राष्ट्रीय एकता पर निबंध | Essay on National Unity in Hindi

राष्ट्रीय एकता पर निबंध | Essay on National Unity in Hindi

Essay on National Unity in Hindi

इस निबंध के अन्य शीर्षक-

  • राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीयता 
  • आज की अनिवार्य आवश्यकता : राष्ट्रीय एकता 
  • राष्ट्रीय एकीकरण और उसके मार्ग की बाधाएं 
  • देश की एकता और अखंडता 
  • राष्ट्रीय एकता के पोषक तत्व

रूपरेखा-


प्रस्तावना

भारत एक विशाल देश हैं। उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक पूर्व में नागालैंड से लेकर पश्चिम में गुजरात तक भारत माता का विशाल भव्य रुप सर्वदर्शनीय एवं पूजनीय हैं। भारत में अनेक प्रदेश हैं। यहां के निवासियों में अत्यधिक विविधता तथा अनेकरुपता है तथापि इस भिन्नता एवं अनेकरूपता में भी ऐसी एकता विद्यमान है। जो हम सब को एक दूसरे से मिलाये हुए हैं एक ऐसा महत्वपूर्ण सूत्र है जो विविध मढ़ियों को जोड़कर एक सुंदर बहुरंगी माला का रूप दे देता है। यह सूत्र ही हमारी भावात्मक एकता है। यह भावात्मक एकता ही संपूर्ण राष्ट्र में एक राष्ट्रीयता को जन्म देती है।

राष्ट्रीयता

राष्ट्रीयता की भावना ही वह ज्वलंत भावना है जो किसी देश के नागरिकों में देश प्रेम और आत्म-गौरव की भावना पैदा करती है। इस पुनीत भावना के जागृत होने पर ही किसी राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान कर देते हैं। यह वह भावना है जो संपूर्ण देश के नागरिकों में एकता की इस भावना को जन्म देती है। कि राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक मेरा भाई है। उसकी सहायता वा सहयोग करना मेरा परम कर्तव्य है। राष्ट्रीयता की भावना ही नागरिकों के ह्रदय में मातृभूमि का श्रद्धामय मातृरूप अंकित करती है। राष्ट्र की धरती हमारी माता है उसका अन्न जल खाकर हम पुष्ट होते हैं, और उसकी वायु में श्वास लेकर ही हम प्राणवान होते हैं। उस मातृभूमि का कण-कण हमें प्राणों से प्यारा है। उसके कण-कण की रक्षा करना हमारा परम धर्म है। मातृभूमि के इस समग्र और अखंड रूप की रक्षा करने की भावना का मूल स्रोत राष्ट्रीयता की भावना ही है। राष्ट्रीयता की इस पवित्र भावना के अभाव में किसी देश का उत्थान और समृद्धि तो दूर की बात है, उस का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है।

भावात्मक एकता

हमारी राष्ट्रीयता का मूल आधार हमारी भावात्मक एकता है। हमारे इस विशाल देश में भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान संबंधी आदि अनेक विषमताएं हैं। धर्म और जातियों में अनेकता है तथापि हम सब एक हैं। इस एकता और अखंडता का आधार भावात्मक और सांस्कृतिक एकता है। हमारी संस्कृति अविभाज्य है। विभिन्न धर्मों के होते हुए भी हमारी भावना एक है। बाहरी जीवन वेशभूषा आदि में भेद होते हुए भी हमारा जीवन दर्शन एक है। हम मानव मात्र में एकता के दर्शन करते हैं, यही हमारा जीवन दर्शन है। भारतीय संस्कृति में पलने वाला हर नागरिक दिन में पूजा के समय कामना करता है।
"सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित् दुख:भाग भवेत्।।"
प्राणी मात्र को सुखी बनाना ही भारतीयों का मुख्य उद्देश्य है। हमारा यह उद्देश्य ही राष्ट्रीयता से ऊपर उठाकर हमें अंतर्राष्ट्रीयता की ओर ले जाता है।

