कविवर बिहारी - जीवन परिचय, कृतियाँ, भाषा शैली

जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति जितनी अधिक होगी, मुक्तक रचना में वह उतना ही सफल होगा। अतः मुक्‍तक के लिए इन दोनों गुणों का होना भी आवश्यक है। इनके अतिरिक्त कवि में सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति, उक्ति वैचित्र्य तथा भावकलापक्ष का सुन्दर समन्‍वय भी होना चाहिए। बिहारी के काव्य में हमें ये सभी गुण दृष्टिगत होते हैं” –आचार्य रामचंद्र शुक्ल

bihari ka jivan parichay

स्मरणीय संकेत
जन्म– सन्‌ 1603 ई०
मृत्यु– सन्‌ 1663 ई०
जन्म स्थान– ग्वालियर के निकट बसुआ गोविन्दपुर ग्राम
गुरु– आचार्य केशवदास
पिता– पं० केशवराय
साहित्यिक विशेषता– बचपन में ओरछा, यौवन में मथुरा तथा बाद में कन्नौज।
अन्य बातें– मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कविं।
काव्यगत विशेषताएँ– श्रृंगार का अद्भुत चित्रण, गागर में सागर।
भाषा– मधुर, सरल, प्रसाद गुण से युक्त, ब्रजभाषा।
शैली– दोहा शैली।
रचना– बिहारी सतसई।

प्रश्न- बिहारी के जीवन तथा रचनाओं का संक्षेप में परिचय दीजिए। (अथवा) बिहारी के जीवन तथा साहित्य का परिचय दीजिए। (अथवा) बिहारी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय दीजिए

बिहारी जी का जीवन परिचय

जीवन परिचय– रीतिकाल के प्रख्यात कवि बिहारी का जन्म सन्‌ 1603 ई० में ग्वालियर में हुआ था । बचपन बुन्देलखण्ड में और युवावस्था ससुराल (मथुरा) में बीती। आपके पिता पं० केशवराय धौम्य गोत्रीय मथुरा के चौबे थे। इनका एक भाई तथा एक बहन थी। जब बिहारी सात-आठ वर्ष के ही थे, इनके पिता ग्वालियर छोड़कर ओरछा चले आये थे। उस समय ओरछा के राजदरबार में महाकवि केशव के पांडित्य की धूम थी। इन्हीं आचार्य केशव की देख-रेख में बिहारी ने काव्यशास्त्र का अध्ययन शुरू किया और थोड़े ही समय में इन्होंने काव्यशास्त्र का गम्भीर ज्ञान प्राप्त कर लिया।

जब केशव ओरछा छोड़कर गंगा तट पर चले गये तो बिहारी भी मथुरा चले गये। वहीं पर किसी माथुर ब्राह्मण की कन्या के साथ इनका विवाह हो गया। विवाह के पश्चात्‌ ये अपनी ससुराल में ही रहने लगे।

जन्म ग्वालियर जानिए, खण्ड बुन्देले बाल।
तरुनाई आई सुखद, मुथरा बसि सुसराल॥

जब मुगल बादशाह शाहजहाँ वृन्दावन आये तो उन्होंने बिहारी की प्रतिभा पर मुग्ध होकर उन्हें आगरा आने के लिए आमन्त्रित किया। बिहारी आगरा गये और वहाँ अब्दुर्रहीम खानखाना से इनकी भेंट हुई। कहते हैं कि रहीम ने बिहारी की कविता पर खुश होकर इन्हें इतनी अशर्फियाँ दान में दीं कि ये उनसे ढक गये थे। सं० 1720 विक्रमी (सन्‌ 1663 ई०) में इनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक कृतियाँ–

बिहारी ने केवल 719 दोहों की रचना की थी। इन दोहों का संग्रह 'बिहारी सतसई' के नाम से प्रसिद्ध है। यही बिहारी की एकमात्र रचना है जिसके द्वारा उन्होंने रीतिकालीन कवियों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया है।

प्रश्न- कविवर बिहारी की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

भावपक्ष तथा कलापक्ष, दोनों ही दृष्टियों से बिहारी की कविता उत्तम श्रेणी की है। उनके काव्य में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं-

भावपक्ष-

भाव सौन्‍दर्य– कविवर बिहारी रससिद्ध कवि हैं। उन्होने केवल सात सौ दोहों की रचना की है किन्तु उनके ये सात सौ दोहे हिन्दी के सात सौ अमूल्य रत्न हैं। दोहे जैसे छोटे से छन्द में गम्भीर से गम्भीर विस्तृत भावों को व्यक्त कर बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है। जो स्वाभाविकता और सरसता बिहारी के दोहों में पायी जाती है, वह रीतिकाल के किसी अन्य कवि में प्राप्त नहीं होती। बिहारी के दोहों के विषय में प्रसिद्ध है।

