अष्टावक्र गीता अठारहवाँ अध्याय भाग 2- Eighteenth Chapter Part 2 of Ashtavakra Geeta in Hindi
Eighteenth Chapter Part 2 of Ashtavakra Geeta in Hindi- महापंडित एवं विद्वान अष्टावक्र की बुद्धिमत्ता से आप सभी लोग परिचित होंगे। जनक की सभा मे उन्होने बंदी से शास्त्रार्थ करके अपनी विद्वता का परिचय दिया था। और बंदी को उनके अहंकार के बारे मे ज्ञात करवाया था। उन्ही के द्वारा रचित महागीता का यहाँ अठारहवाँ अध्याय भाग 2 प्रस्तुत है।
आपकी सरलता और आसानी के लिए हमने यहाँ पर अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोक संस्कृत के साथ साथ हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी भावार्थ के साथ प्रकाशित किए हैं। जिससे आपको अध्ययन करने मे आसानी हो।
आपकी सरलता और आसानी के लिए हमने यहाँ पर अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोक संस्कृत के साथ साथ हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी भावार्थ के साथ प्रकाशित किए हैं। जिससे आपको अध्ययन करने मे आसानी हो।
Eighteenth Chapter Part 2 of Ashtavakra Geeta in Hindi |
अष्टावक्र गीता अठारहवाँ अध्याय भाग 2- Eighteenth Chapter Part 2 of Ashtavakra Geeta in Hindi
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥१८- ५१॥
जब साधक अपने आपको अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है तब उसके चित्त की सभी वृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं॥५१॥
When one sees oneself as neither the doer nor the reaper of the consequences, then all mind waves come to an end.॥51॥
उच्छृंखलाप्यकृतिका स्थितिर्धीरस्य राजते।
न तु सस्पृहचित्तस्य शान्तिर्मूढस्य कृत्रिमा॥१८- ५२॥
धीर पुरुष की स्वाभाविक स्थिति विक्षोभ युक्त होने पर भी श्रेष्ठ है पर जिसके चित्त में अनेक इच्छाएं भरी हैं उस अज्ञानी पुरुष पर बनावटी शांति शोभा नहीं पाती॥५२॥
The spontaneous unassumed behaviour of the wise is noteworthy, but not the deliberate, intentional stillness of the fool.॥52॥
विलसन्ति महाभोगै- र्विशन्ति गिरिगह्वरान्।
निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः॥१८- ५३॥
धीर पुरुष बड़े भोगों में आनंद करते हैं और पर्वतों की गहन गुफाओं में भी निवास करते हैं पर वे कल्पना, बंधन और बुद्धि की वृत्तियों से मुक्त होते हैं॥५३॥
The wise who are rid of imagination, unbound and with unfettered awareness may enjoy themselves in the midst of many goods, or alternatively go off to mountain caves.॥53॥
श्रोत्रियं देवतां तीर्थम- ङ्गनां भूपतिं प्रियं।
दृष्ट्वा संपूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना॥१८- ५४॥
धीर पुरुष शास्त्रज्ञ ब्राह्मण, देवता, तीर्थ, स्त्री, राजा और प्रिय को देख कर उनका स्वागत करता है पर उसके ह्रदय में कोई कामना नहीं होती॥५४॥
There is no attachment in the heart of a wise man whether he sees or pays homage to a learned brahmin, a celestial being, a holy place, a woman, a king or a friend.॥54॥
भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्॥१८- ५५॥
सेवक, पुत्र, स्त्री, नाती और सगोत्र द्वारा हंसी उदय जाने पर, धिक्कारने पर भी योगी के चित्त में थोड़ा सा विकार भी उत्पन्न नहीं होता॥५५॥
A yogi is not in the least put out even when humiliated by the ridicule of servants, sons, wives, grandchildren or other relatives.॥55॥
सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां तादृशा एव जानते॥१८- ५६॥
लौकिक दृष्टि से प्रसन्न दिखने पर वह प्रसन्न नहीं होता और दुखी दिखने पर दुखी नहीं होता। उसकी उस आश्चर्यमय दशा को उसके समान लोग ही जान सकते हैं॥५६॥
Even when pleased he is not pleased, not suffering even when in pain. Only those like him can know the wonderful state of such a man.॥56॥
कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः॥१८- ५७॥
