आचार्य केशवदास- जीवन परिचय, कृतियाँ, भाषा शैली

केशव को कवि हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत से सामग्री लेकर अपने पाण्डित्य और रचना कौशल की धाक जमाना चाहते थे परन्तु इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए, वैसा उन्हें प्राप्त न था।" –पं० रामचन्द्र शुक्ल

स्मरणीय संकेत 
जन्म– सन्‌ 1555 ई० 
मृत्यु– सन्‌ 1617 ई० 
निवास-स्थान– ओरछा के निकट कोई गाँव
पिता– पं० काशीनाथ मिश्र (पूर्वज राजपंडित), ओरछा नरेश के राजपंडित
काव्यगत विशेषताएँ– अलंकारवादी कवि, अश्लील श्रृंगार का चित्रण, रीतिकालीन परम्परा के प्रवर्तक पाण्डित्य प्रदर्शन। 
भाषा– क्लिष्ट जटिल ब्रजभाषा, बुन्देलखण्डी शब्दों और मुहावरों की अधिकता, अपभ्रंश के शब्द, संस्कृत शब्दों का बाहुल्‍य। 
शैली– मुक्तक तथा प्रबन्ध- दोनों शैली, अनेक छन्द। 
रचनाएँ- 'रामचन्द्रिका', वीरसिंह देव चरित, कविप्रिया, रसिक प्रिया।

प्रश्न– केशवदास का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।

Keshav das ka jivan parichay

जीवन परिचय- आचार्य केशवदास का जन्म सन्‌ 1555 ई० (सं० 1612 वि०) में ओरछा के निकट एक गाँव के सनाढय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता पं० काशीनाथ मिश्र ज्योतिष के प्रकाण्ड पंडित थे। बड़े भाई संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान्‌ थे। कविवर केशवदास के परिवारीजन संस्कृत में ही वान्तलिप करते थे। लोक भाषा में कविता केवल केशवदास ने ही की थी–

“भाषा बोलन जानईं, जिनके कुल के दास। 
तेहि भाषा कविता करी, जड़मति केशवदास॥

इनके पूर्वज बहुत समय से राजपंडित रहते आये थे। वंश परम्परा के अनुसार केशव भी संस्कृत के महान पंडित हुए। ये ओरछा नरेश इन्द्रजीत सिंह के राजपंडित थे जिन्होंने इन्हें अपना गुरु मानकर इक्कीस गाँवों की जागीर दी थी–

“गुरू करि मान्यों इन्द्रजीत, तन मन कृपा बिचारि। 
ग्राम दए इक बीस तब, ताके पाँय पखारि॥

केशव का जीवन राजसी ठाट बाट का था। ये स्वभाव से गम्भीर तथा स्वाभिमानी थे। अपनी प्रशंसा के एक पद पर बीरबल नें इन्हें छः हजार रुपये की हुण्डियाँ न्‍यौछावर कर दी थीं। एक बार इन्द्रजीत सिंह ने अपनी प्रसिद्व वेश्या रायप्रवीण को मुगल दरबार में भेजने से इन्कार कर दिया तो बादशाह ने इन्द्रजीत पर 1 लाख रुपये का जुर्माना कर दिया था। तब केशव ने मुगल दरबार में जाकर वह जुर्माना माफ करा दिया था। रायप्रवीण वेश्या होते हुए भी बड़ी चतुर और धर्मपरायण थी। उसको काव्य शिक्षा देने के लिए केशव ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कविप्रिया' की रचना की थी। इन्द्रजीत सिंह के बाद वीरसिंह ओरछा के राजा हुए और केशव उनके दरबारी कवि हुए। केशवदास के विवाह अथवा सन्‍तान के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है किन्तु इतना अवश्य है कि वे बड़े रसिक थे।

साहित्यिक कृतियाँ–

केशव की 9 रचनाएँ प्राप्त हैं- (1) कविप्रिया, (2) रसिक प्रिया, (3) रतन बावनी, (4) रामचन्द्रिका, (5) वीरसिंह देव चरित, (6) जहाँगीर जस चन्द्रिका, (7) विज्ञान गीता, (8) नख-शिख, और (9) रसालंकृत मंजरी। इन सभी ग्रन्धों में 'रामचन्द्रिका' सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न– केशवदास की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

