भारतीय समाज में नारी का स्थान पर निबंध | Essay on the place of women in Indian society in Hindi
भारतीय समाज में नारी का स्थान पर निबंध | Essay on the place of women in Indian society in Hindi
इस निबंध के अन्य शीर्षक-
- भारतीय समाज में नारी का स्थान
- भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति
- आधुनिक भारत में नारी का स्थान
- भारतीय नारी आज और कल
रूपरेखा-
प्रस्तावना
गृहस्थी रूपी रथ के दो पहिए हैं नर और नारी। इन दोनों के सहयोग से ही गृहस्थ जीवन सफल होता है। इसमें भी नारी का घर के अंदर और पुरुष का घर के बाहर विशेष महत्व है। फलतः प्राचीन काल में ऋषियों ने नारी को अतीव आदर की दृष्टि से देखा है। नारी पुरुष की सहधर्मिणी तो है ही, वह मित्र के सदृश परामर्शदात्री, सचिव के सदृश सहायिका, माता के सदृश उसके ऊपर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली और सेविका के सदृश उसकी अनवरत सेवा करने वाली है। इसी कारण मनु ने कहा है, "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता" अर्थात जहां नारियों का आदर होता है। वहां देवता निवास करते हैं। फिर भी भारत में नारी की स्थिति समान न होकर बड़े उतार चढ़ाव से गुजरी है। जिसका विश्लेषण वर्तमान भारतीय समाज को समुचित दिशा देने के लिए आवश्यक है।भारतीय नारी का अतीत
वेदों और उपनिषदों के काल में नारी को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। वह पुरुष के समान विद्यार्जन कर विद्वत्सभाओं में शास्त्रार्थ करती थी। महाराजा जनक की सभा में हुआ याज्ञवल्क्य-गार्गी शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती अपने काल की अत्यधिक विख्यात विदुषी थी। जिन्होंने अपने दिग्गज विद्वान पति की पराजय के बाद स्वयं आदि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया। यही नहीं स्त्रियां युद्ध भूमि में भी जाती थी। इसके लिए कैकेयी का उदाहरण प्रसिद्ध है। उस काल में नारी को अविवाहित रहने या स्वेच्छा से विवाह करने का पूरा अधिकार था। कन्याओं का विवाह उनके पूर्ण यौवनसंपन्न होने पर उनकी पसंद के अनुसार ही होता था। जिससे वह अपने भले बुरे का निर्णय स्वयं कर सकें।मध्यकाल में भारतीय नारी
मध्य काल में नारी की स्थिति अत्यधिक सोचनीय हो गई, क्योंकि मुसलमानों के आक्रमण से हिंदू-समाज का मूल ढांचा चरमरा गया, और वे परतंत्र होकर मुसलमान शासकों का अनुकरण करने लगे। मुसलमानों के लिए स्त्री मात्र भोग विलास और वासना तृप्ति की वस्तु थी। फलतः लड़कियों को विद्यालय में भेज कर पढ़ाना संभाव ना रहा। हिंदुओं में बाल विवाह का प्रचलन हुआ, जिससे लड़की छोटी आयु में ही ब्याही जाकर अपने घर चली जाए। पर्दा प्रथा का प्रचलन हुआ और नारी घर में ही बंद कर दी गई। युद्ध में पतियों के पराजित होने पर यवनों के हाथ ना पड़ने के लिए नारियों ने अग्नि का आलिंगन करना शुरू किया। जिससे सती प्रथा का प्रचलन हुआ। इस प्रकार नारियों की स्वतंत्रता नष्ट हो गई और वह मात्र दासी या भोग्या बनकर रह गई। नारी की इसी असहाय अवस्था का चित्रण गुप्त जी ने निन्नलिखित पंक्तियों में किया है-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।
आधुनिक युग में नारी
आधुनिक युग में अंग्रेजो के संपर्क से भारतीयों में नारी स्वातंत्र्य की चेतना जागी। 19वीं शताब्दी में भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के साथ सामाजिक आंदोलन का भी सूत्रपात हुआ। राजा राममोहन राय और महर्षि दयानंद जी ने समाज सुधार की दिशा में बड़ा काम किया। सती प्रथा कानून द्वारा बंद कराई गई और बाल विवाह पर रोक लगी। आगे चलकर महात्मा गांधी ने भी स्त्री सुधार की दिशा में बहुत काम किया। नारी की दीन हीन दशा के विरुद्ध पंत का कवि हृदय आक्रोश प्रकट कर उठता है-
मुक्त करो नारी को मानव
चिरबन्दिनी नारी को।
चिरबन्दिनी नारी को।