राष्ट्रीयता की आवश्यकता

राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा सार्वभौम सत्ता बनाए रखने के लिए राष्ट्रीयता की भावना का उदय होना परम आवश्यक है। यही वह भावना है जिसके कारण राष्ट्र के नागरिक अपने राष्ट्र के सम्मान, गौरव और हितों का चिंतन करते हैं। हमारे देश में विगत वर्ष से राष्ट्रीयता की भावना कुछ मंद पड़ने लगी है। अनेक दल उठ खड़े हुए हैं, और लोगों का नैतिक पतन हुआ है। सब स्वार्थ के वशीभूत होकर राष्ट्र के हित को भूलकर अपनी-अपनी सोचने लगे हैं। "अपना भर और किसी की फिक्र मत कर" की भावना पनपने लगी है। प्रादेशिकता, जातीयता तथा भाई-भतीजावाद इतना बढ़ गया है। कि देश का भविष्य अंधकार में दिखाई पढ़ने लगा है। संकट के इस समय में हमें विवेक से काम लेना चाहिए। हमारे नेताओं और सरकार को चाहिए कि वह स्वार्थ का त्याग कर , कुर्सी का मोह छोड़ें। अपने राजनीतिक लाभ के लिए देश को संकट में ना डालें। सरकार और मंत्रियों को चाहिए कि वह स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्र के कल्याण की बात सोचें। यदि ऐसा ना हुआ तो देश कहां जाएगा, कहना कठिन है।

राष्ट्रीयता के अभाव के कारण

किसी राष्ट्र में राष्ट्रीयता का अभाव तभी होता है, जब वहां के निवासियों के ह्रदय से भावात्मक एकता नष्ट हो जाती है। संकीर्ण भावनाएं पारस्परिक भेद की दीवारें खड़ी कर देती हैं, और विभिन्न वर्गों के लोग अपने स्वार्थों में फस जाते हैं। सभी लोग अपना भला चाहने लगते हैं और दूसरों का अहित करने लगते हैं। हमारे देश में यह वर्गवाद कई रूपों में पनप रहा है।

(क) प्रांतीयता- कभी-कभी प्रांतीयता की संकीर्ण भावना इतनी प्रबल हो जाती है। कि वह राष्ट्रीयता को दबा देती है। लोग यह भूल जाते हैं कि राष्ट्र रूपी देवता के शरीर का यदि एक अंग हष्ट-पुष्ट हो जाए और अन्य अंग दुर्बल हो जाएं तो दुर्बल अंगो की दुर्बलता का प्रभाव हष्ट-पुष्ट अंग पर भी पड़ेगा।

(ख) भाषा विवाद- भाषा संबंधी विवादों ने राष्ट्रीयता को बहुत आघात पहुंचाया है। इससे भाषावर प्रांतों की मांग उठती है। कुछ ही वर्ष पहले दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध में ऐसे भयानक उपद्रव हुए, जिससे उत्तर भारत के लोगों की भावनाओं को बहुत ठेस पहुंची।

(ग) संकीर्ण मनोवृत्ति- जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर जब लोगों की विचारधारा संकीर्ण हो जाती है। तब राष्ट्रीयता की भावना मंद पड़ जाती है। लोगों के सामने एक महान राष्ट्र का हित ना रहकर एक सीमित वर्ग का संकुचित हित चिंतन मात्र ही रह जाता है।

वर्तमान स्थिति

उपर्युक्त कारणों से हमारे देश में राष्ट्रीयता की भावात्मक एकता का बहुत ह्रास हुआ है। स्वतंत्रता की प्राप्ति के पश्चात तो कुछ ऐसी हवा चली है की राष्ट्र की एकता को काफी धक्का लगा। उसी का परिणाम है कि आज 'हिंदुस्तान हमारा है' के स्थान पर 'पंजाब हमारा है', 'मद्रास हमारा है' के नारे लगने लगे हैं। धर्म, भाषा, जाति तथा वर्ग विशेष के नाम पर देश टुकड़ों में बँटने लगा है। यह टुकड़े आपस में ऐसे टकराने लगे हैं, कि एक दूसरे को चूर चूर करने को तैयार हो रहे हैं। राष्ट्र पतन के कगार तक पहुंच गया लगता है। लोग गांधी, नेहरु और पटेल जैसे नेताओं द्वारा दिखाए गए आदर्शों को भूल कर स्वार्थ में अंधे हो रहे हैं।

उपसंहार

आवश्यकता इस बात की है कि हम राष्ट्रीयता को समझें। हमें केवल अपना नहीं राष्ट्र का हित सोचना होगा। राष्ट्र के हित में ही हमारा हित है, राष्ट्र की सुरक्षा में ही हमारी सुरक्षा है और राष्ट्र के उत्थान एवं विकास में ही हमारा उत्थान और विकास है। राष्ट्र का विकास चाहने वाले सभी नागरिकों का कर्तव्य है कि वे संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर केवल अपने परिवार या जाति की संकीर्ण भावना को छोड़कर, आपसी फूट, कलह और झगड़ों में अपनी शक्ति का अपव्यय न कर। राष्ट्र कल्याण के चिंतन में लगे और अपने पास पड़ोस के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को जगाने का प्रयास करें।
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