महाकवि भूषण - जीवन परिचय, कृतियाँ, भाषा शैली
Mahakavi Bhushan Ka Jivan Parichay- महाकवि भूषण का जीवन परिचय, साहित्यिक कृतियां, काव्यगत विशेषताएँ, भाषा-शैली
“अपने युग के कवियों में कविवर भूषण का सिर सबसे ऊँचा है। उनके व्यक्तित्व के आगे कोई टिक नहीं सका। अपने समय के वे बेजोड़ कवि हैं।” –राजेन्द्र सिंह गौड़, एम०ए०
"हिन्दुत्व की प्रदीप्त आत्मा कर्मक्षेत्र में शिवाजी के और भावना के क्षेत्र में भूषण के रुप में जाज्वल्यवती हुई थी। भूषण प्रोद्वर्तीत भावना क्षेत्र के शिवाजी थे और शिवाजी कठोर कर्मक्षेत्र के भूषण।" –डॉ० सूर्यकान्त
मृत्यु- सन् 1715 ई०
पिता- रत्नाकर त्रिपाठी
जन्म स्थान- त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर )
आश्रित कवि- चित्रकूट के राजा रुद्रराम सोलंकी ने “भूषण” की उपाधि दीं। शिवाजी तथा छत्रसाल के आश्रय में रहे।
काव्यगत विशेषताएँ- रीतिकाल में वीर रस की कविता, राष्ट्रीयता की भावना।
शैली- कवित्त सवैया की मुक्तक काव्य शैली, शब्दालंकारों के पचड़े में शब्दों की बहुत तोड़-मरोड़।
प्रश्न- महाकवि भूषण का संक्षिप्त जीवन परिचय तथा कृतियों का उल्लेख कीजिए।
जीवन परिचय-
भूषण ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ शिवराज भूषण में अपना परिचय स्वयं दिया है-
“दुज कन्नोज कुल कस्यपि, रत्नाकर सुत धीर।
बसत त्रिविक्रमपुर सदा, तरनि-तनूजा-तीर ॥
कुल सुलंक चित्र कूट पति, साहस सील समुद्र।
कवि 'भूषण' पदवी दई, हृदय राम सुत रुद्र॥”
इस कथन के अनुसार भूषण का जन्म यमुना तट पर स्थित त्रिविक्रमपुर (वर्तमान तिकवॉपुर) जिला कानपुर में रत्नाकर त्रिपाठी के यहाँ हुआ था। भूषण के जन्मकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। पं० रामचन्द्र शुक्ल और मिश्र बन्धुओं ने भूषण का जन्म सं० 1670 वि० (सन् 1613 ई०) के आस-पास माना है। दूसरी ओर 'शिवसिंह सरोज' में इनका जन्म सं० 1738 वि (सन् 1681) बताया गया है। श्री भगीरथ प्रसाद दीक्षित ने भी अपने 'भूषण-विमर्श' ग्रन्थ में भूषण का जन्मे सं० 1738 वि० ही माना है। किन्तु पुष्ट प्रमाणों के आधार पर उनका जन्मकाल सं० 1670 (सन् 1613 ई०) वि० ही मानना अधिक समीचीन जान पड़ता है।
कहा जाता है कि भूषण 20 वर्ष की आयु तक बिल्कुल निरक्षर रहे और इसके पश्चात् अपनी भाभी के ताने सुनकर घर से खाली हाथ निकल पड़े और तन-मन से परिश्रम करके उच्च कोटि के विद्वान बन गये। भूषण अनेक राजाओं के आश्रय में रहे परन्तु अपने मुनोनुकूल आश्रयदाता उन्हें शिवाजी ही मिले। चित्रकूट के राजा रुद्रराम सोलंकी ने इन्हें कवि भूषण की उपाधि दी थी। सं० 1781 में इनकी शिवाजी से भेंट हुई। शिवाजी इन्हें सम्मानपूर्वक अपने दरबार में ले गये और इन्हें अपना राजकवि बनाया। कहते हैं कि शिवाजी ने भूषण के एक-एक पद पर लाखों रुपये तथा जागीरें पुरस्कार में दी थीं। भूषण शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् छत्रसाल बुन्देला के दरबार में भी रहे। कहते हैं कि छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपना कन्धा लगाकर अपनी गुण-ग्राहकता का परिचय दिया था। मतिराम, चिन्तामणि और जटाशंकर भूषण के तीन अन्य भाई थे। ये चारों ही भाई उच्च कोटि के विद्वान् और अच्छे कवि थे।
साहित्यिक कृतियाँ–
भूषण की तीन रचनाएँ प्राप्त हैं–
(1) शिवराज भूषण, (2) शिवा बावनी, और (3) छत्रसाल दशक।
इनके अतिरिक्त भूषण उल्लास, 'दूषण उल्लास' तथा 'भूषण हजारा' इनकी तीन रचनाएँ और बतायी जाती हैं जो अभी तक उपलब्ध नहीं हो पायी हैं।
प्रश्न- महाकवि भूषण की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
