अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का जीवन परिचय

जो साहित्य मनुष्य को ऊपर ले जाने वाला है, उस साहित्य के निर्माता संसार में अमर होते हैं। पूज्य कविवर हरिऔध जी ने ऐसे ही साहित्य की रचना की है जिससे देश को ऊपर उठने में कुछ सहायता मिली है।“  –देशरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद

स्मरणीय संकेत
जन्म– सन्‌ 1865 ई०
मृत्यु– सन्‌ 1945 ई०
पिता– भोलानाथ
जन्म स्थान– निजामाबाद (आजमगढ़ )
सेवाएँ– गाँव के स्कूल में अध्यापक, कानूनगो, हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में अवैतनिक अध्यापक, हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति रहे।
भाषा– खड़ी बोली व ब्रजभाषा दोनों पर समान अधिकार, संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध, लम्बे समासों वाली भाषा दूसरी ओर आम बोलचाल की मुहावरेदार खड़ी बोली।
शैली– (i) उर्दू मुहावरेदार शैली, (ii) ब्रजभाषा की श्रृंगार प्रधान शैली, (iii) संस्कृत की समास प्रधान शैली, (iv) सरस हिन्दी की शैली
काव्यगत विशेषताएँ– नवीनता और प्राचीनता का समन्वय, महान्‌ आदर्श तथा युगचेतना, पौराणिक चरित्रों को विश्वसनीय रूप दिया।
रचनाएँ– महाकाव्य, मुक्तक काव्य, आलोचना, उपन्यास, नाटक आदि विविध रचनाएँ।

प्रश्न– अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिए।

Ayodhya singh upadhyay ka jivan parichay

जीवन परिचय– काव्य कला के मर्मज्ञ कवि सम्राट्‌ अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' आधुनिक युग के महान्‌ कवि थे। आपका जन्म सं० 1922 वि० (सन्‌ 1865 ई० ) में निजामाबाद जिला आजमगढ़ में हुआ। 14 वर्ष की आयु में मिडिल पास कर आप क्वींस कालेज (काशी) में भरती हो गये। अस्वस्थ हो जाने के कारण वे इच्छा रहते हुए भी अंग्रेजी का उच्च ज्ञान प्राप्त न कर सके, संस्कृत में अवश्य उन्होंने पूर्ण विद्वत्ता प्राप्त कर ली थी। लगभग 5 वर्ष तक स्थानीय मिडिल स्कूल में अध्यापक रहने के बाद आप कानूनगों हो गये और इसी पद पर निरन्तर 20 वर्ष तक काम करते रहे। हिन्दी से उन्हें अत्यन्त स्नेह था और उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार रहते थे। कानूनगोई से अवकाश ग्रहण करने पर आप हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में अवैतनिक अध्यापक के रूप में कार्य करने लगे और हिन्दी को समृद्ध, विकसित तथा व्यापक बनाने के प्रयासों में जुट गये। स्वभाव से आप बड़े सज्जन, उदार और मधुरभाषी थे। अभिमान आपको छू तक भी नहीं पाया था। आपने खड़ी बोली हिन्दी का प्रथम महाकाव्य 'प्रिय प्रवास' हिन्दी जगत को भेंट किया जो अपने ढंग का निराला है। इस ग्रन्थ पर 'हरिऔध' जी को हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 'मंगलाप्रसाद' पारितोषिक प्रदान किया। सम्मेलन ने इन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से भी अलंकृत किया। सन्‌ 1945 ई० में आपने इस पार्थिव शरीर को त्याग दिया।

साहित्यिक कृतियाँ–

हरिऔध जी ने पद्य और गद्य, दोनों प्रकार की रचनाएँ की हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
1. महाकाव्य– प्रिय-प्रवास, वैदेही-वनवास
2. मुक्तक काव्य– चोखे-चौपदे, चुभते-चौपदे, रस-कलश, बोलचाल, पद्य-प्रसून, कल्पलता, प्रेमाम्बु प्रवाह, प्रेम पुष्पोपहार आदि
3. आलोचनात्मक ग्रन्थ– हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास, कबीर-वचनावली की आलोचना, रस-कलश आदि की भूमिकाएँ
4. उपन्यास– ठेठ हिन्दी का ठाठ, अधखिला फूल, प्रेमकान्ता
5. नाटक– प्रद्युम्न विजय, रुक्मिणी परिणय।