“सतसैया के दोहरा, ज्यों नाविक के तीर।
देखत में छोटे लगें, घाव करें गंभीर |”

भक्ति भावना– बिहारी श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद उनका अधिकतर जीवन भगवद्भक्ति में ही बीता। अपने भक्ति सम्बन्धी दोहों में उन्होंने सच्ची और दृढ़ भक्ति पर बल दिया है। उनकी भक्ति सखा भाव की है। उनका यह दृढ़ विश्वास है कि जब तक मन में कपट है तब तक उसमें भगवान का प्रवेश नहीं हो सकता-

“तौं लौ या मन-सदन में हरि आवैं केहि बाट।
निपट जटे जौं लौ विकट, खुलैं न कपट कपाट॥”

भले ही बिहारी ने भक्ति के क्षेत्र में विस्तृत रचना नहीं कीं, पर जो भी दोहे भक्ति के विषय में उन्होंने रचे हैं, वे उनके हृदय की निश्छल भक्ति को प्रकट करते हैं। बिहारी ने अपने अद्वितीय ग्रन्थ बिहारी सतसई के मंगलाचरण में 'युगल छवि' की वन्दना की है–

“मेरी भव-बाधा हरो राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँईं परै, श्याम हरित दुति होई॥

भक्ति की स्वाभाविकता एवं रसमयता निम्नलिखित दोहे से प्रकट है-

“सीस मुकुट कटि-काछनी, कर मुरली उर माल।
इहि बानक मो मन बसहु, सदा बिहारी लाल।”

बिहारी का अनुभव बहुत विस्तृत और सूक्ष्म था। अपने विशाल अनुभव के आधार पर उन्होंने जो भव्य चित्र खींचे वे अति सजीव हो गये हैं। उनके नीति सम्बन्धी दोहों में गम्भीर अनुभव की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है।

श्रृंगार वर्णन- बिहारी को सबसे अधिक सफलता श्रृंगार वर्णन में मिली है। श्रृंगार के संयोग और वियोग, दोनों ही पक्षों का चित्रण करने में उन्होंने अपूर्व कौशल दिखाया है। उनके प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे के इतने निकट पहुँच जाते हैं कि वे मानो एकाकार हो उठते हैं। अँगूठी के नग में प्रियतम के प्रतिबिम्ब को देखकर प्रेमलीन प्रेमिका का चित्र कितना स्वाभाविक है-

“कर सुंदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।
पीठ दिये निधरक लखै, इकटक दीठि लगाइ॥

परन्तु युग के प्रभाव से बिहारी भी नहीं बच सके। रीतिबद्ध कवि होने के कारण श्रृंगार का परम्परागत वर्णन ही उन्होंने अधिकतर किया है। नायिका के बाहरी रूप सौन्दर्य के वर्णन और नख-शिख विवेचन में बिहारी की दृष्टि जितनी रमी है, उतनी आन्तरिक सौन्दर्य के प्रकाशन में नहीं रम सकी। हाँ, कहीं-कहीं अवश्य उनकी मौलिक उद्भावनाएँ भी दिखाई पड़ती हैं।

वियोग श्रृंगार के वर्णन में उन्होंने पूर्वानुराग से लेकर करुणात्मक विप्रलम्भ तक के अत्यन्त मनोरम चित्र प्रस्तुत किये हैं। विरहिणी नायिका का अतिशयोक्त्तिपूर्ण एक चित्र देखिए–

"औंधाई सीसी सुलखि, विरह बरनि बिललात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटो छुइ न गात॥

प्रकृति चित्रण– बिहारी ने प्रकृति को प्रायः उद्दीपन रूप में ही ग्रहण किया है। श्रृंगार रस की सिद्धि के लिए उद्दीपन विभाव के रूप में प्रकृति का बड़ा महत्त्व है| वर्षा ऋतु का उद्दीपन के रूप में एक चित्र दर्शनीय है जो विरहिणी के लिए विशेष दाहक हो गया है–

“पावस झरते मेंह झर, दाहक दुसह विशेष।
वहै देह वाके परस, याहि दृगन ही देख॥”

प्रकृति का स्वतन्त्र चित्रण भी बिहारी ने किया है। भीष्म का प्रभाव देखिए-

“कहलाने एकत बसत, अहि मयूर मृग बाघ।
जगतु तपोवन सौ किये, दीरघ दाघ निदाघ॥”

