मालिक मुहम्मद जायसी का जीवन परिचय
“मानव-मात्र के प्रति सहृदयता और प्रेम की भावना से ओत-प्रोत हो जायसी ने मानव हृदय की उस अवस्था के दर्शन कराए, जहाँ सभी धर्मों और सम्प्रदायों के भेदभाव समाप्त हो जाते हैं और मनुष्य ऐक्य, प्रेम एवं सहानुभूति का अनुमत करता है।” –एक आलोचक
मृत्यु– सन् 1542 ई०
जन्म-स्थान- जायस
पिता- शेख ममरेज
काव्यगत विशेषताएँ- प्रेमाश्रयी भक्ति शाखा के प्रवर्तक। बिरह वर्णन में अद्वितीय, आध्यात्मिक भावना, लौकिक प्रेम के द्वारा अलौकिक प्रेम का चित्रण
भाषा- ठेठ अवधी, अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग
शैली– दोहा-चौपाई शैली
रचनाएँ- पदमावत, अखरावट, आखिरी कलाम
प्रश्न- मलिक मुहम्मद जायसी का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
जीवन-परिचय- हिन्दी के भक्ति साहित्य में प्रेमाश्रयी निर्गुण भक्ति शाखा के प्रवर्तक प्रसिद्ध सूफी सन्त और प्रेमकाव्य के सफल कवि मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म सन् 1492 ई० के लगभग जायस नामक स्थान पर हुआ था। 'आखिरी कलाम' नामक ग्रन्थ में इन्होने अपने जन्मकाल तथा जन्म-स्थान का स्वयं संकेत किया है– "भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरम ऊपर कवि बदी।" तथा "जायस नगर मोर स्थानू" कुछ विद्वान जायसी का जन्म-स्थान “गाजीपुर” मानते हैं किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। इनके पिता का नाम शेख ममरेज था किन्तु माता का नाम अज्ञात है। जब जायसी बालक ही थे कि इनके माता-पिता का देहावसान हो गया। तत्पश्चात् इनका पालन-पोषण साधु-सन्तों में ही हुआ। सूफी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध पीर शेख मोहदी इनके गुरु थे। जायसी की शिक्षा के विषय में कुछ पता नहीं चलता परन्तु इतना निश्चित है कि जायसी को वेदान्त, ज्योतिष, दर्शन, रसायन और हठयोग का पर्याप्त ज्ञान था।
जायसी देखने में कुरूप थे। उनके मुख पर चेचक के दाग थे। चेचक के प्रकोप से उनकी बायी आँख और कान क्षीण हो गये थे। इनकी वाणी में विचित्र शक्ति थी। कहा जाता है कि एक बार बादशाह शेरशाह | जायसी के कुरूप को देखकर हँस पड़े थे तब इन्होंने कहा था- "मोहिं का हँससि कै कोहरहि” अर्थात तुम मुझ पर हुँसे हो अथवा उस कुम्हार (विधाता) पर जिसने मुझे बनाया है! इस पर शेरशाह बड़ा लज्जित हुआ था। मलिक मुहम्मद जायसी गाजीपुर और भोजपुर के राजदरबार में रहते थे किन्तु वे बाद में अमेठी के राजा भानसिंह के दरबाह में चले गये थे। कहते हैं कि इनकी मृत्यु किसी शिकारी की गोली से सन 1542 ई० हुई थी।
साहित्यिक कृतियाँ–
जायसी की कई रचनाएँ बतायी जाती हैं, जिनमें से निम्नलिखित कृतियाँ उपलब्ध हैं-
1. पद्मावत– यह जायसी की सर्वोत्कृष्ट रचना तथा हिंदी का श्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और पद्मावती के प्रेम की कहानी है।
2. अखरावट– इसमें ईश्वर, जीव, सृष्टि आदि से सम्बन्धित सिद्धान्त वर्णित हैं। ।
3. आखिरी-कलाम– इस ग्रन्थ में कयामत (महाप्रलय) का वर्णन है।
4. चित्ररेखा– यह प्रेमकाव्य है। इसमें कन्नौज के राजकुमार प्रीतम सिंह तथा चन्द्रपुर नरेश चन्द्रभानु की राजकुमारी चित्ररेखा की प्रेमकथा वर्णित है।
प्रश्न- कविवर मलिक मुहम्मद जायसी की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
प्रेम के उपासक कविवर जायसी हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि थे। हिन्दी काव्य को समृद्ध बनाने वालों में उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इनके काव्य में मुख्यतः: निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं-