हरिऔध जी की रचनाओं में देशसेवा, समाज सेवा तथा राष्ट्रप्रेम की भावनाएँ प्रखर रूप में विद्यमान हैं। द्विवेदी युग के कवियों में इन्हें बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है।

प्रश्न– अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

(अथवा)

अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' के काव्य सौष्ठव की समीक्षा कीजिए।

हरिऔध जी कट्टर सनातनधर्मी थे जो राम-कृष्ण को परब्रह्म स्वरूप मानते थे किन्तु अपने काव्यों में वे आधुनिक वैज्ञानिक युग की प्रवृत्ति को साथ लेकर चले हैं। उन्होंने अपने काव्य नायक श्रीकृष्ण को युगभावना के अनुरूप एक महापुरुष के रूप में चित्रित करके उन्हें आज के बुद्धिवादी मनुष्य के लिए विश्वसनीय बना दिया है।

हरिऔध जी के काव्यों में नवीनता और प्राचीनता का अद्भुत समन्वय पाया जाता है। भावपक्ष तथा कलापक्ष, दोनों ही दृष्टि से हम हरिऔध जी के काव्य में कुछ निजी विशेषताएँ पाते हैं।

भावपक्ष–

महान्‌ आदर्श तथा युगचेतना– हरिऔध जी का हिन्दी जगत्‌ में आगमन उस समय हुआ जब देश में नयी चेतना का उदय हो रहा था। स्वामी दयानन्द, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि के प्रभाव से जनता में जागरूकता आ रही थी। ऐसे समय में होने वाले कवि के काव्य में एक प्रकार की जागरूकता तथा नवीनता का होना स्वाभाविक ही था। उनकी रचनाओं मे विश्वबंधुत्व , लोकसेवा, दीन-दु:खियों के प्रति दया, सत्य तथा अहिंसा आदि भावनाओं की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। हरिऔध जी ने पुराणों से कथानक ग्रहण किये, किन्तु पौराणिक चरित्रों को भी कुछ ऐसा रूप दिया कि वे आज के बुद्धिवादी, पौराणिक कथाओं में आस्था न रखने वाले मानव के लिए भी ग्राह्य तथा मान्य हो गये हैं। श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाये जाने वाली घटना का आधुनिक रूप दर्शनीय है–

"लख अपार प्रसार गिरीन्द्र में,
ब्रज नराधिप के प्रिय पुत्र का।
सकल लोक लगे कहने उसे,
रख लिया उँगली पर श्याम ने॥"

इतना ही नहीं ब्रज में अग्नि लग जाने पर श्री कृष्ण ने अपने कर्तव्य धर्म का पालन किया, स्वयं कृष्ण अपने कर्तव्य को वर्णन करते हुए कवि श्री हरिऔध शब्दों में–

"बिपति से रक्षण सर्वभूत का सहाय होना असहाय जीव का।
उबारना संकट में स्वजाति का, मनुष्य का सर्वप्रधान कार्य हे।
बिना न त्यागे ममता स्वप्राण की, बिना न जोखों ज्वलदाग्नि में पड़े।
न हो सका विश्व महान्‌ कार्य है, न सिद्ध होता भवजन्म हेतु है॥"

'वैदेही वनवास' काव्य में सीता और राम के चरित्र में भी हरिऔध जी ने इसी प्रकार की नवीन उद्भावनाएँ की हैं।

प्रकृति-चित्रण– हरिऔध जी ने प्रकृति चित्रण आलम्बन तथा उद्दीपन, दोनों रूपों में किया है। दोनों ही रूपों में उन्होंने प्रकृति के मनोरम चित्र खींचे हैं। कुछ स्थानों पर वातावरण जुटाने के लिए प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण भी किया गया है। प्रकृति के निरीक्षण में हरिऔध जी की दृष्टि बहुत पैनी है। 'प्रिय प्रवास' उनका प्रकृति-प्रधान काव्य है। इसमें आपने प्रकृति के बड़े मार्मिक और संवेदनशील चित्र अंकित किये हैं। यशोदा के दुःख की सहानुभूति में रोती हुई रजनी का चित्र देखिए–

"फूलों पत्तों सकल पर हैं, वारि बूँदें लखाती,
रोते हैं या विटप सब यों आँसुओं को दिखा के।
रोई थी जो रजनि दुंख से नन्‍द की कामिनी के,
ये बूँदें हैं निपतित हुईं, यां उसी के दृगों से॥

प्रकृति का मनोरम एवं भव्य चित्र देखिए-

“दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी अवराजती,
कमलिनी कुल बल्लभ की प्रभा॥"

