकबाल ने इसी तत्त्वचिन्तन की पृष्ठभूमि में कहा था, 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।'