बिरह-वर्णन– कविवर जायसी ने श्रृंगार के संयोग और वियोग, दोनों पक्षों का बहुत सुन्दर तथा स्वाभाविक चित्रण किया है तथापि संयोग की अपेक्षा वियोग वर्णन में उन्हें अधिक सफलता मिली है। नागमती का वियोग वर्णन हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है। रत्नसेन का उभयपक्षी वियोग भी अत्यन्त मनोहर चित्रित हुआ है। प्रेम की जो अभिव्यंजना नागमती के विरह वर्णन में हुई, वह अन्यत्र दुर्लभ है। नागमती के विरह में ताप की लपटों का प्रभाव देखिए-
"जेहि पंखी के नियरे होइ, कहें विरह की बात।
सोइ पंखी जाई जरि, तरुवर होइ निपात॥"
नागमती की विरह की अग्नि केवल नागमती तक ही सीमित नहीं है, उसमें जड़-चेतन सम्पूर्ण संसार झुलस रहा है–
नैनन चली रकत कै धारा। कथा भीजि भयउ रतनारा॥
सूरज बूड़ि गया हुई ताता। ओ मज़ीठ टेसू बन राता॥
औ बसन्त राता वनस्पति । ओ राते सब जोगी जती॥
बिरह की यह अवस्था व्यक्ति से उठकर प्रकृति से साम्य कर लेती है। नागमती का प्रेम शुद्ध तत्व पर आधारित है। उसमें वासना का लेश भी नहीं है। नागमती के विरह वर्णन के अन्तर्गत ही वह प्रसिद्ध बारहमासा है जिसमें विरह वेदना का निर्मल स्वरूप, हिन्दू दाम्पत्य-जीवन की मर्मस्पर्शी मधुरता, चारों ओर फैली हुई प्राकृतिक वस्तुओं तथा व्यापारों से भारतीय हृदय का साहचर्य तथा सरस, मधुर, प्रवाहमयी स्वाभाविक भाषा– सब कुछ एक साथ देखने को मिलते हैं। जायसी का यह बारहमासा हिन्दी साहित्य में प्रकृति का उद्दीपन विभाव के रूप में अद्भुत चित्रण है। उनके विरह वर्णन में कल्पना की बहुत ऊँची उड़ान है। नागमती अपने पति से मिलना चाहती है। कवि की ऊँची कल्पना देखिए–
“यह तन जारों छार करि, कहौ कि पवन उड़ाव।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, “कन्त धरै जँह पाँव॥”
यह ठीक है कि जायसी ने विरह वर्णन मे अत्युक्तियों का सहारा लिया है किन्तु उनकी अत्युक्तियों में भी गम्भीरता और स्वाभाविकता है।
आध्यात्मिक भावना– पद्मावती और रत्नसेन की इस प्रेम कहानी को जायसी ने सूफियों की परमार्थिक साधना का रूप दिया है। इस प्रेमकाव्य में लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति की गयी है। कहीं-कहीं तो प्रेम वर्णन में इतनी गम्भीरता और, व्यापकता आ गयी है मानो कवि अलौकिक प्रेम का ही वर्णन कर रहा हो। रत्नसेन की पद्मावती तक पहुँचने की प्रेम साधना आत्मा के ईश्वर तक पहुँचने का प्रेममार्ग है। सुआ (तोता) गुरु का प्रतीक है जो उचित प्रेममार्ग दिखाता है। नागमती संसार का बंधन जाल है जो रत्नसेन रूपी साधक के प्रेममार्ग में बाधक है। पद्मावती बुद्धि अथवा स्वयं परमात्मा का प्रतीक है। राघव चेतन शैतान तथा अलाउददीन माया का रूप है जो साधक रत्नसेन के प्रियतमा रूप परमात्मा से मिलने में बाधक होता है। जायसी ने यह भी दावा किया है कि पद्मावत के अर्थ बड़े-बड़े पंडितों की बुद्धि से परे हैं–
“मैं एहि अरथ पंडितन्ह बूझा।
कहा कि हम्ह कछु और न सूझा॥''
इस काव्य में कवि ने भारतीय हिन्दू घराने की कथा के माध्यम से सूफी सिद्धान्तों की रूपरेखा प्रस्तुत की है।
रहस्यवाद– कविवर जायसी ने अपने 'पद्मावत' काव्य में लौकिक प्रेम के द्वारा अलौकिक प्रेम का चित्रण किया है। 'पद्मावत' में अनेक ऐसे स्थल हैं जहों लौकिक पक्ष से अलौकिक की ओर संकेत किया गया है।
