जगन्नाथदास 'रत्नाकर' का जीवन परिचय
“अपने समय के सभी कवियों में चाहे वे ब्रजभाषा के हों अथवा खड़ी बोली के, काव्य और कला की दृष्टि से रत्नाकर जी का स्थान सर्वोच्च है।" – आचार्य शुक्ल
मृत्यु– सन् 1932 ई०
जन्म स्थान– काशी
पिता– पुरुषोत्तम दास।
नौकरी– अवागढ़ राज्य के खजाने के निरीक्षक, अयोध्या नरेश के सचिव, बाद में महारानी के सचिव
भाषा– मधुर ब्रजभाषा, कोमल भावों के अनुकूल
शैली– मुक्तक कवित्त सवैया शैली, अलंकारों की योजना में सिद्धहस्त
काव्यगत विशेषताएँ– सरस सूक्तियों का प्रयोग, करुण रस का अनुपम वर्णन
रचनाएँ– उद्धव-शतक, गंगावतरण, हरिश्चन्द्र, समालोचनादर्श, आदि
प्रश्न- रत्नाकर जी का संक्षिप्त जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
जीवन परिचय– ब्रजभाषा के अन्तिम कवि जगन्नाथ दास रत्नाकर का जन्म सं० 1923 वि० (सन् 1866 ई०) मे काशी नगर में एक अग्रवाल वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पूर्वज पंजाब के पानीपत जिले के निवासी थे। वे मुगल शासनकाल में आकर दिल्ली में रहने लगे थे। शाही दरबार में उन्होंने सम्मानपूर्ण पदों पर काम किया था।
रत्नाकर जी के पूर्वज तुलाराम दिल्ली से जाकर वाराणसी में रहने लगे थे। काशी में ही रत्नाकर जी का जन्म हुआ। इनके पिता पुरुषोत्तम दास फारसी के विद्वान् थे तथापि उन्हें हिन्दी से भी असीम प्रेम था। स्कूल की शिक्षा पूरी करके आप क्वींस कालेज में भर्ती हुए और सन् 1891 ई० में बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात एम०ए० में प्रवेश लिया किन्तु माता का स्वर्गवास हो गया और घरेलू-परिस्थितियों के कारण शिक्षा का क्रम आगे न चल सका।
सन् 1900 ई० में रत्नाकर जी अवागढ़ (एटा) राज्य के खजाने के निरीक्षक के रूप में नियुक्त हो गये। दो वर्ष पश्चात नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। सन् 1902 ई० में ये अयोध्या के महाराज प्रताप नरायण सिंह के निजी सचिव नियुक्त हुए। महाराज की मृत्यु के पश्चात् आप उनकी धर्मपत्नी के निजी सचिव हो गये और सन् 1928 ई० तक इसी पद पर कार्य करते रहे। इसके पश्चात आपका स्वास्थ्य काफी गिर गया और इन्होंने नौकरी छोड़ दी। अनेक संस्थाओं से आपका सम्बन्ध रहा। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति पद को भी आपने सुशोभित किया था। 21 जून सन् 1932 ई० को 66 वर्ष की आयु में हरिद्वार में इनका स्वर्गवास हो गया।
इनकी काव्य प्रतिभा पर मोहित होने के कारण इनकी मृत्यु के अवसर पर श्री सोहन लाल द्विवेदी ने अधीर होकर कहा था-
“एक स्वर्ग कण लुट जाने से हो उठता उर कातर।
कैसे धैर्य धरे वह जिसका, लुट जाये रत्नाकर॥”
साहित्यिक कृतियाँ–
रत्नाकर जी ने तीन प्रकार की रचनाएँ की हैं-
1. मौलिक रचनाएँ– गंगावतरण, हरिश्चन्द्र, उद्धव-शतक, समालोचनादर्श, श्यूंगार-लहरी, विष्णु-लहरी, रत्नाष्टक तथा वीराष्टक
2. सम्पादित रचनाएँ– हम्मीर हठ, तरंगिणी, कण्ठाभरण तथा बिहारी सतसई आदि।
3. टीका ग्रन्थ– 'बिहारी सतसई' पर आपने 'बिहारी रत्नाकर' नाम से विस्तृत टीका की है, जो 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की ओर से प्रकाशित हो चुकी है।
इनके अतिरिक्त आपने कुछ फुटकर रचनाएँ भी की हैं। 'साहित्य सुधा निधि' नामक आपने एक पत्र भी निकाला था। “गंगावतरण” पर रत्नाकर जी को अयोध्या की महारानी से एक हजार रुपये तथा हिन्दुस्तानी अकादमी से 500 रु० का पुरस्कार मिला था।
प्रश्न– रत्नाकर जी के काव्य सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
(अथवा)भाव और अभिव्यक्ति की दृष्टि से रत्नाकर की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