कर्तव्य बुद्धि का नाम ही संसार है, विद्वान लोग उस कर्तव्यता को नहीं देखते क्योंकि उनकी बुद्धि शून्याकार, निराकार, निर्विकार और निरामय होती है॥५७॥
It is the sense of responsibility which is samsara. The wise who are of the form of emptiness, formless, unchanging and spotless see no such thing.॥57॥
अकुर्वन्नपि संक्षोभाद् व्यग्रः सर्वत्र मूढधीः।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः॥१८- ५८॥
अज्ञानी पुरुष कुछ न करते हुए भी क्षोभवश सदा व्यग्र ही रहता है। योगी पुरुष बहुत से कार्य करता हुआ भी शांत रहता है॥५८॥
Even when doing nothing the fool is agitated by restlessness, while a skillful man remains undisturbed even when doing what there is to do.॥58॥
सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुंक्ते व्यवहारेऽपि शान्तधीः॥१८- ५९॥
शांत बुद्धि वाला पुरुष सुख से बैठता है, सुख से सोता है, सुख से आता-जाता है, सुख से बोलता है और सुख से ही खाता है॥५९॥
Happy he stands, happy he sits, happy sleeps and happy he comes and goes. Happy he speaks, and happy he eats. Such is the life of a man at peace.॥59॥
स्वभावाद्यस्य नैवार्ति- र्लोकवद् व्यवहारिणः।
महाहृद इवाक्षोभ्यो गतक्लेशः स शोभते॥१८- ६०॥
जो बड़े सरोवर के समान शांत है और लौकिक आचरण करते हुए जिसको अन्य लोगों के समान दुःख नहीं होता, वह दुःख रहित ज्ञानी शोभित होता है॥६०॥
He who by his very nature feels no unhappiness in his daily life like worldly people, remains undisturbed like a great lake, all sorrow gone.॥60॥
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्ति रुपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी॥१८- ६१॥
मूढ़ में निवृत्ति से भी प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है और धीर पुरुष की प्रवृत्ति भी निर्वृत्ति के समान फलदायिनी है॥६१॥
Even abstention from action leads to action in a fool, while even the action of the wise man brings the fruits of inaction.॥61॥
परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते।
देहे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता॥१८- ६२॥
अज्ञानी पुरुष प्रायः गृह आदि पदार्थों से वैराग्य करता दिखाई देता है पर जिसका देह-अभिमान नष्ट हो चुका है, उसके लिए कहाँ राग और कहाँ विराग॥६२॥
A fool often shows aversion towards his belongings, but for him whose attachment to the body has dropped away, there is neither attachment nor aversion.॥62॥
भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढस्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थस्यादृष्टिरूपिणी॥१८- ६३॥
अज्ञानी की दृष्टि सदा भाव या अभाव में लगी रहती है, पर धीर पुरुष तो दृश्य को देखते रहने पर भी आत्म स्वरूप को देखने के कारण कुछ नहीं देखती॥६३॥
The mind of the fool is always caught in an opinion about becoming or avoiding something, but the wise man's nature is to have no opinions about becoming and avoiding.॥63॥
सर्वारंभेषु निष्कामो यश्चरेद् बालवन् मुनिः।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणोऽपि कर्मणि॥१८- ६४॥
जो धीर पुरुष सभी कार्यों में एक बालक के समान निष्काम भाव से व्यवहार करता है, वह शुद्ध है और कर्म करने पर भी उससे लिप्त नहीं होता॥६४॥
For the seer who behaves like a child, without desire in all actions, there is no attachment for such a pure one even in the work he does.॥64॥
स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्निस्तर्षमानसः॥१८- ६५॥
वह आत्मज्ञानी धन्य है जो सभी स्थितियों में समान रहता है। देखते, सुनते, छूते, सूंघते और खाते-पीते भी उसका मन कामना रहित होता है॥६५॥
Blessed is he who knows himself and is the same in all states, with a mind free from craving whether he is seeing, hearing, feeling, smelling or tasting.॥65॥
