रामधारी सिंह 'दिनकर'- जीवन परिचय, कृतियाँ, भाषा शैली | Biography of Ramdhari Singh Dinkar in Hindi
“दिनकर के सम्पूर्ण काव्य पर दृष्टि डालने के उपरान्त यह स्वीकार करना पड़ता है कि भाषा के विकास के साथ साथ विविध छन्दों की राग माधुरी उनकी कविताओं में पूरी पूरी मिलती है। उनकी व्यंजनामयी सरल वाणी में राष्ट्र का स्वर गूँजता है। उनके भाव, भाषा और छन्दों में स्वदेश की मिट्टी की वह गन्ध फैलती है जो सच्चे प्रगतिवाद को नवचेतना प्रदान करती है।” –डॉ० अम्बाप्रसाद 'सुमन'
मृत्यु– सन् 1974 ई०
जन्म स्थान– सिमरिया, जिलां मुंगेर (बिहार )।
शिक्षा– पटना विश्वविद्यालय से बी०ए० (ऑनर्स)।
सामाजिक जीवन– प्रधानाध्यापक, रजिस्ट्रार, प्राचार्य, विभागाध्यक्ष तथा अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर कार्य किया।
साहित्यिक विशेषताएँ– राष्ट्रप्रेम, जागरण का सन्देश।
भाषा– शुद्ध खड़ी बोली, उर्दू फारसी के प्रचलित शब्द।
शैली– विवरणात्मक, भावात्मक, उद्बोधत।
रचनाएँ– काव्य, आलोचना, निबन्ध आदि।
प्रश्न– रामधारी सिंह 'दिनकर' का जीवन-परिचय एवं कृतियों का उल्लेख कीजिए।
जीवन परिचय– प्रतिभाशाली कवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्म 30 सितम्बर 1908 ई० को बिहार प्रान्त में बेगूसराय जिले के 'सिमरिया' नामक गाँव में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की ही पाठशाला में हुई। पटना विश्वविद्यालय से बी०ए० की परीक्षा ऑनर्स के साथ उत्तीर्ण की और फिर सरकारी नौकरी में आ गये। आपने कुछ दिनो अध्यापन कार्य भी किया था। ब्रिटिश सरकार की नौकरी में सब-रजिस्टार के पद पर कार्य करते हुए भी वे राष्ट्रप्रेम के राग अलापते रहे। राष्ट्रप्रेम इनकी आत्मा में समाया हुआ था। सन् 1921 ई० से ही आप राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेते थे। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के आप सभापति रहे। राज्य परिषद् के भी आप सदस्य रहे। 24 अप्रैल सन् 1974 ई० को आपका परलोकवास हो गया।
साहित्यिक कृतियाँ–
दिनकर जी की मुख्य रचनाएँ इस प्रकार हैं-
1. प्रबन्ध काव्य– कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, प्रणभंग, उर्वशी, बारदोली विजय, धूपछाँह, बापू, इतिहास के आँसू, मिर्च का मजा, दिल्ली आदि।
2. मुक्तक काव्य– रेणुका, हुँकार, रसवन्ती, इन्द्र गीत, सामधेनी, धूप और धुआं, नीम के पत्ते, नील कुसुम, सीपी और शंख, नये सुभाषित, चक्रवात, धार के उस पार, आत्मा की आँखें, हारे को हरि नाम
3. गद्य ग्रन्थ– मिट्टी की ओर, अर्धनारीश्वर, रेती के फूल, भारतीय संस्कृति के चार अध्याय।
प्रश्न– रामधारी सिंह 'दिनकर' की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
कविवर रामधारी सिंह 'दिनकर' राष्ट्रवादी कवि हैं। उन्होंने कविता को छायावाद के व्यामोह से मुक्त कराया तथा काव्य में प्रगतिशीलता को स्थान दिलाया। उनके काव्य की भावपक्ष एवं कलापक्ष विषयक विशेषताएँ अधोलिखित हैं–
भावपक्ष–