रत्नाकर जी ब्रजभाषा काव्य परम्परा की अन्तिम कड़ी हैं। इन्होंने प्राचीन काव्य शैली में काव्य रचना की है तथापि इनके काव्य में भावों की मौलिकता, शैली की निजता तथा भाषा का माधुर्य है। श्लिष्ट रूपक के द्वारा भाव व्यंजना में तो रत्नाकर जी ने कमाल ही कर दिया है। इनका काव्य भाव और अभिव्यक्ति (कला) दोनों ही दृष्टि से उत्तम श्रेणी का है। इनके काव्य में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं।
भावपक्ष–
रस निरूपण– रत्नाकर जी की सूक्तियाँ बड़ी सरस होती हैं। उन्होंने अधिकतर विप्रलम्भ श्रृंगार की कविताएँ की हैं। उनमें वेदना की गहरी टीस है, अतः श्रृंगार रस करुण के नीचे दब-सा गया है। श्रृंगार में छिपी हुई करुणा उनकी कविताओं में सब जगह झाँकती दिखाई पड़ती है। भवभूति की प्रसिद्ध उक्ति 'एको रस: करुण एव निमित्त भेदात्' रत्नाकर के 'उद्धव शतक' में पूर्ण रूप से चरितार्थ होती है। उनके काव्य में रवीन्द्रनाथ का यह कथन– 'हमारे सुख श्रृंगार के सम्पूर्ण साज दुःख की प्रच्छन्न छाया मिलती है' सार्थक होता है। सचमुच उनकी कविता करुणतम कथा कहती है। गोपियों के करुण चित्रण में कवि गहन रुचि पूर्वक सजीव चित्रण किया है–“कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृगपानी रही,
कोऊ धुनि-धुनि सिर परी भूमि मुरझानी है।
कोऊ स्याम-स्याम कै बहकि बिललानीं कोऊ,
कोमल करेजौ थामि सहमि सुखानी है।"
मनोभावों के चित्रण में रत्नाकर जी को अभूतपूर्व सफलता मिली है। क्रोध, प्रेम, घृणा, उत्साह आदि में उत्पन्न होने वाले अनुभावों तथा संचारी भावों का उनके काव्य में सजीव चित्र उपस्थित हो जाता है। चपलता के आवेश में गोपियों का यह कथन कितना मार्मिक है-
“एक मनमोहन तो बसि कै उजारयौ मोहिं,
हिय में अनेक मनमोहन बसाओ ना।"
रत्नाकर जी ने किसी नवीन विषय पर काव्य रचना नहीं की। उनकी उक्तियाँ सूरदास और नन्ददास आदि की उक्तियों से मिलती-जुलती हैं किन्तु उनमें रत्नाकर जी की एक निजता अवश्य है। वे सर्वथा मौलिक प्रतीत होती हैं।
प्रकृति चित्रण– रत्नाकर जी का प्रकृति चित्रण रीतिकालीन परम्परा के अनुसार हुआ है तथापि उममें उनकी अपनी विशेषताएँ हैं। उनका प्रकृति चित्रण अत्यन्त सजीव तथा मार्मिक है। गंगा प्रवाह का चित्रण निम्नलिखित पंक्तियों में दखिए
“उड़ति फुटी की फाँव फवति फहरति छवि छाई।
ज्यों परवत पर परत झील बादल बरसाई॥
तरनि-किरन ता पर विचित्र बहुरंग प्रकासे।
इन्द्र-धनुष की प्रभा दिव्य दिस भासे॥”
कलापक्ष-
भाषा शैली– रत्नाकर जी ने ब्रजभाषा के सरल और चलते रूप को अपनाया है। ब्रजभाषा की कविता का आपको विराम चिह्न समझना चाहिए। रत्नाकर जी की उक्तियाँ बड़ी ही अनुपम और अनूठी हैं। सीधी से सीधी बात को भी आप ऐसे ढंग से कहते हैं कि वे चुभती चली जाती है। सूक्तियों का मनोरम प्रयोग उनकी कविता के प्रभाव को दोगुना कर देता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उनकी सूक्तियाँ रस में डुबो-डुबो कर रखी गयी हों।छन्द अलंकार– अलंकारों और छन्दों की योजना में र॒त्नाकर जी सिद्धहस्त हैं। अलंकारों में उन्हें अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा तथा उत्प्रेक्षा आदि अधिक प्रिय रहे हैं। श्लेष के द्वारा एक-एक पद में दो-दो तीन-तीन अर्थों को रत्नाकर ने बड़ी सुन्दर रीति से पिरो दिया है। अतिशयोक्ति अलंकार तो मानो उनकी श्रृंगार रस की कविता में अनिवार्य ही हो गया है। यमक अलंकार की सुन्दर योजना देखिए-
“बारन कितेक तुम्हें, बारन कितेक करैं,
बारन उबारन ह्वै बारन वने नहीं॥"
सन्देह, भ्रान्तिमान और श्लेष की छटा भी उनके काव्य में जहाँ-तहाँ पायी जाती है। छन्दों में कवित्त, सवैया और रोला का ही उन्होंने अधिकतर प्रयोग किया है।
निष्कर्ष– इन सब विशेषताओं के कारण रत्नाकर जी हिन्दी साहित्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं। किसी आलोचक का यह कथन उनके विषय में सर्वथा यथार्थ है- “अपने समय के सभी कवियों में चाहे वे खड़ी बोली के हों अथवा ब्रजभाषा के, काव्य और क़ला की दृष्टि से रत्नाकर जी का स्थान सर्वोच्च है।”