ग्रीष्म ऋतु की दोपहर पर निबन्ध | Essay on Summer Afternoon in Hindi
ग्रीष्म ऋतु की दोपहर पर निबन्ध | Essay on Summer Afternoon in Hindi
संकेत बिंदु– (1) भगवान भास्कर के कोप का रूप (2) अग्नि में घी का काम (3) जीवन की प्रगति अवरुद्ध होना (4) प्राणियों और प्रकृति के लिए पीड़ादायिनी (5) पृथ्वी, प्राणी और प्रकृति के लिए लाभदायक।
भगवान भास्कर के कोप का रूप
ग्रीष्म ऋतु को दोपहर भगवान् भास्कर के कोप का प्रचण्ड रूप है, प्राणिमात्र में उदासीनता और व्याकुलता की जनक है, आलस्य, थकावट और अकर्मण्यता के संचार का स्रोत है, कीटाणुओं के लिए मृत्यु का सन्देशवाहक है और फलों के लिए रसपोषक पीयूष है।
ग्रीष्म वैसे ही जगत् को संतप्त करती है, ऊपर से आ जाए उसकी दोपहर तो एक कड़वा करेला और ऊपर से नीम चढ़ा। भगवान् भास्कर पृथ्वी के सिर पर अवस्थित होकर तीक्ष्ण किरणों से वसुधा को तपा रहे हैं। असह्य तपन से वसुधा व्याकुल है, उसका हृदय फट रहा है, उसका सुदृढ़ तारकोलीय परिधान पिघल रहा है, नंगे चरण को उसे स्पर्श तो करके देखो। लगता है सूर्य की किरणें किरणें नहीं। प्रसाद जी के शब्दों में-
किरण नहीं ये पावक के कण, जगती तल पर गिरते हैं।
अग्नि में घी का काम
कष्ट एकाकी नहीं आता। सूर्य की प्रचंड गर्मी से पवन भी गर्म हो गई । उसने अग्नि में घृत का काम किया। वह चलने लगी, बहने लगी। उसका वेग बढ़ा। पवन का झोंका लू में बदल गया। धूल उड़ने लगी | साँय साँय कर वातावरण अपनी व्याकुलता व्यक्त करने लगा। विरहिणी वसुधा विरह वेदना में उच्छवास ले रही है। 'प्रसाद' का हृदय व्याकुल हो उठा–
स्वेद धूलि कण धूप लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं।
जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला ताप उगलते हैं॥
“धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन” भी “आतप भीत विहंगम कुल का क्रन्दन” कर जब भास्कर से भयभीत हो सुरक्षा हेतु छाँह ढूँढ़ने चला जाता है, शान्त हो जाता है, तो उमस उत्पन्न हो जाती है | प्राणियों की व्याकुलता बढ़ जाती है । विरह - वेदना से वसुधा संज्ञाहीन हो जाती है। कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में-
"दिन के इस सुनसान प्रहर में रुक सी गई प्रगति जीवन की।"
जीवन की प्रगति अवरुद्ध होना
ग्रीष्म की दोपहर में सचमुच्च जीवन की प्रगति अवरुद्ध हो गई। सड़कें सुनसान हो गई, नगरों का जन रव नीरवता में बदल गया। वाहन रुक गए। जो चल रहे थे, वे गन्तव्य पर पहुँचकर शान्त हो गए। पशु पक्षी बाड़ों घोंसलों में घुस गए। जो मार्ग में फँस गए, वे तरु की छाया में बैठ गए। मानव का तो बाहर निकलते दम निकलने लगता है। विवशतावश उसे निकलना ही पड़े, सूर्य को चुनौती को स्वीकार करना ही पड़े, तो शरीर को ग्रीष्म रोधी अस्त्रों से सुसज्जित करके निकलेगा। तौलिया, रूमाल उसके अस्त्र होंगे। छाता उसका कवच होगा।