केशव अलंकारवादी कवि थे। अलंकारों में दब कर उनकी कविता बोझिल हो गयी है। अतः उनकी कविता में रस परिपाक सुन्दर नहीं हो सका है। अपने 'रसिक प्रिया' ग्रन्थ में केशव ने यद्यपि नौ रसों का वर्णन किया है किन्तु उनका मूल प्रतिपाद श्रृंगार है। वे रसराज श्रृंगार में ही सब रसों का समावेश करना चाहते थे, परन्तु असफल रहे। श्रृंगार का उन्होंने अश्लील चित्रण किया है। वास्तव में श्रीकृष्ण को रसिक नायक के रूप में चित्रित कर केशव ने ही रीतिकालीन कवियो के लिए अश्लील श्रृंगार का मार्ग प्रशस्त किया था। रीतिकालीन कवियों ने राधा-कृष्ण से सम्बन्धित जो अश्लील कविताएँ की हैं, उनका अधिकतर दायित्व केशव पर ही है। उनके काव्य में भावपक्ष कलापक्ष के नीचें दब गया है।

विलासिता– केशव का जीवन दरबार के ठाठ-बाट में बीता था। राजविलास की चटक-मटक और विलासिता में रहकर वे स्वयं भी विलासी हो गये थे, इसीलिए उनकी कविता में हृदय की अपेक्षा बुद्धि पक्ष की प्रबलता है। उसमें पांडित्य अधिक है और भावुकता कम। रचना कौशल तो है किन्तु सरसता का अभाव है।

पांडित्य प्रदर्शन– केशव अपने पांडित्य की धाक ज़माना चाहते थे। संस्कृत काव्यों की उक्तियों को उन्होंने अपने काव्य में संजोया है किन्तु भाषा की असमर्थता के कारण वे उन्हें स्पष्ट नहीं कर सके। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि केशव में हृदय था ही नहीं। जहाँ उन्होंने स्वाभाविक ढंग से कविता की है, वहां उनकी कविता सरस और मर्मस्पर्शी हो गयी है। राजदरबार के विलासमय वातावरण में रहते हुए भी जब कभी वे ज्ञान की अनुभूति की दशा में होते थे, तब उनके मुख से मधुर सरस उक्तियाँ भी निकल पड़ती थीं। परस्त्रीगमन के विषय में उनकी अनुभूति देखिए– 

“पावक पाप शिखा बड़वारी,
जारत है नर को परनारी।"

संसार के मायाजाल को देखकर वे कह उठते हैं– 

“जग माँझ है दुःख जाल।
सुख है कहाँ कलि काल।"

परन्तु इस प्रकार के स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी स्थल केशव की कविता में बहुत कम हैं। पांडित्य प्रदर्शन के चक्कर में पड़कर उनकी कविता का भावपक्ष बहुत दुर्बल हो गया है। यही कारण है कि केशब की कविता अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी।

प्रकृति वर्णन– प्रकृति को केशव ने श्रृंगार रस के उद्दीपन के रूप में चित्रित फिया है। प्रकृति चित्रण में उन्हें विशेष सफलता नहीं मिल सकी। कहीं-कहीं तो उनकी उपमाएँ बहुत भद्दी हो गयी हैं। अनुप्रास के लोभ में वे पंचवटी की उपमा धूर्जटी से दे डालते हैं। कही कहीं जहाँ वे स्वाभाविकता में आये हैं वहाँ प्रकृति का सुन्दर चित्रण भी मिलता है, पर ऐसे प्रसंग बहुत कम हैं। पांडित्य प्रदर्शन के चक्कर में पड़कर उनका प्रकृति चित्रण भी प्राय: निर्जीव-सा हो गया है।

केशव का कवित्व– केशव को आलोचक सहृदय कवि नहीं मानते। किसी ने तो उन्हें “कठिन काव्य का प्रेत" तक कह डाला है परन्तु ऐसा नहीं है। निम्नलिखित भावाभिव्यंजक पंक्तियों में केशव का कवित्व फूट पड़ा है। हनुमान जी के अँगूठी गिराने पर सीता कह उठती हैं-

“श्रीपुर में, बन मध्य हौं, तू मग कारी अनीति। 
कह मुंदरी! इन तियनि की, को करिहैं परतीति।”

वियोगिनी सीता का मार्मिक चित्र कितना सजीव एवं काव्यकला सम्पन्न है। 

“धरे एक बेगी, धरे चैल सारी। मृणाली मनौ पंक तें काढ़ि डारी॥”