'पद्मावत' का प्रेम खण्ड उत्तम कोटि की रहस्यवादी रचना है। 'नख-शिख-वर्णन' और अन्य कुछ वर्णनों में भी रहस्यवाद की झलक मिलती है। पदमावती सौंदर्य में जायसी ने परमात्मा की ओर संकेत किया है।
नमन जो देखा कंवल भा, निर्मल नीर सरीर।
हँसते जो देखा हंस भा, दसन ज्योतिनग-हीर॥
तोते के मुख से पद्मावती का नख-शिख-वर्णन सुनकर राजा रत्नसेन मूर्छित हो जाता है। मूर्छित अवस्था में उसे उस परम ज्योति से मिलन की अनुभूति होती है। मूर्च्छा भंग होने पर वह रोने लगता है-
“आवत जग बालक जस रोवा। उठा रोइ हा ज्ञान सो खोवा।
हौ तो अहाँ अमरपुर जहाँ। इहाँ मरन पुर आएहूँ कहाँ॥
प्रकृति के बीच रहस्यमय सत्ता का आभास भी जायसी ने बड़ी मार्मिकता के साथ किया है-
“रवि ससि नखत दिपत ओहि जोति। रतन पदारथ मानिक मोती।
जहँ जहँ विहँसि सुभावहि हँसी। तहँ-तहँ छिटकि जोति परगसी॥
परमात्मा के अनन्त सौन्दर्य की झलक सृष्टि के सभी पदार्थों में पायी जाती है। परम ब्रह्म की भक्ति का परिचय देते हुए कवि कहता है-
“उन वानन अस को जो न मारा। वेधि रहा सगरौ संसारा॥
जायसी पर हठयोग का भी प्रभाव था। अतः उन्होंने साधनात्मक रहस्यवाद भी अपनाया है-
“नौ पौरि पर दसम दुआरा। तेहि पर बजे राज घरियारा।
नव पर नीर खीर दुई नदी। पानी भरहिं जैसे दुरपदी ॥”
जायसी के पदमावत में रहस्यवाद के अनेक मार्मिक स्थल हैं। पं० रामचन्द्र शुक्ल तो जायसी के काव्य में ही सच्चा रहस्यवाद समझते हैं– "हिन्दी के कवियों में यदि कहीं रमणीय और सुन्दर रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी कविता बहुत उच्च कोटि की है।"
आंतरिक-भाव वर्णन– मलिक मुहम्मद जायसी ने आन्तरिक एवं बाह्य वर्णन चित्रण में अद्वितीय सफलता प्राप्त की है। नागमती के हृदय के आन्तरिक भाव- अभिलाषा, उत्कण्ठा विरह, सहानुभूति एवं विवशता आदि का चित्रण सजीव ढंग से किया है, प्रिय मिलन की अभिलाषा में अपने को मिटाकर राख कर देने के भाव में प्रेम की पराकाण्ठा है-
“यह तन जारों मसि करौं, कहौं कि पवन उड़ाय।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कन्त धरै जहँ पाय ॥”
पति के परदेश में होने पर नागमती समस्त सुख को भूल गयी।
“जिन घर कन्ता ते सुखी, जिन गारौ-औगर्व ।
कन्त पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्व॥”
भाषा-शैली– जायसी ने अवधी भाषा में काव्य रचना की है। इनकी भाषा में अरबी, फारसी के शब्दों की अधिकता है। शब्दों में तोड़-मरोड़ भी पर्याप्त मात्रा में की गयी है। जायसी ने दोहा-चौपाई शैली में अपने 'पद्मावत' काव्य की रचना की है जिसे आगे चलकर तुलसी जैसे महान कवि ने भी अपने 'रामचरिसमानस' के लिए उपयुक्त समझा। कवि अवधी भाषा में अलंकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृशमूलक अलंकारों का अधिक प्रयोग हुआ है। 'पदमावत' काव्य की रचना फारसी की मसनवी शैली में की गयी है। कथा का खणडों में विभाजन, कथा के आरभ्भ में खुदा की स्तुति, मुहम्मद आदि पैगम्बरों क़ी प्रार्थना और वर्णन की अधिकता आदि सब कुछ मसनबी शैली के अनुसार है। सामान्य सरल भाषा एवं शैली की दृष्टि से कवि पूर्णरूपेण सफल है, शैली में भावात्मकता एवं प्रसाद गुण विद्यमान है।
छन्द एवं अलंकार विधान– दोहा चौपाई वाली प्रबन्धात्मक शैली अपनाते हुए कवि ने सरस काव्य लिखकर, जन मानस को रससिक्त किया है।
कवि ने अपनी कविता में अलंकार लाने का प्रयास नहीं किया है। अतिशयोक्ति, उपमा रूपक, उत्प्रेक्षा एवं अनुप्रसादि अलंकार स्वत: ही इनके काव्य में आ गये हैं। भावाभिव्यक्ति में कवि के अलंकार सहायक ही हुए हैं बाधक नहीं।