मानव ने प्रकृति की हर चुनौती को स्वीकार और उसका मानमर्दन किया। ग्रीष्म की दोपहर को उसने विद्युत् पंखों से शान्त किया, कुलर से शीतल किया, खसखस से ठण्डा बनाया। वातानुकूलित वाहनों से यात्रा को सुखद किया।
प्यास और पसीना ग्रीष्म की दोपहरी के दो अभिशाप हैं। मानव ने प्यास शान्त की शीतल जल, एरियेटेड वाटर, शरबत, क्वेश तथा जूस से । पसीने को सुखाया पंखे और कूलर से। विद्युत के अभाव को हाथ के पंखे ने पूरा किया, शीतल -जल की पूर्ति की घड़े और फ्रिज के पानी ने, बर्फ युक्त जल ने। पथिक की प्यास मिटाई प्याऊ और पानी की रेहडियों ने। पथिक का पसीना उसका रूमाल पीने लगा।
ग्रीष्म ऋतु की दोपहर प्राणि मात्र के लिए आलस्यवर्द्धक है, उत्साहहीनता की जननी है, अकर्मण्यता की जनक है, उदासी की प्रेरक है, वैरभाव की नाशक है, घृणा की विद्वेपिका है। पेड़ की छाँह में, सड़क में किसी शेल्टर के नीचे (चाहे वह दिल्ली परिवहन का शैड हो या किसी व्यापारिक संस्थान का बरामदा) मानव, गाय बैलभैंस, कुत्ते, गधे सब एक साथ खड़े दिखाई देते हैं। कविवर बिहारी तो इससे भी एक कदम आगे बढ़ गए। वे साँप और मयूर एवं मृग और बाघ को इकट्ठा देखते हैं-
कहलाने एकत बसत, अहि मयुर मृग बाघ।
जगत तपोवन सो किये, दीरघ दाघ निदाघ।।
प्राणियों और प्रकृति के लिए पीड़ादायिनी
ग्रीष्म की दोपहरी प्राणियों को ही नहीं, प्रकृति को भी पीड़ादायिनी है। इस समय खेत खलिहान मुरझा जाते हैं। खड़ी फसल कुम्हला जाती है। घास सूख जाती है। पुष्पों का सौन्दर्य नष्ट होने लगता है। उनकी सुगन्ध तिरोहित होती जाती है। वृक्ष योगी के सदृश दोपहर की तपन सहते हैं। अपनी आत्मजा पत्तियों को पीले पड़ते देखते हैं ! काल के कराल गाल में जाती जननी (पेड़ों) से बिछुड्ती पत्तियाँ खड़ खड़ के शब्द से जननी को अन्तिम प्रणाम करती हैं।
पृथ्वी, प्राणी और प्रकृति के लिए लाभदायक
ग्रीष्म की दोपहरी बसुधा, प्राणी और प्रकृति के लिए लाभप्रद भी है। धूप की तेजी अन्न और फसलों को पकाएगी। खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, खीरा, अलूचे, आडू, आलुबुखारे, फालसे पर रंगत लाएगी। आम को स्वास्थ्यलाभ के लिए प्रस्तुत करेगी।
प्रभाकर की प्रचण्ड किरणों से व्याकुल हो हिम का हृदय पिघलेगा, पर्वत से अजस्र जलधारा बसुधा को तृप्त करने निकल पड़ेगी । नदियों की नग्नता ढकेगी, सर सरोवरों को जीवन मिलेगा।
दिवाकर की दिव्य किरणे ऊर्जा का साधन बनेंगी। ऊर्जा के संकट को हल करने में सहायक होंगी।
ग्रीष्म की दोपहरी एक ओर प्राणी, वसुधा और प्रकृति को जीवन के संघर्षपूर्ण काल में, अपार कष्टों, विपत्तियों और दुःखों से आक्रान्त क्षणों में प्रसन्नवदन रहकर उनके निराकरण की सचेष्टता सिखाती है और दूसरी ओर यह भी बताती है कि जीवन का यथार्थ आनन्द इन कष्टों, विपत्तियों, आपदाओं से ही फूट रहा है।