मेरा बचपन पर निबंध | Essay on My Childhood in Hindi
मेरा बचपन पर निबंध | Essay on My Childhood in Hindi
संकेत बिंदु- (1) मानव जीवन का स्वर्णिम काल (2) मेरा गाँव और परिवार (3) बचपन की घटनाएँ (4) बचपन की शरारतें (5) बचपन की स्मृतियाँ।
मानव जीवन का स्वर्णिम काल
बचपन! मानव-जीवन का स्वर्णिम काल। चिन्ता-रहित क्रीडाएँ, स्वच्छन्द एवं भयविहीन घूमना-फिरना। जो हाथ में आया, मुँह में दे दिया। अंगूठा चूसने में मधु का आनन्द और दूध के कुल्ले पर किलकारी भरने में उल्लास की अनुभूति, रोकर-मचलकर, बड़े-बड़े मोती आँखों से बहाकर जननी को बुलाना और स्नेहमयी जननी का भागकर आना एवं झाड़ पोंछकर हृदय से चिपका लेना और चुम्बनों की वर्षा करना मानो अनचाहे सुधा में स्नान। तभी तो सुभद्राकुमारी चौहान अपनी बिटिया को देखकर अपने बचपन का स्मरण करते हुए कहती हैं-
बीते हुए बचपन की यह, क्रीडापूर्ण वाटिका है।
वही मचलना, वही किलकना, हँसती हुई नाटिका है।
संघर्षमय, अशांत, और श्रांत-क्लांत जीवन में पौत्र-पौत्री की शिशु-क्रीडाओं को देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया। सुभद्राकुमारी चौहान की भाँति शैशव का आह्वान करने लगा~ आ जा बचपन! एक बार फिर / दे-दे अपनी निर्मल शांति।
मेरा गाँव और परिवार
वर्तमान हरियाणा के एक छोटे-से गाँव सोनीपत में, जिसने औद्योगिक विकास के साथ-साथ तहसील से जिले का रूप ले लिया है, मेरा बचपन बीता। मेरा घर था, पाँच चार मकानों का घेर, जिसे 'महल' की संज्ञा दी गई थी और जो आज तक बरकरार है।
माता की अनेक सन्तानें काल का ग्रास बन चुकी थीं। अत: वे मेरा बहुत ध्यान रखती थों । घर में दो वर्ष बड़े अग्रज थे। पिताजी देश की राजधानी दिल्ली में नगर पालिका के कार्यालय में कार्य करते थे। बड़ी बहिन अपने घर-बार की हो गई थी। बाबा (दादा) हरद्वारीलाल गाँव के एकमात्र प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर थे।
बचपन की घटनाएँ
आँगन कच्चा था। वही पीली मिट्टी का आँगन मेरी क्रीडा-स्थली थी। एक बार अग्रज ने स्नेह से गोदी में लेने का प्रयास किया। उनके हाथ मारने की शैशवी-क्रीडाएँ हॉकी के किसी खिलाड़ी से कम न थीं। मैं चारपाई पर पड़ा रो रहा था। वे खुश हो रहे थे। समझ रहे थे, उनकी छेड़-छाड़ मुझे आह्लादित कर रही है। थोड़ा और जोर लगाया। वे मुझे संभाल न सके, मैं चारपाई से नीचे गिरा और चीख मारकर रो पड़ा। माता को निमन्त्रित करने का सहज और सरल उपाय यही था। माँ दौड़ी आई और पीली मिट्टी में सने मेरे शरीर को गोदी से चिपका लिया। भैया को डॉटा। पीट सकना उनके वश की बात नहीं थी। कारण, भैया भी शिशु थे और थे माता के हृदयांश।
बचपन की शरारतें