काव्य समीक्षा– दिनकर जी सामाजिक चेतना जाग्रत करने वाले कवि थे। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा मानव की सामूहिक रूप में मुक्ति के लिए मानववादी आदर्श प्रस्तुत किया है। 'रेणुका' में उनकी यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। 'हिमालय' शीर्षक कविता में उनकी क्रान्ति भावना का भी स्पष्ट आभास मिलता है। वे शोषक-शोषित समाज का उन्मूलन कर वर्गहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। यही भावना हुंकार, सामधेनी और कुरुक्षेत्र में दिखाई पड़ती है। उनके काव्य की मूल प्रवृत्तियों का संक्षेप में वर्णन निम्नलिखित है–प्रगतिवादी दृष्टिकोण– प्रगतिवादी कवियों में दिनकर जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पूंजीपतियों की शोषण नीति से दिनकर जी का शत हृदय पीड़ित हो उठता है। पूँजीवाद को जड़ से उखाड़ने के लिए आपकी कल्पना प्रलयंकर रूप धारण कर लेती है। दिनकर जी राष्ट्रीय गौरव और स्वाधीनता संग्राम की परम्परा को लेकर ही हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अवतीर्ण हुए हैं। उन्होंने निराश और विवश जनता को आश्वासन देते हुए ऊँचे स्वर में कहा-
“गरज कर बता सबको मारे किसी के मरेगा नहीं हिन्द देश।
लहू की नदी तैरकर आ गया है, कहीं से कहीं हिन्द देश।
लड़ाई के मैदान में चल रहे हैं लेके हम उनका-निशान।
खड़ा हो जवानी का झंडा उठा, ओ मेरे देश के नौजवान।”
रस निरूपण– दिनकर जी वीर रस के कवि हैं। उनकी कविता ओजमयी है। वीर रस के समान ही उनके काव्य में श्रृंगार एवं करुणा को भी स्थान मिला है।
प्रेम एवं सौन्दर्य चित्रांकन– राष्ट्रीय चेतना, प्रगतिवादी उदार दृष्टिकोण, क्रान्तिकारी भावों तथा वीर रस वर्णन के साथ कवि की उदार एवं सुकुमार कल्पना का प्रस्फुटन 'रसवन्ती' की कविताओं में हुआ है जिसमें प्रेम है, सौन्दर्य है-
“रानी आधी रात गयी है, घर है बन्द दीप जलता है।
जितना कुछ कहूँ, मगर कहने को शेष बहुत रहता है।”
क्रान्तिकारी भावना– अहिंसा का बोदा मार्ग दिनकर जी को पसन्द नहीं है। धर्म, तप, अहिंसा करुणा और क्षमा आदि भाव व्यक्ति के लिए अवश्य हितकारी हो सकते हे किन्तु जब पूरे समाज का प्रश्न उठता है, तब हमें तप, अहिंसा, करुणा और त्याग को भूलना ही पड़ता है। 'कुरुक्षेत्र' नामक काव्य में दिनकर ने भीष्म पितामह के मुँह से यही बात कहलवाई है-
“हिंसा के सामने तपस्या सदैव हारी है।
हिंसा का आघात तपस्या ने कब सहा है।
देवों का बल सदा दानवों से हारता रहा है।"
भाग्यवाद में दिनकर जी का विश्वास नहीं है, वे परिश्रम पर विश्वास करते हैं। भाग्यवाद के विपरीत थे मनुष्य को श्रम करने की प्रेरणा देते हैं-
“एक मनुज संचित करता है, अर्थ पाप के बल से,
और भोगता उसे दूसरा भाग्यवाद के छल से।
राजद्रोह की ध्वजा उठाकर कहीं प्रचारा होता,
न्यायपक्ष लेकर दुर्योधन को ललकारा होता॥"
राष्ट्रीय जागरण– दिनकर जी ने राष्ट्र में जन-जागरण लाने की भावना से देश के गौरवमय अतीत के अनेक चित्र उपस्थित किये हैं। दिनकर जी का अतीत गौरवज्ञान विशेष प्रभावोत्पादक है। इसमें एक ओर अतीत का वैभव है तो दूसरी ओर वर्तमान के पतन की पराकाष्ठा है। उस समय तो उनके भावों में और भी तीव्रता आ जाती है जब वे अतीत के गौरवमय प्रतीकों को सम्बोधित करके अपनी खीझ उन पर व्यक्त करते हैं। पाटलिपुत्र की गंगा से कवि प्रश्त करता है–
"तुझे याद है चढ़े शीश पर कितने जय सुमनों के हार?
कितनी बार समुद्रगुप्त ने धोई है तुझमें तलवार?”
भावावेश में कवि खीझ उठता है-
“जिस दिन जली चिता गौरव की जयभेरी जब मूक हुई,
जलकर पत्थर हुई न क्यों यदि टूट नहीं दो टूक हुई?”