जिस समग्र अन्य रीतिकालीन कवि श्रृंगार की गन्दी गलियों में भटक रहे थे, उस समय कराहते हुए राष्ट्र के संजीवनी दाता कविवर भूषण ने वीर रस की पवित्र गंगा बहाकर भगवती भारती को समुज्ज्वल किया। जिस समय कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की चाटूकारिता एवं नायिकाओं के नख-शिख वर्णन में ही कविता की इतिश्री समझ ली थी, उस समय भारती के इस वरद पुत्र भूषण ने शिवाजी और छत्रसाल जैसे राष्ट्रनायकों एवं लोकरक्षक वीरवरों को अपने काव्य का विषय बनाकर उस कुत्सित परम्परा का विरोध किया और जनता में उत्साह एवं शक्ति का संचार किया। इस प्रकार भूषण ने उस समय की काव्यधारा में न बहकर अपने लिए नया मार्ग निश्चित किया था।
वीर रस की प्रधानता–
श्रृंगार-प्रधान रीतिकाल में रहते हुए भी भूषण ने वीर रस से ओतप्रोत काव्य की रचना की है। इन्होंने युद्धवीर, दानवीर, कर्मवीर तथा दयावीर, सबका शिवाजी और छत्रसाल के वर्णन में सुन्दर निर्वाह किया है किन्तु महत्त्व दिया है युद्धवीर को ही। युद्धवीरता के भूषण ने जो चित्र खींचे हैं वे सचमुच अनोखे हैं। वीर के सहायक रौद्र तथा वीभत्स का भी भूषण के काव्य में सुन्दर परिपाक हुआ है।
राष्ट्रीयता–
भूषण जैसे स्वाभिमानी कवि के लिए राष्ट्रीय गौरव को धारण करना स्वाभाविक ही था। भूषण ने भारतीय संस्कृति पर विदेशियों द्वारा किये गये कुठाराघातों को अपनी आँखों से देखा था। भूषण का स्वाभिमानी हृदय इसे कैसे सहन कर सकता था कि मथुरा के मन्दिरों के स्थान पर मस्जिदों का निर्माण हो और काशी की कला का गला घोंट कर भारतीय संस्कृति का अपमान किया जाये। यह सब तलवार के बल पर हो रहा था; अतः राष्ट्रीय-गौरव की रक्षा के लिए अभेद्य कवच के समान अपनी लेखनी को ग्रहण कर भूषण मैदान में उतरे और उन्होंने निर्भीक होकर अत्याचारी एवं मदान्ध मुगल सम्राट औरंगजेब की कपटपूर्ण काली करतूतों पर मजबूत रोक लगायी और राष्ट्रीय गौरव के रक्षक छत्रपति शिवाजी का चरित्र एक सच्चे - राष्ट्रनायक के रूप में प्रस्तुत किया जिसने भारतीय जनता में नवजीवन का संचार किया। तात्पर्य यह है कि भूषण की कविता राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत है।
कलापक्ष-
भूषण की भाषा–
भूषण ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की है। भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार है। भूषण ने भाषा में ओज लाने के लिए संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फारसी, बुन्देलखण्डी तथा राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। खलक, नशीन, जशन, हरम, दौलत, उमराव जैसे फारसी तथा अरबी के शब्दों की तो उनकी भाषा में भरमार है। उनके साथ ही पब्बत, कित्त, टिल्लिय जैसे डिंगल भाषा के शब्दो का भी पर्याप्त प्रयोग है। विदेशी भाषाओं के तदभव शब्दों को भी इन्होंने अपनाया है। कहीं-कहीं तो विदेशी शब्दों को अपनी भाषा के साँचे में ढालकर ऐसा बना लिया है कि वे विदेशी मालूम ही नहीं पड़ते है; जैसे बेहद से विहद, सरजाह से सरजा आदि। भाषा में ओज उत्पन्न करने तथा शब्दालंकारों की योजना के लिए शब्दों की तोड़-मरोड़ करने में भी भूषण ने कसर नहीं रखी है। मुहावरों और लोकोक्तियों का उन्होने बहुत सुन्दर प्रयोग किया है। देखिए 'नाक काटना' मुहावरे का प्रभाव-वर्धक प्रयोग-"कटि गयी नाक सिगरेइ दिल्ली दल की।"
अलंकार योजना–
भूषण के अलंकार कविता कामिनी पर भार न बनकर रस परिपाक मे सहायक हुए हैं। शब्दालंकारों के फेर में पड़कर उन्होंने शब्दों की तोड-मरोड़ अवश्य की है जिससे भाषा क्लिष्ट और जटिल हो गयी है, परन्तु इनकी भाषा में ओज और प्रवाह निरन्तर बना रहता है। यमक अलंकार का एक उदाहरण प्रस्तुत है–
“पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने बीर,
तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के॥”
वास्तव में भूषण एक महान् राष्ट्रवादी कवि थे। वीर रस का वर्णन करने में उन्हें अपूर्व सफलता मिली है। भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही दृष्टियों से उनकी कविता उत्तम श्रेणी की हैं।