अष्टावक्र गीता सत्रहवां अध्याय- Seventeenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi
Seventeenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi- महापंडित एवं विद्वान अष्टावक्र की बुद्धिमत्ता से आप सभी लोग परिचित होंगे। जनक की सभा मे उन्होने बंदी से शास्त्रार्थ करके अपनी विद्वता का परिचय दिया था। और बंदी को उनके अहंकार के बारे मे ज्ञात करवाया था। उन्ही के द्वारा रचित महागीता का यहाँ सत्रहवां अध्याय प्रस्तुत है।
आपकी सरलता और आसानी के लिए हमने यहाँ पर अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोक संस्कृत के साथ साथ हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी भावार्थ के साथ प्रकाशित किए हैं। जिससे आपको अध्ययन करने मे आसानी हो।
आपकी सरलता और आसानी के लिए हमने यहाँ पर अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोक संस्कृत के साथ साथ हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी भावार्थ के साथ प्रकाशित किए हैं। जिससे आपको अध्ययन करने मे आसानी हो।
Seventeenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi |
अष्टावक्र गीता सत्रहवां अध्याय- Seventeenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi
अष्टावक्र उवाच - तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा।
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यं एकाकी रमते तु यः॥१७- १॥
अष्टावक्र कहते हैं - उन्होंने ज्ञान और योग (दोनों) का फल प्राप्त कर लिया है जो सदा संतुष्ट, शुद्ध इन्द्रियों वाले और एकांत में रमने वाले हैं ॥१॥
Ashtavakra says: He has attained the fruits of Knowledge and Yoga both, who is content, is of purified senses, and always enjoys his solitude.॥1॥
न कदाचिज्जगत्यस्मिन् तत्त्वज्ञा हन्त खिद्यति।
यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्माण्डमण्डलम्॥१७- २॥
तत्त्व(ब्रह्म) को जानने वाला कभी भी किसी बात से इस संसार में दुखी नहीं होता है क्योंकि उस एक ब्रह्म से ही यह सम्पूर्ण विश्व पूर्णतः व्याप्त है॥२॥
The knower of truth is never troubled by anything in this world, for the whole world is completely pervaded by that Brahma(Lord) alone.॥2॥
न जातु विषयाः केऽपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी।
सल्लकीपल्लवप्रीत- मिवेभं निंबपल्लवाः॥१७- ३॥
अपनी आत्मा में रमण करने वाला किसी विषय को प्राप्त करके हर्षित नहीं होता जैसे कि सलाई के पत्तों से प्रेम करने वाला हाथी नीम के पत्तों को पाकर हर्ष नहीं करता है॥३॥
None of the senses can please a man, who is established in Self, just as Neem leaves do not please the elephant that likes Sallaki leaves.॥3॥
यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता।
अभुक्तेषु निराकांक्षी तदृशो भवदुर्लभः॥१७- ४॥
जिसकी प्राप्त हो चुके भोगों में आसक्ति नहीं है और न प्राप्त हुए भोगों की इच्छा नहीं है, ऐसा व्यक्ति इस संसार में दुर्लभ है॥४॥
Such man is rare who is not attached to the pleasures enjoyed, and does not desire pleasures which are unattained.॥4॥
बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।
भोगमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशयः॥१७- ५॥
इस संसार में सांसारिक भोगों की इच्छा वाले भी देखे जाते हैं और मोक्ष की इच्छा वाले भी पर इन दोनों इच्छाओं से रहित महापुरुष का मिलना दुर्लभ है॥५॥
People desirous of worldly pleasures are seen and people desirous of liberation are also seen in this world.
But one who is indifferent to both of these desires is really rare.॥5॥
But one who is indifferent to both of these desires is really rare.॥5॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा।
कस्याप्युदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि॥१७- ६॥
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन और मृत्यु में उपयोगिता और अनुपयोगिता की समता किसी महात्मा में ही होती है॥६॥
Only few great souls are free from attachment and repulsion to righteousness, wealth, desires, liberation, life and death.॥6॥
वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।
यथा जीविकया तस्माद् धन्य आस्ते यथा सुखम्॥१७- ७॥
न विश्व के लीन होने की इच्छा और न ही इसकी स्थिति से द्वेष, जैसे जीवन है (वे महात्मा) उसी में आनंदित और कृतकृत्य रहते हैं॥७॥
He neither desires end of this world, nor despise its continued existence.