विश्व प्रेम– दिनकर जी भारत एवं भारतीय संस्कृति से प्रेम रखने वाले थे, साथ ही उनके काव्य में विश्व-प्रेम एवं विश्व-कल्याण की भावना पूर्ण रूपेण विद्यमान है। विश्व विषमता उत्पीड़न कारिणी है। विश्व में विषमता मनुष्य को सुख नहीं मिलने देगी; अत: कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि–
"साम्य की यह रश्मि स्निग्ध उदार
कब खिलेगी, विश्व में भगवान्।
हो सुकोमल ज्योति से अभिसिक्त,
कब सरस होगे जलती रसा के प्राण॥”
शोषण के प्रति विद्रोह– दिनकर जी का दृष्टिकोण समाजवादी रहा है। अतीत की अपेक्षा वर्तमान का चित्रण करने में उन्हें विशेष सफलता मिली है। पूंजीपतियों द्वारा किसानों और मजदूरों का शोषण देखकर वे विद्रोही हो उठते हैं–
“आहें उठीं दीन कृषकों की, मजदूरों की तड़प पुकारें।
अरे गरीबों के लोहू पर, खड़ी हुई तेरी दीवारें॥”
शोषण से कुपित होकर कवि क्रान्ति का आह्वान करता है-
“क्रान्ति धात्रि कविते! उठ आडम्बर में आग लगा दे।
पतन, पाप, पाखंड जले, जल में ऐसी ज्वाला सुलगा दे॥”
दिनकर जी वर्तमान भौतिकवादी सभ्यता के कट्टर विरोधी हैं।
प्रकृति चित्रण– दिनकर जी का प्रकृति चित्रण छायावादी कवियों के समान ही है। वे प्रकृति में चेतना का अनुभव करते हैं। इसलिए उन्होने प्रकृति का सजीव मानव के रूप में चित्रण किया है। इस प्रकार इनका प्रकृति चित्रण परम्परागत है, प्रकृति का मानवीकरण रूप में वर्णन करते हुए वे उषा को एक अभिमानिनी नायिका के रूप में देखकर उसे पूछते हैं-
“कंचन थाल सजा सौरभ से ओ फूलों की रानी।
अलसाई सी चली, कहाँ करने किसकी अगवानी?
वैभव का उन्माद रूप की यह कैसी नादानी?
उषे! भूल न जाना ओस की करुणामयी कहानी।”
प्रकृति का आलम्वन रूप में चित्रण करते हुए कवि हृदय में रहस्यवादी भावनाएँ भरी हुई हैं, जो प्रात: कालीन चित्र में देखी जा सकती हैं–
"व्योम सर में हो उठ़ा, विकसित अरुण आलोक शतदल।
चिरदुःखी धरणी विभा में हो रही आनन्द विह्वल॥
चूमकर प्रतिरोम से शिर पर चढ़ा वरदान प्रभु का।
रश्मि अंचल में पिता का स्नेह आशीर्वाद आया॥"
युद्ध विरोध– कवि दिनकर मानवता के रक्षक एवं युद्ध विरोधी विचार के माने जाते हैं। उन्होने युद्ध का प्रबल विरोध किया है। वे मानवता विरोधी वैज्ञानिक ज्ञान को शुभ नहीं मानते–
सावधान मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार।
तो इसे दे फैंक, तज कर मोह स्मृति के पार॥
कलापक्ष–
दिनकर जी की भाषा– दिनकर जी की भाषा शुद्ध, साहित्यिक, खड़ी बोली है जिसमें चित्रात्मकता, ध्वन्यात्मकता तथा मनोहारिता है। दिनकर जी की भाषा में कहीं कहीं उर्दू का प्रभाव भी दिखाई पड़ता है। ओज और प्रवाह इनकी भाषा में सर्वत्र विद्यमान है। इनकी भाषा के दो रूप पाये जाते हैं। प्रथम वह कि जिसमें तत्सम शब्दों के साथ उर्दू फारसी के शब्द भी पाये जाते है और दूसरा वह जिसमें तत्सम शब्दों की प्रधानता है। दिनकर जी की भाषा में व्याकरण सम्बन्धी त्रुटियाँ अधिक खटकती हैं। स्त्रीलिंग शब्दों का पुल्लिंग में और पुल्लिंग शब्दों का स्त्रीलिंग में प्रयोग कर देने से भाषा का सौन्दर्य नष्ट हो गया है। मुहावरों के प्रयोग से भाषा में चुस्ती आ गयी हैं।शैली– प्रबन्ध और मुक्तक, दोनों ही शैलियों में इन्होंने काव्य रचना की है।
अलंकार योजना– दिनकर जी कविता में अलंकारों के लिए कहीं भी आग्रहशील नहीं हैं, तथापि अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार इनकी कविता में स्वाभाविक रूप से आ गये हैं। उपमा अलंकार का अभिनव रूप निम्नलिखित पंक्तियों में देखा जा सकता है–
“लदी हुई कलियों से मादक, टहनी एक नरम सी।
यौवन की बनिता-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी॥"
छन्द योजना– दिनकर जी ने तुकान्त और अतुकान्त, दोनों प्रकार के छन्दों में काव्य रचना की है। वर्णिक तथा मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का उन्होंने प्रयोग किया है।
निष्कर्ष– निःसन्देह दिनकर एक महान् राष्ट्रीय कवि हैं। उनके 'कुरुक्षेत्र' काव्य में विश्वशान्ति की समस्या पर भीष्म के विचारों में गांधीवादी दर्शन की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। दिनकर जी एक भावुक राष्ट्रकवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।