राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध | Essay on National Language Hindi in Hindi

राष्ट्रभाषा हिंदी पर निबंध | Essay on National Language Hindi in Hindi 

इस निबंध के अन्य शीर्षक-

  • राष्ट्रभाषा हिंदी
  • राष्ट्रभाषा का महत्व
  • हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों?
  • भारत की भाषा समस्या और हिंदी

रूपरेखा-

प्रस्तावना

किसी भी पूर्ण प्रभुतासंपन्न स्वतंत्र राष्ट्र के लिए तीन वस्तुएं अनिवार्य होती हैं। (1) राष्ट्रध्वज, (2) राष्ट्रगान तथा (3) राष्ट्रभाषा।

भारत के पास राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान तो है किंतु राष्ट्रभाषा के रुप में हिंदी को उसका उचित स्थान अब तक ना मिल पाना बड़े दुर्भाग्य की बात है। किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का प्रश्न मूलभूत महत्त्व का होता है, क्योंकि राष्ट्रभाषा समस्त राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने वाली उसकी संस्कृति धरोहर को सहेजने वाली एवं उसे उस के प्राचीन गौरव का स्मरण दिलाकर उसमें अस्मिता बोध जगाने वाली संजीवनी है, जिसके बिना राष्ट्र मृतप्राय होकर कालांतर में अपनी संप्रभुता भी खो देता है। भारतेन्दु जी ने ठीक ही लिखा है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय कौ सूल।।

भाषा के विभिन्न रुप

सर्वप्रथम क्षेत्रीय (प्रादेशिक) भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के अंतर को स्पष्ट करना उचित होगा। किसी देश के प्रदेश विशेष की भाषा को प्रादेशिक या क्षेत्रीय भाषा कहते हैं। जैसे- भारत में बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, तेलुगू आदि भाषाएं। जब कोई प्रादेशिक भाषा की राजनीतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या साहित्यिक कारणों से समग्र देश में फैलकर विभिन्न प्रदेश वासियों के पारस्परिक व्यवहार का माध्यम बन जाती है, तो उसे राष्ट्रभाषा कहते हैं।

आशय यह है कि किसी प्रदेश विशेष के निवासी आपसी व्यवहार में तो अपनी प्रादेशिक भाषा का ही प्रयोग करते हैं, किंतु भिन्न भाषा-भाषी दूसरे प्रदेश वालों के साथ व्यवहार के समय यह एक ऐसी भाषा का प्रयोग करने को बाध्य हैं। जो सारे देश में थोड़ी बहुत समझी बोली जाती हो, इसी को राष्ट्रभाषा कहते हैं। भारत में मध्यकाल से ही हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव- सरकार की ओर से नहीं, अपितु जनता जनार्दन की ओर से प्राप्त हुआ, क्योंकि कोई भी राष्ट्रभाषा जनता द्वारा ही स्वीकृत होती है।

यहां राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय भाषा के अंतर को भी स्पष्ट करना आवश्यक है। वस्तुतः किसी राष्ट्र में प्रचलित समस्त भाषाएं वहां की राष्ट्रीय भाषाएं (National Languages) होती हैं, किंतु राष्ट्रभाषा (Lingua Franca) केवल वही हो सकती है। जिसे विभिन्न प्रादेशिक भाषाएं बोलने वाले आपसी व्यवहार के लिए अपनाएं। इस प्रकार समस्त भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं; राष्ट्रभाषा केवल हिंदी है।