क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनं।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य सर्वदा॥१८- ६६॥
धीर पुरुष सदा आकाश के समान निर्विकल्प रहता है। उसकी दृष्टि में संसार कहाँ और उसकी प्रतीति कहाँ? उसके लिए साध्य क्या और साधन क्या?॥६६॥
There is no man subject to samsara, sense of individuality, goal or means to the goal for the wise man who is always free from imaginations, and unchanging as space.॥66॥
स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते॥१८- ६७॥
जिस सन्यासी को अपने अखंड स्वरुप में सदा स्वाभाविक रूप से समाधि रहती है, जो पूर्ण स्वानंद स्वरूप है, वही विजयी है॥६७॥
Glorious is he who has abandoned all goals and is the incarnation of satisfaction, his very nature, and whose inner focus on the Unconditioned is quite spontaneous.॥67॥
बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाशयः।
भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः॥१८- ६८॥
बहुत कहने से क्या लाभ? महात्मा पुरुष भोग और मोक्ष दोनों की इच्छा नहीं करता और सदा-सर्वत्र रागरहित होता है॥६८॥
In brief, the great-souled man who has come to know the Truth is without desire for either pleasure or liberation, and is always and everywhere free from attachment.॥68॥
महदादि जगद्द्वैतं नाममात्रविजृंभितं।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते॥१८- ६९॥
महतत्त्व से लेकर सम्पूर्ण द्वैतरूप दृश्य जगत नाम मात्र का ही विस्तार है।
शुद्ध बोध स्वरुप धीर ने जब उसका भी परित्याग कर दिया फिर भला उसका क्या कर्तव्य शेष है॥६९॥
शुद्ध बोध स्वरुप धीर ने जब उसका भी परित्याग कर दिया फिर भला उसका क्या कर्तव्य शेष है॥६९॥
What remains to be done by the man who is pure awareness and has abandoned everything that can be expressed in words from the highest heaven to the earth itself?॥69॥
भ्रमभृतमिदं सर्वं किंचिन्नास्तीति निश्चयी।
अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति॥१८- ७०॥
यह सम्पूर्ण दृश्य जगत भ्रम मात्र है, यह कुछ नहीं है - ऐसे निश्चय से युक्त पुरुष दृश्य की स्फूर्ति से भी रहित हो जाता है और स्वभाव से ही शांत हो जाता है॥७०॥
The pure man who has experienced the Indescribable attains peace by his own nature, realizing that all this is nothing but illusion, and that nothing is.॥70॥
शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।
क्व विधिः क्व वैराग्यं क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा॥१८- ७१॥
जो शुद्ध स्फुरण रूप है, जिसे दृश्य सत्तावान नहीं मालूम पड़ता, उसके लिए विधि क्या, वैराग्य क्या, त्याग क्या और शांति भी क्या॥७१॥
There are no rules, dispassion, renunciation or meditation for one who is pure receptivity by nature, and admits no knowable form of being?॥71॥
स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः।
क्व बन्धः क्व च वा मोक्षः क्व हर्षः क्व विषादिता॥१८- ७२॥
जो अनंत रूप से स्वयं स्फुरित हो रहा है और प्रकृति की पृथक् सत्ता को नहीं देखता है, उसके लिए बंधन कहाँ, मोक्ष कहाँ, हर्ष कहाँ और विषाद कहाँ॥७२॥
For him who shines with the radiance of Infinity and is not subject to natural causality there is neither bondage, liberation, pleasure nor pain.॥72॥
बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः॥१८- ७३॥
बुद्धि के अंत तक ही संसार है और यह केवल माया का विवर्त है, इस तत्त्व को जानने वाला बुद्धिमान ममता, अहंकार और कामना से रहित होकर शोभित होता है॥७३॥
Pure illusion reigns in samsara which will continue until self realisation, but the enlightened man lives in the beauty of freedom from me and mine, from the sense of responsibility and from any attachment. ॥73॥
अक्षयं गतसन्ताप- मात्मानं पश्यतो मुनेः।