कलापक्ष–

केशव की भाषा- केशव की भाषा क्लिष्ट एवं जटिल है। उसमें बुन्देलखण्डी के शब्दों और मुहावरों की अधिकता है। अपभ्रंश के गुलसुई, गोरमदाइन, हुतो, समरथ्य, दुल्लिय आदि शब्दों का प्रयोग है और साथ ही संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित होने के कारण संस्कृत के शब्दों की भी भरमार है। कहीं-कहीं अवधी के शब्द भी दिलाई पड़ते हैं।
केशव की भाषा में ओजगुण की प्रधानता है किन्तु प्रसाद और माधुर्य गुणों का उसमें सर्वथा अभाव है। पांडित्य प्रदर्शन की भावना के कारण उनकी भाषा अत्यन्त क्लिष्ट हो गयी है। उसमें जगह-जगह पर न्यून पदत्व तथा अधिक पदत्व आदि दोष पाये जाते हैं।
संवाद- हिंन्दी साहित्य में केशवदास के संवाद प्रसिद्ध हैं। कवि संवाद लेखन में सिद्धहस्त हैं। संवाद सरल, नुकीले, चुभते हुए तथा व्यंग्य प्रधान होते हैं। संवाद लेखन में कवि साधिकार भाषा प्रयोग करता हुआ दृष्टिगोचर होता है। अंगद-रावण संवाद का एक अंश देखिए-

“कौन के सुत? बालिके, वह कौन बालि, न जानहीं। 
काँख चापि तुम्हें जो सागर सात नहात बखानहीं॥”

केशव की शैली– केशवदास जी की शैली क्लिष्ट एवं आलंकारिक है। शैली में उनका व्यक्तित्व झलकता है। वस्तु वर्णन में इन्होंने वर्णनात्मक शैली को अपनाया है। इनकी काव्य शैली के दो रूप हैं-(1) मुक्तक शैली, और (2) प्रबन्ध शैली। मुक्तक शैली में 'कविप्रिया' और 'रसिक प्रिया' काव्यों की रचना हुई है। इनमें कवित्त और सवैया छन्दों में काव्यशास्त्र का विवेचन किया गया है। 'रामचन्द्रिका' एवं 'वीरसिंह देव चरित' आदि इनके प्रबन्ध काव्य हैं। 'रामचन्द्रिका' में वर्णिक और मात्रिक अनेक छन्दों का प्रयोग किया गया है, इसे छन्दों का पिटारा कहा जा सकता है। इनमें कुछ छन्द तो ऐसे हैं जिनका किसी अन्य हिन्दी काव्य में प्रयोग ही नहीं मिलता है। राजदरबार में रहने के कारण केशव में अद्भुत वाग्विदग्धता है। इसलिए उनके संवादों में सजीवता आ गयी है। 'रामचन्द्रिका' में 'अंगद-रावण संवाद', 'लक्ष्मण-परशुराम संवाद' आदि स्थलों पर उन्होंने बहुत ही सूझ-बूझ से काम लिया है।

केशव का आचार्यत्व– केशव हिन्दी के प्रथम आचार्य और रीति मार्ग के प्रवर्तक कहे जाते हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका महत्त्व कवि के रूप में नहीं, आचार्य के रूप में है और इस रूप में वे अपना उपमान नहीं रखते हैं। हिन्दी में काव्यशास्त्र लिखने की परम्परा को जन्म देने वाले आचार्य केशव ही हैं। हिन्दी की रीतिकाव्य परम्परा को जन्म देकर केशव ने एक युग प्रवर्तक का कार्य किया है। संस्कृत के महान पंडित, काव्यशास्त्र के ज्ञाता और राजगुरु होने के कारण सहज ही आचार्यत्व का गुण उनमें प्रतिष्ठित हो गया था। 'रसिक प्रिया' और 'कविप्रिया' उनके आचार्यत्व के स्पष्ट प्रमाण हैं। उनके आचार्यत्व के समक्ष कविता की भावमयता दब जाती है-

“अरुण गात अति प्रात पद्मिनी प्राण नाथ भय। 
मानहूँ 'केसवदास' कोकनद कोक प्रेम मय॥ 
परियूस सिन्दूर पूर कैधों मंगल-घट। 
केधौं शक्रकौ छत्र मढयौ मानिक मयूखु पट॥ 
कै स्रोनित कलित कपाल यह, किल क्रापालिक काल को। 
यह ललित लाल केधौं लसत, दिग्‌ भामिनि के भाल को।।”

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