आज नारियों को पुरुष के समान अधिकार प्राप्त हैं। उन्हें उनकी योग्यता अनुसार आर्थिक स्वतंत्रता भी मिली हुई है। स्वतंत्र भारत में आज नारी किसी भी पद अथवा स्थान को प्राप्त करने से वंचित नहीं। धनोपार्जन के लिए वह आजीविका का कोई भी साधन अपनाने के लिए स्वतंत्र है। फलतः स्त्रियां अध्यापिका, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वकील, जज, प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं अपितु पुलिस में नीचे से ऊपर तक विभिन्न पदो पर कार्य कर रही हैं। स्त्रियों ने आज उस रूढ़ धारणा को तोड़ दिया है, कि कुछ सेवायें पूर्णतः पुरूषोचित होने से स्त्रियों के बूते कि नहीं। आज नारियां विदेशों में राजदूत, प्रदेशों की गवर्नर, विधायिकाएं या संसद सदस्यायें, प्रदेश अथवा केंद्र में मंत्री आदि सभी कुछ है। भारत जैसे विशाल देश का प्रधानमंत्रित्व तक एक नारी कर गई यह देख चकित रह जाना पड़ता है। श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित ने तो संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्षता कर सबको दांतो तले अंगुली दबवा दी। इतना ही नहीं, नारी को आर्थिक स्वतंत्रता दिलाने के लिए उसे कानून द्वारा पिता एवं पति की संपत्ति में भी भाग प्रदान किया गया है।
आज स्त्रियों को हर प्रकार की उच्चतम शिक्षा की सुविधा प्राप्त है। बाल-मनोविज्ञान, पाक-शास्त्र, गृहशिल्प, घरेलू चिकित्सा, शरीर विज्ञान, गृह परिचर्या आदि के अतिरिक्त विभिन्न ललित कलाओं; जैसे- संगीत, नृत्य, चित्रकला, छायांकन आदि में विशेष दक्षता प्राप्त करने के साथ-साथ वाणिज्य और विज्ञान के क्षेत्र में भी वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं।
स्वयं स्त्रियों में भी अब सामाजिक चेतना जाग उठी है। प्रबुद्ध नारियां अपनी दुर्दशा के प्रति सचेत हैं और उसके सुधार में दत्तचित भी। अनेक नारियां समाज-सेविकाओं के रूप में कार्यरत हैं। आशा है कि वे भारत की वर्तमान समस्याओं जैसे- भुखमरी, बेकारी, महंगाई, दहेज-प्रथा आदि के सुलझाने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी।
पाश्चात्य प्रभाव एवं जीवन-शैली में परिवर्तन
किंतु वर्तमान में एक चिंताजनक प्रवृति भी नारियों में बढ़ती दीख है। जो पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव है। अंग्रेजी शिक्षा के परिणामस्वरुप अधिक शिक्षित नारियां तेजी से भोगवाद की ओर अग्रसर हो रही हैं। वे फैशन और आडंबर को ही जीवन का सार समझकर सादगी से विमुख होती जा रही हैं, और पैसा कमाने की होड़ में अनैतिकता की ओर उन्मुख हो रही हैं। यही बहुत ही कुत्सित प्रवृत्ति है। जो उन्हें पुनः मध्यकालीन हीनावस्था में धकेल देगी। इसी बात को लक्ष्य कर कवि पंत नारी को चेतावनी देते हुए कहते हैं-
तुम सब कुछ हो फूल, लहर, विहगी, तितली, मर्जारी,
आधुनिके ! कुछ नही अगर हो, तो केवल तुम नारी।
आधुनिके ! कुछ नही अगर हो, तो केवल तुम नारी।
प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती प्रेमकुमारी 'दिवाकर' का कथन है कि, "आधुनिक नारी ने निसंदेह बहुत कुछ प्राप्त किया है, पर सब-कुछ पाकर भी उसके भीतर का परंपरा से चला आया हुआ कुसंस्कार नहीं बदल रहा है। वह चाहती है कि रंगीनियों से सज जाए और पुरुष उसे रंगीन खिलौना समझ कर उससे खेले। वह अभी भी अपने आप को रंग बिरंगी तितली बनाए रखना चाहती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब तक उसकी यह आंतरिक दुर्बलता दूर नहीं होगी। तब तक उसके मानस का नव-संस्कार ना होगा। जब तक उसका भीतरी व्यक्तित्व न बदलेगा। तब तक नारीत्व की पराधीनता एवं दासता के विष वृक्ष की जड़ पर कुठाराघात ना हो सकेगा।"
उपसंहार
नारी, नारी ही बनी रहकर सबकी श्रद्धा और सहयोग अर्जित कर सकती है। तितली बनकर वह स्वयं तो डूबेगी ही और समाज को भी डुबायेगी। भारतीय नारी पाश्चात्य शिक्षा के माध्यम से आने वाली यूरोपीय के व्यामोह में न फंसकर यदि अपनी भारतीयता बनाए रखें तो इससे उसका और समाज दोनों का हितसाधन होगा और वह उत्तरोत्तर प्रगति करती जाएगी। वर्तमान में कुरूप सामाजिक समस्याओं जैसे- दहेज प्रथा, शारीरिक मानसिक हिंसा की शिकार स्त्री को अत्यंत सजग होने की आवश्यकता है। उसे भरपूर आत्मविश्वास एवं योग्यता अर्जित करनी होगी। तभी वह सशक्त वा समर्थ व्यक्तित्व की स्वामिनी हो सकेगी। अन्यथा उसकी प्राकृतिक कोमल-स्वरुप-संरचना तथा अज्ञानता उसे समाज के शोषण का शिकार बनने पर विवश कर देगी। नारी के इसी कल्याणमय रूप को लक्ष्य कर कविवर प्रसाद ने उसके प्रति इन शब्दों में श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं-
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत-नभ-पग-तल में,
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।