क्व विद्या च क्व वा विश्वं क्व देहोऽहं ममेति वा॥१८- ७४॥
जो मुनि संताप से रहित अपने अविनाशी स्वरुप को जानता है, उसके लिए विद्या कहाँ और विश्व कहाँ अथवा देह कहाँ और मैं-मेरा कहाँ॥७४॥
For the seer who knows himself as imperishable and beyond pain there is neither knowledge, a world nor the sense that I am the body or the body mine.॥74॥
निरोधादीनि कर्माणि जहाति जडधीर्यदि।
मनोरथान् प्रलापांश्च कर्तुमाप्नोत्यतत्क्षणात्॥१८- ७५॥
जड़ बुद्धि वाला यदि निरोध आदि कर्मों को छोड़ देता है तो अगले क्षण बड़े-बड़े मनोरथ बनाने और प्रलाप करने लगता है॥७५॥
No sooner does a man of low intelligence give up activities like the elimination of thought than he falls into mental chariot racing and babble.॥75॥
मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहाति विमूढतां।
निर्विकल्पो बहिर्यत्नाद- न्तर्विषयलालसः॥१८- ७६॥
अज्ञानी तत्त्व का श्रवण करके भी अपनी मूढ़ता का त्याग नहीं करता, वह बाह्य रूप से तो निसंकल्प हो जाता है पर उसके अंतर्मन में विषयों की इच्छा बनी रहती है॥७६॥
A fool does not get rid of his stupidity even on hearing the truth. He may appear outwardly free from imaginations, but inside he is hankering after the senses still.॥76॥
ज्ञानाद् गलितकर्मा यो लोकदृष्ट्यापि कर्मकृत्।
नाप्नोत्यवसरं कर्मं वक्तुमेव न किंचन॥१८- ७७॥
ज्ञान से जिसका कर्म-बंधन नष्ट हो गया है, वह लौकिक रूप से कर्म करता रहे तो भी उसके कुछ करने या कहने का अवसर नहीं रहता (क्योंकि वह अकर्ता और अवक्ता है)॥७७॥
Though in the eyes of the world he is active, the man who has shed action through knowledge finds no means of doing or speaking anything.॥77॥
क्व तमः क्व प्रकाशो वा हानं क्व च न किंचन।
निर्विकारस्य धीरस्य निरातंकस्य सर्वदा॥१८- ७८॥
जो धीर सदा निर्विकार और भय रहित है, उसके लिए अन्धकार कहाँ, प्रकाश कहाँ और त्याग कहाँ? उसके लिए किसी का अस्तित्व नहीं रहता॥७८॥
For the wise man who is always unchanging and fearless there is neither darkness nor light nor destruction, nor anything.॥78॥
क्व धैर्यं क्व विवेकित्वं क्व निरातंकतापि वा।
अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्वभावस्य योगिनः॥१८- ७९॥
योगी को धैर्य कहाँ, विवेक कहाँ और निर्भयता भी कहाँ? उसका स्वभाव अनिर्वचनीय है और वह वस्तुतः स्वभाव रहित है॥७९॥
There is neither fortitude, prudence nor courage for the yogi whose nature is beyond description and free of individuality.॥79॥
न स्वर्गो नैव नरको जीवन्मुक्तिर्न चैव हि।
बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्ट्या न किंचन॥१८- ८०॥
योगी के लिए न स्वर्ग है, न नरक और न जीवन्मुक्ति ही। इस सम्बन्ध में अधिक कहने से क्या लाभ है योग की दृष्टि से कुछ भी नहीं है॥८०॥
There is neither heaven nor hell nor even liberation during life. In a nutshell, in the sight of the seer nothing exists at all.॥80॥
नैव प्रार्थयते लाभं नालाभेनानुशोचति।
धीरस्य शीतलं चित्तम- मृतेनैव पूरितम्॥१८- ८१॥
धीर का चित्त ऐसे शीतल रहता है जैसे वह अमृत से परिपूर्ण हो। वह न लाभ की आशा करता है और न हानि का शोक॥८१॥
He neither longs for possessions nor grieves at their absence.
The calm mind of the sage is full of the nectar of immortality.॥81॥
The calm mind of the sage is full of the nectar of immortality.॥81॥
न शान्तं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निन्दति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति॥१८- ८२॥
धीर पुरुष न संत की स्तुति करता है और न दुष्ट की निंदा।
वह सुख-दुख में समान, स्वयं में तृप्त रहता है।
वह अपने लिए कोई भी कर्तव्य नहीं देखता॥८२॥
वह सुख-दुख में समान, स्वयं में तृप्त रहता है।
वह अपने लिए कोई भी कर्तव्य नहीं देखता॥८२॥
The dispassionate does not praise the good or blame the wicked.