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का औचित्य

देश की 14 संपन्न भाषाओं के रहते हिंदी को ही राष्ट्रभाषा का पद क्यों दिया गया। इस संबंध में हिंदी भाषा के प्रमुख क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश; जिसे प्राचीन काल में मध्य देश कहते थे; के विशिष्ट भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व पर दृष्टिपात करना होगा। इस संबंध में प्रसिद्ध विद्वान डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा लिखते हैं, "वैदिक साहित्य के अनुसार आर्यों का प्रारंभिक निवास स्थान मध्य देश के मध्य में ना होकर उसकी पश्चिम उत्तर सीमा पर सरस्वती नदी के निकटवर्ती प्रदेश में गंगा की घाटी के उत्तरी भाग तक फैला हुआ था। यही प्रदेश बाद में कुरु-पांचाल जनपदों के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रदेश से आर्य संस्कृति चारों ओर फैली। यूरोपीय विद्वानों के अनुसार भी आर्यों की संस्कृति का प्राचीनतम तथा शुद्धतम रूप भारत में मध्य देश में ही मिलता है।

वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रंथों तथा उपनिषदों की रचना यही हुई। रामायण और महाभारत का संबंध मध्य देश से ही है। राम और कृष्ण की क्रीड़ा स्थली- अयोध्या और ब्रज - मध्य देश में ही हैं। गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र में दिया गया। कई प्रमुख हिंदू राजवंशो की राजधानियां इसी क्षेत्र में रहीं। बाद में विदेशी शासकों तुर्क, अफगान, मुगल, अंग्रेज आदि ने भी अपने साम्राज्य का केंद्र मध्य देश में ही दिल्ली (प्राचीन इंद्रप्रस्थ) को बनाया और आज भी भारतवर्ष की राजधानी यही है। खड़ी बोली हिंदी का संबंध भी यहीं से है।

विख्यात भाषाशास्त्री डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी भी उपयुक्त मत की पुष्टि करते हुए लिखते हैं, "वैदिक युग के बाद से प्राचीन काल में उत्तर भारत के जिस भाग को मध्य देश कहा जाता था, उसके संस्कृतिक तथा राजनीतिक प्राधान्य के कारण ही प्रत्येक युग में वहां की भाषा का प्राधान्य रहा है। और इसी प्रदेश तथा इसके आसपास की भाषा भिन्न-भिन्न युग में संस्कृत, पालि, शौरसेनी, प्राकृत ब्रज भाषा और अंत में हिंदी खड़ी बोली के रूप में संपूर्ण भारत की सहज एवं स्वाभाविक अंतरप्रांतीय भाषा के रुप में विराजमान रही है।"

इस प्रकार यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भारत को अखिल भारतीय व्यवहार के लिए सदा से राष्ट्रभाषा देता आया है। जिसके फलस्वरुप राष्ट्रीय एकता पुष्ट हुई है। अतः यदि आज खड़ी बोली हिंदी को राष्ट्रभाषा का पद मिला है तो वह किसी पक्षपात या कृपा का फल ना होकर उसके पारंपरिक अधिकार की ही स्वीकृति है।

डॉक्टर चटर्जी अन्यत्र लिखते हैं, भारत की वर्तमान दशा पर विचार करने से राष्ट्रभाषा या जातीय भाषा के स्वीकृत होने की योग्यता हिंदी में ही सबसे अधिक है। हिंदी भाषा अखंड भारत की एकता के आदर्श का मुख्य प्रतीक है। अंग्रेजी ना जानने वाले दो भिन्न भिन्न प्रांतों के भारतीय जब आ मिलते हैं। तब वे परस्पर वार्तालाप करते समय हिंदी में ही बोलने की चेष्टा करते हैं। भारतीय सेना विभाग में हिंदुस्तानी का ही बोलबाला है। भारत के बाहर जैसे बर्मा में भारतीय भाषा से लोग हिंदी को ही समझते हैं। इसी प्रकार द्रविड़ भाषा- भाषी दक्षिण भारत में उत्तर भारत की जिस भाषा को सबसे अधिक बोल सकते हैं वह हिंदी है।