बसन्त श्री चित्रण प्रस्तुत है–

"छकि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गंध।
ठोर-ठोर झूमत-झँपत, झौर झौर मधु अंध॥"

कवि का प्रकृति वर्णन उनकी अलंकार प्रियता से पुष्ट है–

"रनित भृंग घंटावली, झरत दान मधु नीर।
मंद मंद आवत चल्यौ, कुंजर कुंज समीर॥"

कुंज का शीतल मंद पवन हाथी चला जा रहा है– उददीपन रूप में कवि का प्रकृति चित्रण देखिए–

"सघन कुँज छाया सुखद, शीतल मंद समीर।
मन है जात अजौं बहि वा जमुना के तीर॥

नि:सन्देह प्रकृति के निरीक्षण में भी बिहारी की दृष्टि बहुत पैनी थी। यह ठीक है कि भावों का विराट रूप उनके काव्य में नहीं मिलता परन्तु उनके काव्य में जो रस के छीटे मिलते हैं, वे ही पाठक के हृदय को परिसिक्‍त करने में समर्थ हैं।

कलापक्ष-

भाषा– बिहारी का भाषा पर असाधारण अधिकार है। उनकी भाषा चुस्त तथा प्रौढ़ है। थोड़े से अक्षर और नपे-तुले शब्दों के द्वारा बड़े-से-बड़े भाव को व्यक्त करने में समर्थ बिहारी जैसा वाक्य विन्यास अन्यत्र मिल ही नहीं सकता। बिहारी ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की है। उनकी भाषा में पूर्वी, बुन्देलखण्डी, खड़ी बोली और फारसी के शब्द पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। स्वाभाविकता उनकी भाषा में सर्वत्र बनी रहती है। बिहारी की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह प्रसंग का अनुसरण करती है। नागरिका नायिका के वर्णन में भाषा भी नागरिक हो जाती है और ग्रामीण नायिका के वर्णन में भाषा भी ग्रामीण हो जाती है। शब्दों की तोड़-मरोड़ उन्होंने बहुत कम की है। तात्पर्य है कि बिहारी की भाषा सरस, कोमल, परिमार्जित और साहित्यिक है।

छन्द योजना– बिहारी ने केवल दोहा छन्द में काव्य रचना की है। कुछ सोरठा भी उन्होंने रचे हैं। चौबीस मात्राओं के छोटे से छन्द में विस्तृत भावों को वे इस सरलता से व्यक्त कर जाते हैं कि अन्य कवि कवित्त और सवैया जैसे लम्बे छन्दों द्वारा भी ऐसी स्पष्टता कठिनता से ही ला पाते हैं।

अलंकार योजना– अलंकारों का प्रयोग करने में बिहारी सिद्धहस्त हैं। अलंकारों के प्रयोग में उन्हें विशेष सफलता मिली है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, दृष्टान्त, निदर्शना, श्लेष, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का बिहारी ने बहुत सुन्दर तथा स्वाभाविक प्रयोग किया है। उत्प्रेक्षा का एक सुन्दर प्रयोग देखिए–

“मकराकृति गोपाल के, सोहत कुण्डल कान।
धरयौ मनौ हिय घर समरु, डयोढी लसत निसान॥"

अलंकार प्रयोग में अन्योक्ति के माध्यम से कविवर बिहारी ने राजा जयसिंह के व्यक्तित्व को ही बदल दिया। अन्योक्ति प्रस्तुत है–

“नहिं पराग नहि मधुर मधु, नहिं विकास इहिकाल।
अली, कली ही सौं विंध्यो, आगे कौन हवाल॥
×_________×___________×__________×
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा, देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि पर, तू पच्छीनु न मारि॥”

निष्कर्ष– भाव सामग्री की दृष्टि से बिहारी ने हिन्दी साहित्य को बहुत कम सामग्री दी है, परन्तु जो कुछ भी दी, वही बड़ी रोचक और मोहक है। इनके साहित्य में कला का उत्कर्ष चरम सीमा पर पहुँच गया है। वे रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं। बिहारी की कलात्मकता पर ही रसिकजन मुग्ध होते आये हैं और यही उनकी अनन्य लोकप्रियता का कारण है। कल्पना की समाहार शक्ति एवं भाषा की समास शक्ति के कारण बिहारी मात्र एक ग्रन्थरत्न सतसई एवं मात्र दोहे छन्‍द के कारण लोकप्रिय हुए महाकवि रहीम की उक्ति इस विषय में खरी उतरती है–

"दीरघ दोहा अर्थ के आखर थोरे आँहिं।
ज्यों रहीम नट कुण्डली, सिमिट कूदि चलि जाहिं॥"

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