He lives the life as it is, feeling content and grateful.॥7॥
He lives the life as it is, feeling content and grateful.॥7॥
कृतार्थोऽनेन ज्ञानेने- त्येवं गलितधीः कृती।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्नस्ते यथा सुखम्॥१७- ८॥
इस ज्ञान से कृतार्थ होकर बुद्धि को अन्तर्हित(विलीन) करके देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए और खाते हुए सुखपूर्वक रहते हैं॥८॥
Blessed by this knowledge, subsiding intelligence in Self, they stay content even in seeing, hearing, touching and eating.॥8॥
शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे॥१७- ९॥
दृष्टि को शून्य और अस्थिर इन्द्रियों की चेष्टा को नष्ट करके, इस अशक्त संसार रूपी सागर से न तो आसक्ति रखते हैं और न ही विरक्ति॥९॥
Keeping their gaze unoccupied, having stilled the tendency of their senses, they have no attachment or aversion for this feeble world.॥9॥
न जगर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति।
अहो परदशा क्वापि वर्तते मुक्तचेतसः॥१७- १०॥
न जगता ही है और न सोता ही है, न ही आँखें खोलता या बंद करता है, अहा! उस परम अवस्था में कोई मुक्त चेतना वाला विरला ही रहता है॥१०॥
Aha! in that supreme state, where there is no wakening, no sleep, no opening or closing of eyes, rarely someone with liberated consciousness stays.॥10॥
सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः।
समस्तवासना मुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते॥१७- ११॥
सदा स्वयं में स्थित, सर्वत्र स्वच्छ प्रयोजन वाला, समस्त वासनाओं से मुक्त, मुक्त पुरुष सर्वत्र सुशोभित होता है॥११॥
Always established in self, with stainless intent everywhere, free from all the desires, such a liberated man always shines.॥11॥
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन् गृण्हन् वदन् व्रजन्।
ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशयः॥१७- १२॥
देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए, खाते हुए, लेते हुए, बोलते हुए, चलते हुए, इच्छा करते हुए और इच्छा न करते हुए, ऐसा महात्मा मुक्त ही है(वस्तुतः कुछ नहीं करता)॥१२॥
Even in, seeing, hearing, feeling, smelling, eating, taking, speaking, walking, desiring and not desiring such a great soul basically does nothing.॥12॥
न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति।
न ददाति न गृण्हाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः॥१७- १३॥
न निंदा करता है और न प्रशंसा करता है, न लेता है, न देता है, इन सबमें अनासक्त वह सब प्रकार से मुक्त है॥१३॥
He neither blames nor praises, he neither gives nor takes.
Indifferent from all these he is free in every way.॥13॥
Indifferent from all these he is free in every way.॥13॥
सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वा मृत्युं वा समुपस्थितं।
अविह्वलमनाः स्वस्थो मुक्त एव महाशयः॥१७- १४॥
अनुराग-युक्त स्त्रियों को देख कर अथवा मृत्यु को उपस्थित देख कर विचलित न होने वाला, स्वयं में स्थित वह महात्मा मुक्त ही है॥१४॥
One who remains unperturbed on seeing women with desire or death, established in self, that noble man is liberated.॥14॥
सुखे दुःखे नरे नार्यां संपत्सु विपत्सु च।
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः॥१७- १५॥
धीर पुरुष सुख में, दुःख में, पुरुष में, नारी में, संपत्ति में और विपत्ति में अंतर न देखता हुआ सर्वत्र समदर्शी होता है॥१५॥
For such a man with patience, pleasure and pain, men and women, success and failure are alike.
For him everything is equivalent.॥15॥
For him everything is equivalent.॥15॥
न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता।
नाश्चर्यं नैव च क्षोभः क्षीणसंसरणे नरे॥१७- १६॥
क्षीण संसार वाले पुरुष में न हिंसा और न करुणा, न गर्व और न दीनता, न आश्चर्य और न क्षोभ ही होते हैं॥१६॥
In a person free from attachment for this world, there is neither aggression nor submissiveness, neither pride nor lowliness, neither surprise nor agitation.॥16॥
न मुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुपः।
असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते॥१७- १७॥
मुक्त पुरुष न तो विषयों से द्वेष करता है और न आसक्ति ही, (अतः) उनकी प्राप्ति और अप्राप्ति में सदा समान मन वाला रहता है॥१७॥
Liberated man neither dislikes sense gratification nor likes them, hence he remains unperturbed in their achievement and non-achievement.॥17॥
समाधानसमाधान- हिताहितविकल्पनाः।
शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः॥१७- १८॥
संदेह और समाधान एवं हित और अहित की कल्पना से परे, शून्य चित्त वाला पुरुष कैवल्य में ही स्थित रहता है॥१८॥
Beyond doubts and solutions, good and bad, a person with still mind, remains established in self.॥18॥
निर्ममो निरहंकारो न किंचिदिति निश्चितः।
अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वन्नपि करोति न॥१७- १९॥
ममता रहित, अहंकार रहित और दृश्य जगत के अस्तित्व रहित होने के निश्चय वाला, सभी इच्छाओं से रहित, करता हुआ भी कुछ नहीं करता॥१९॥
A man who is free from attachment, free of ego, with a definitive view of non-existence of this visible world, even while doing does not do anything.॥19॥
मनःप्रकाशसंमोह स्वप्नजाड्यविवर्जितः।
दशां कामपि संप्राप्तो भवेद् गलितमानसः॥१७- २०॥
कोई भी मन की मोह, स्वप्न और जड़ता से रहित, प्रकाशित अवस्था को प्राप्त कर मन की इच्छाओं से रहित हो जाये॥२०॥
Having attained a state of mind which is devoid of delusion, dream and inertia and full of light, one should discard all mental desires.॥20॥
कहा जाता है कि अष्टावक्र द्वारा रचित महागीता का एक श्लोक हज़ार माणिकों की तुलना मे भी बहुत अमूल्य है क्यूंकी अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोकों मे गागर मे सागर भरने जैसा बताया गया है। लोक हित के लिए गीता बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसे पढ़ना भी आवश्यक है।
अगर अष्टावक्र गीता से संबन्धित किसी भी सलाह सुझाव या शिकायत के लिए आप अपना कीमती विचार Comments के माध्यम से हम तक पहुंचाए। इसके अतिरिक्त आप इसे अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें।
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