निदाघ वर्णन की भयंकरता निम्नलिखित पंक्तियों में देखिए–

“निदाघ की काल महा दुरन्त था,
तवा सम थी तपती वसुन्धरा।”

रस योजना– अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' मुख्यतः करुण रस के कवि हैं। वात्सल्य तथा श्रृंगार, दोनों रसों के वियोग पक्ष का अति सरस तथा हृदयस्पर्शी चित्रण उन्होंने किया है। उनके काव्यों में करुणा की ऐसी मीठी कपक है कि जो हृदय को बेधती चली जाती है। 'प्रिय प्रवास' में श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर यशोदा के विलाप में वेदना की ऐसी कसक है कि उसे सुनकर पाषाण हृदय भी पिघल उठता है। श्रीकृष्ण बलराम तथा अक्रूर के साथ मथुरा चले जाते हैं। नन्‍द उन्हें बिदा करके अकेले ही लौट आते हैं। तब यशोदा के धैर्य का बाँध टूट जाता है। वह रोती हुई नन्‍द बाबा से पूछती हैं–

“प्रियपति ! वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है?
दुख जलधि-निमग्ना का सहारा कहाँ है?
अब तक जिसको मैं देख के जी सकी हूँ,
वह हृदय दुलारा नेत्र तारा कहाँ है?”

राधा का वियोग भी बड़ा हृदयद्रावक है। करुण के साथ-साथ अंगरूप में अन्य रसों तथा विविध भावों का भी इन्होंने मार्मिक चित्रण किया है।

कलापक्ष–

भाषा– हरिऔध जी का ब्रज और खड़ी बोली दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है। वे सरल से सरल और कठिन से कठिन दोनों प्रकार दी भाषा लिख सकते हैं। हरिऔध जी की भाषा में रस के अनुकूल ओज, माधुर्य तथा प्रसाद गुण यथास्थान आ जाते हैं। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में सजीवता तथा प्रभाव उत्पन्न हो गया है। एक ओर उन्होंने शुद्ध संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया जिसमें लम्बे समास और संस्कृत पदावली के प्रयोग से भाषा संस्कृत के बिल्कुल निकट पहुँच गयी है यहाँ तक कि यदि केवल क्रिया को बदल दिया जाये तो वह संस्कृत बन जाती है। इस प्रकार की भाषा का उदाहरण देखिए-

“रूपोद्यान-प्रफुल्ल प्राय-कलिका, राकेन्दु-विम्बानना,
तन्‍वंगी कलहासिनी सुरसिका, क्रीडा-कला-पुत्तली,
शोभावारिधि की अमूल्य मणि सी, लावण्य-लीलामयी,
श्री राधा मृदुभाषिणी मृगदृगी माधुर्य सन्मूर्ति थी॥”

दूसरी ओर 'चुभते-चौपदे' तथा 'चोखे-चौपदे' में बोलचाल की सरल तथा मुहावरेदार भाषा भी दर्शनीय है जिसमें उर्दू, फारसी और अंग्रेजी शब्दों का खुलकर प्रयोग हुआ है। मुहावरों के सुन्दर प्रयोग से भाषा सजीव तथा प्रभावपूर्ण हो उठी है।

'रस कलश' में उन्होंने ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। उनकी ब्रजभाषा भी मधुर, प्रांजल तथा साहित्यिक है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह कथन सर्वथा उचित है–

“खड़ी बोली को जिन लोगों ने काव्य-भाषा बनने की शक्ति दी है, उनमें हरिऔध जी विशेष सम्मान और गौरव के पात्र हैं।”

अलंकार योजना– हरिऔध जी की कविता में अलंकारों का अत्यन्त सुन्दर तथा स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार उनके काव्य में जहाँ तहाँ स्वाभाविक रूप से आ गये है। रूपक अलंकार का एक उदाहरण प्रस्तुत है–

"ब्रज धरा एक वार उन्हीं दिनों,
पतित थी दुःख वारिध में हुई।
पर उसे अवलम्बन था मिला,
ब्रजविभूषण के भुज-पोत का॥"

छन्‍द योजना– हरिऔध जी ने वर्णिक मात्रिक, तुकान्त-अतुकान्त सभी प्रकार के छन्‍दों का प्रयोग किया है। 'प्रिय प्रवास' में अनेक संस्कृत छन्दों की अतुकान्त रचना करके उपाध्याय जी ने सिद्ध कर दिया कि हिन्दी में भी संस्कृत के समान अतुकान्त, सरस काव्य रचता हो सकती है।

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