विश्व पर्यावरण दिवस पर निबन्ध | Essay on World Environment Day in Hindi
विश्व पर्यावरण दिवस पर निबन्ध - Essay on World Environment Day in Hindi
संकेत बिंदु– (1) पर्यावरण दिवस के रूप में (2) प्रदूषण बढ़ने के कारण (3) वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले तत्त्व (4) जल प्रदूषण के दुष्प्रभाव (5) प्रदूषण के भयंकर परिणाम।
पर्यावरण दिवस के रूप में
सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति को ध्यान में रखते हुए इस समस्या की ओर जन जन का ध्यान आकृष्ट करने के लिए प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है । इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ तथा उससे जुड़ी संस्थाओं द्वारा प्रत्येक वर्ष अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं जिनमें विश्व के पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की जाती है तथा इसके समाधान की दिशा में प्रतिभागी राष्ट्रों के प्रतिनिधियों द्वारा अपने सुझाव दिये जाते हैं तथा रणनीति तय की जाती है।
प्रदूषण बढ़ने के कारण
बढ़ता प्रदूषण मानवीय स्रोतों से उत्पन्न होता है। औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया में घने वन उपवन उजाड़े गए, इससे पर्यावरण संतुलन बिगड़ गया। प्राकृतिक संसाधन ही नहीं बल्कि समूचा वायुमंडल विषाक्त हो गया। नदियाँ, समुद्र, भूजल, वायु सभी प्रदूषित हो चुके हैं । कार्बन डाइआक्साइड से वायुमंडल का ताप यदि इसी प्रकार बढ़ता रहा तो पहाड़ों पर जमी बर्फ तेजी से पिघलेगी और भीषण विनाश मच सकता है।
औद्योगिक विकास का परिणाम यह हुआ कि 'ग्रीन हाऊस' गैसों की मात्रा बढ़ती गई। इन गैसों का संक्रेद्रण बढ़ने से सूर्य को रोशनी के जिस हिस्से से विकिरण द्वारा बाहर चला जाना चाहिए, वह हिस्सा पृथ्वी के वातावरण में फंसा रह जाता है। परिणामतः धरती की गर्मी बढ़ती है। कागज के कारखानों से हाइड्रोजन सल्फाइड, ताप बिजली घरों से सल्फर डाइआक्साइड, तेल शोधक कारखानों से हाइड्रोकार्बन और रासायनिक उर्वरक कारखानों से अमोनिया उत्सर्जित होते हैं। इनसे वायुमंडल ही नहीं नदियाँ भी खतरनाक ढंग से प्रभावित हुई हैं। (राष्ट्रीय सहारा : हस्तक्षेप, 6.6.98)
वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले तत्त्व
प्रमुख प्रदूषणकारी तत्त्वों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव को केन्द्रीय नियंत्रण ने इस प्रकार दर्शाया है–
(1) कार्बन मोनोक्साइड– शरीर के तंतुओं तक आक्सीजन ले जाने की रक्त में मौजूद हामोग्लोबिन को क्षमता घट जाती है। परिणामत: केन्द्रीय नर्वस सिस्टम पर प्रतिकूल प्रभाव, स्नायु दुर्बलता तथा दृष्टि शक्ति क्षीणता फुफ्फुस के कार्य में परिवर्तन के दीर्घकालीन दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं।
(2) नाइट्रोजन के आक्साइड– श्वास संबंधी रोग (दर्द, खांसी) उत्पन्न होते हैं। फुफ्फुस की दीवार की कोशिकाओं में परिवर्तन से दीर्घकालीन दुष्प्रभाव की संभावना बनती है।
(3) सल्फर डाईआक्साइड– दमा का आक्रमण होता है। फुफ्फुस की कार्य क्षमता घटने की संभावना से दीर्घकालीन दुष्प्रभाव पड़ सकता है।
(4) धूलकण– कई रोगों से घिरने का अल्पकालिक प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है। दीर्घकालिक दुष्प्रभाव है– विषाक्तता और कैंसर।
(5) हाइड्रोकॉर्बन– दर्द, खाँसी और आँखों में जलन अल्पकालिक प्रभाव हैं । अनेक रोगों की उत्पत्ति इसके संभावित दीर्घकालिक दुष्प्रभाव हैं।
(6) सीसा– शरीर पर जटिल प्रतिकूल प्रतिक्रिया स्वास्थ्य पर पड़ने वाला अल्पकालिक प्रभाव है। जबकि लीवर और किडनी की क्षति, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव, प्रजनन क्षमता की हानि, गर्भस्थ शिशु की क्षति संभावित दीर्घकालीन दुष्प्रभाव हैं।
जल प्रदूषण के दुष्प्रभाव
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रदूषित जल से होने वाले रोगों के नाम इस प्रकार गिनाए हैं– (1) हैजा (2) डायरिया (3) टायफाईड (4) पालियोमाईटिस (5) राउंडवर्म (6) ट्राकोमा (7) लौश्मानियसिस (8) शिस्टोसोमियासिस (9) गोनिया बर्म (10) स्लोपिंग सिकनेस (11) फाईलेरिया (12) मलेरिया (13) रीवर ब्लाइंडनेस (14) यलो फीवर तथा (15) डेंगू फीवर।
प्रदूषण के भयंकर परिणाम
प्रदूषित जल की भयंकरता दर्शाते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि डायरिया से 40 लाख, हैजा तथा मलेरिया से 20-20 लाख तथा शिस्टोसोमियासिस से 2 लाख व्यक्ति (केवल विकासशील देश में) प्रतिवर्ष काल का ग्रास बनते हैं। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला धुओँ तथा राख भी वायु प्रदूषण को बढ़ाने में काफी प्रभावी भूमिका निभाते हैं। एक गणना के अनुसार 450 लाख टन औद्योगिक राख हर वर्ष हवा में मिलती है, जिसे हम साँस के रूप में अपने शरीर के अंदर ले जाते हैं । विभिन्न मेडिकल स्रोतों से जानकारी लेकर 'टेरी' का मानना है कि 1997 में वायु प्रदूषण की वजह से मरने वालों की संख्या करीब 25 लाख थी।
जल, की हालत यह है कि जो जीवन के लिए दूसरी सबसे महन्वपूर्ण जरूरत है, देश के प्रथम एवं दूसरी श्रेणी के शहर नदियों में रोज 2000 करोड़ लीटर गंदा जल प्रवाहित करते हैं, जबकि उसमें मात्र 200 करोड़ लीटर ही शुद्ध किया जाता है ! शेष गंदा जल देश की धमनियों में घूमता रहता है । देश में बढ़ते जा रहे कचरों के अंबार भी लोगों को बीमार बना रहे हैं। भारत के शहरों में आजकल करीब 480 लाख टन कचरा हर वर्ष इकट्ठा होता है और जिसके निषेधन की कोई उचित व्यवस्था हमारे पास नहीं है. अगर है भी तो अराजक, लचर और अप्रभावी । सन् 2047 तक देश 3 अरब टन कचरा साढ़े चार अरब टन राख तथा उसका भी साठ गुना कागज की मात्रा से निपटने का बोझ झेलेगा। कुल मिलाकर हमारे देश का पर्यावरणीय भविष्य बहुत ही डरावना है। (सहारा : हस्तक्षेप 6 जून 1998 से उद्धृत)