यद्यपि परिवार गरीब था, किन्तु दूध-घी की कमी न थी। माता ममता लुटाती थी। हम भोजन में अति कर जाते थे। परिणामतः पेट में अफारा और दूध उलट देना स्वभाव बन गया था। घर के टोटके औषधि का रूप लेते। ममतामयी माँ समीप बैठी टुकुर-टुकुर निहारती और अपने लाल के अच्छा होने की प्रतीक्षा करती हुई मन्नतें मनाती।
घुटनों से चलते समय महल का पीली मिट्टी का प्रांगण हमारी दौड़ का मैदान बना। अड़ोसी-पड़ोसी समवयस्क बच्चों के मध्य एक-दूसरे को हाथ मारने में आनन्द आता था। एक बार हमने सामने वाली ताई के बच्चे को वह हाथ मारा कि वह चिल्ला उठा। ताई दौड़ी आई। उसको गोद में उठा लिया और क्रोध में मुझे एक चपत रसीद कर दी। साथ ही 'तारा को छोरा बड्डा तेज सै' का 'प्रमाण-पत्र' दे दिया। यह सुनकर हमने भी रोना शुरू कर दिया। उधर माँ ताई की करतूत देख रही थी। बस फिर क्या था? माँ ने हमें गोद में लिया और लगी ताई से झगड़ने। वाग्-युद्ध का दृश्य था वह।
कुछ बड़े हुए। चलना प्रारम्भ किया तो बच्चों से यारी-दोस्ती बढ़ी। परिचय का क्षेत्र घर से बाहर निकल कर गली तक पहुँच गया। बाबा के डेढ़ फुट ऊँचे चबूतरे पर चढ़ना हिमालय पर चढ़ने से कम न था। चढ़ने की कोशिश में गिरते और रो-रोकर पुनः पुनः चढ़ने का प्रयास करते थे। प्रसाद जी के शब्दों में-
स्निग्ध संकेतों में सुकुमार, बिछल, चला थक जाता तन हार।
छिड़कता अपना गीलापन, उसी रस में तिरता जीवन।
गली की बिल्ली और कुत्ते हमारे लिए शेर और चीते थे। गली का कुत्ता यदि जीभ निकालकर हमारे पीछे चलने लगता तो हमारी घिग्घी बँध जाती और नन्हें कदमों की दौड़ से घर में घुस जाते।
गाँव में बन्दर बहुत थे। एक दिन गली में चहल-कदमी कर रहा था कि अचानक तीन-चार बन्दर आ गए। लगे मुझे घूरने, घर-घूर कर धमकी देने।आँखों ने यह दृश्य देखा, तो मुँह से चीख निकली, हृदय-गति तेज हो गई, नयनों ने नीर बरसाना शुरू कर दिया, हाथ-पैर काँपने लगे। चीख सुन पड़ोसिन आई और उसने बन्दरों को डंडे दिखाकर भगा दिया। मेरी जान में जान आई।
बचपन की स्मृतियाँ
बचपन कितना भोला और साधारण से मानवीय ज्ञान से अनभिज्ञ होता है, इसका एक उदाहरण मुझे स्मरण है। एक रात मैं और बड़े भाई एक ही खटोले पर सो रहे थे। ब्राह्ममुहूर्त का समय था। माँ मृत शिशु को गोदी में लिए रो रही थी। रोने की सस्वर वाणी किसी कवि की पीड़ा से कम न थी। 'मैं तुझे दिल्ली ले जाती, पढ़ाती-लिखाती', मृतक पुत्र को लिए माँ न जाने क्या-क्या कल्पना करती हुई रुदन कर रही थी। प्रातः वह रुदन समाप्त हुआ। घर में क्या हुआ, क्यों हुआ? मेरी समझ से बाहर था।
शैशव बीता। हम सोनीपत छोड़कर दिल्ली आ गए। बचपन आज भी सोनीपत के 'महल' की चार-दीवारी में किल्लोल कर रहा होगा। बचपन की स्मृति आने पर मेरा मन प्रसाद जी के शब्दों में अपने आपसे पूछता है-
आज भी है क्या नित्य किशोर/ उसी क्रीडा में भाव-विभोर
सरलता का वह अपनापन / आज भी है क्या है मेरा धन!