अंग्रेजी को अपदस्थ करना आवश्यक

हिंदी के इसी अखिल भारतीय स्वरुप का यह परिणाम है कि हिंदी प्रदेश में प्रादेशिकता की भावना कभी नहीं उभरी, सदा भारतीयता पर बल दिया गया। यही कारण है कि कि हिंदी प्रदेश में आकर भारत के किसी भी अन्य प्रदेश के व्यक्ति को किसी प्रकार के अलगाव का अनुभव नहीं होता, सर्वथा अपनेपन का अनुभव होता है। वस्तुतः हिंदी को उचित स्थान दिलाने का आग्रह समस्त भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के आग्रह का ही नामांतर है, क्योंकि यदि हिंदी को हिंदी भाषी प्रदेशों एवं केंद्र में उसका उचित स्थान मिलता है, तो समस्त प्रांतों में वहां की प्रादेशिक भाषाओं को भी उनका उचित स्थान मिलकर रहेगा। अंग्रेजी ने आज हिंदी का ही नहीं, अपितु समस्त प्रादेशिक भाषाओं का भी अधिकार छीन रखा है। यदि समस्त भारतवासी इस बात पर राष्ट्रीय स्वाभिमान की दृष्टि से विचार करें, तो सारा देश एकता के सूत्र में बंध कर अपने लुप्त गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है।

उपसंहार

हिंदी के गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा में बाधक तत्व और समस्या का समाधान- यही वह भावना थी, जिस से प्रेरित होकर 14 सितंबर सन 1949 ई० को संविधान सभा के 324 सदस्यों में से 312 ने हिंदी को भारतीय गणतंत्र की राजभाषा बनाने के पक्ष में मत दिया। इन सदस्यों में भारत की प्रत्येक प्रादेशिक भाषा एवं बोली के प्रतिनिधि थे, किंतु व्यापक राष्ट्रहित में उन्होंने प्रादेशिक भावना का परित्याग कर दिया। खेद है कि संविधान निर्माताओं के दृढ़ राष्ट्र प्रेम से प्रेरित इस उदार भावना के विपरीत आज भी देश पर दासता की प्रतीक विदेशी भाषा को थोपे रखा गया है। वस्तुतः यह निहित स्वार्थ वाले उन कतिपय दास मनोवृत्ति से ग्रस्त सत्ताधारियों का काम है।

जो शरीर से स्वतंत्र होने पर भी मन से अंग्रेजों के गुलाम हैं, क्योंकि उन्हें अपने महान देश के गौरवमय अतीत एवं विश्वविजयिनी संस्कृति का इंचमात्र भी ज्ञान नहीं। राजभाषा के रुप में हिंदी को संविधान के अनुसार जो अधिकार मिले हैं। अभी भी अंग्रेजी उनका उपभोग कर रही है। अंग्रेजी को अपदस्थ करने के लिए हमें भारत में भी 'कमालपाशा' (अरब के शासक कमालपाशा ने एक ही दिन में अपनी भाषा को राजभाषा घोषित कर लागू कर दिया था और अब वही अरबी भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ की छठी मान्य विश्वभाषा बन चुकी है) उत्पन्न करने होंगे। भारत भी उस दिन की प्रतीक्षा में हैं, जब भारत के राजनीतिज्ञों में से कोई कमालपाशा की भूमिका निभाएगा। अपनी भाषा को अपनाने के कारण ही जापान ने आज विश्व में आश्चर्यजनक प्रगति की है।

अभी तक सत्ताधारियों का अंग्रेजी के प्रति मोह भंग नहीं हुआ है। और देश निरंतर अधःपतन की ओर बढ़ता जा रहा है। इसे विनाश से बचाने एवं विश्वराष्ट्रों के मध्य गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का एकमात्र उपाय अपनी भाषाओं को अपनाना अर्थात प्रादेशिक भाषाओं को अपने अपने प्रदेश में और राष्ट्र भाषा को केंद्र में प्रतिष्ठित करना, क्योंकि बिना राष्ट्रभारती की अराधना के कोई भी राष्ट्र गौरव का अधिकारी नहीं बनता।
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