Content and equal in pain and pleasure, he sees nothing that needs doing.॥82॥
Content and equal in pain and pleasure, he sees nothing that needs doing.॥82॥
धीरो न द्वेष्टि संसारमा- त्मानं न दिदृक्षति।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति॥१८- ८३॥
धीर पुरुष न संसार से द्वेष करता है और न आत्म-दर्शन की इच्छा। वह हर्ष और शोक से रहित है। लौकिक दृष्टि से वह न तो मृत है और न जीवित॥८३॥
The wise man does not dislike samsara or seek to know himself. Free from pleasure and impatience, he is not dead and he is not alive.॥83॥
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः॥१८- ८४॥
जो धीर पुरुष पुत्र-स्त्री आदि के प्रति आसक्ति से रहित होता है, विषय की उपलब्धि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती, अपने शरीर के लिए भी निश्चिन्त रहता है, सभी आशाओं से रहित होता है, वह सुशोभित होता है॥८४॥
The wise man stands out by being free from anticipation, without attachment to such things as children or wives, free from desire for the senses, and not even concerned about his own body.॥84॥
तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।
स्वच्छन्दं चरतो देशान् यत्रस्तमितशायिनः॥१८- ८५॥
जहाँ सूर्यास्त हुआ वहां सो लिया, जहाँ इच्छा हुई वहां रह लिया, जो सामने आया उसी के अनुसार व्यवहार कर लिया। इस प्रकार धीर सर्वत्र संतुष्ट रहता है॥८५॥
Peace is everywhere for the wise man who lives on whatever happens to come to him, going to wherever he feels like, and sleeping wherever the sun happens to set.॥85॥
पततूदेतु वा देहो नास्य चिन्ता महात्मनः।
स्वभावभूमिविश्रान्ति- विस्मृताशेषसंसृतेः॥१८- ८६॥
जो अपने आत्मस्वरुप में विश्राम करते हुए सभी प्रपंचों का नाश कर चुका है, उस महात्मा को शरीर रहे अथवा नष्ट हो जाये - ऐसी चिंता भी नहीं होती॥८६॥
Let his body rise or fall. The great souled one gives it no thought, having forgotten all about samsara in coming to rest on the ground of his true nature.॥86॥
अकिंचनः कामचारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः॥१८- ८७॥
ज्ञानी पुरुष संग्रह रहित, स्वच्छंद, निर्द्वन्द्व और संशय रहित होता है।
वह किसी भाव में आसक्त नहीं होता। वह तो केवल आनंद से विहार करता है ॥८७॥
वह किसी भाव में आसक्त नहीं होता। वह तो केवल आनंद से विहार करता है ॥८७॥
The wise man excels in being without the sense of 'me'. Earth, a stone or gold are the same to him.
The knots of his heart have been rent asunder, and he is freed from greed and blindness.॥88॥
The knots of his heart have been rent asunder, and he is freed from greed and blindness.॥88॥
निर्ममः शोभते धीरः समलोष्टाश्मकांचनः।
सुभिन्नहृदयग्रन्थि- र्विनिर्धूतरजस्तमः॥१८- ८८॥
धीर पुरुष की ह्रदय ग्रंथि खुल जाती है, रज और तम नष्ट हो जाते हैं।
वह मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखता है, ममता रहित वह सुशोभित होता है॥८८॥
वह मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखता है, ममता रहित वह सुशोभित होता है॥८८॥
The wise man excels in being without the sense of 'me'. Earth, a stone or gold are the same to him.
The knots of his heart have been rent asunder, and he is freed from greed and blindness.॥88॥
The knots of his heart have been rent asunder, and he is freed from greed and blindness.॥88॥
सर्वत्रानवधानस्य न किंचिद् वासना हृदि।
मुक्तात्मनो वितृप्तस्य तुलना केन जायते॥१८- ८९॥
जो इस दृश्य प्रपंच पर ध्यान नहीं देता, आत्म तृप्त है, जिसके ह्रदय में जरा सी भी कामना नहीं होती - ऐसे मुक्तात्मा की तुलना किसके साथ की जा सकती है॥८९॥
Who can compare with that contented, liberated soul who pays no regard to anything and has no desire left in his heart?॥89॥
जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति।
ब्रुवन्न् अपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनादृते॥१८- ९०॥
कामनारहित धीर के अतिरिक्त ऐसा और कौन है जो जानते हुए भी न जाने, देखते हुए भी न देखे और बोलते हुए भी न बोले॥ ९०॥
Who but the upright man without desire knows without knowing, sees without seeing and speaks without speaking?॥90॥
भिक्षुर्वा भूपतिर्वापि यो निष्कामः स शोभते।
भावेषु गलिता यस्य शोभनाशोभना मतिः॥१८- ९१॥
राजा हो या रंक, जो कामना रहित है वह ही सुशोभित होता है।
जिसकी दृश्य वस्तुओं में शुभ और अशुभ बुद्धि समाप्त हो गयी है वह निष्काम है॥९१॥
जिसकी दृश्य वस्तुओं में शुभ और अशुभ बुद्धि समाप्त हो गयी है वह निष्काम है॥९१॥
Beggar or king, he excels who is without desire, and whose opinion of things is rid of 'good' and 'bad'.॥91॥
क्व स्वाच्छन्द्यं क्व संकोचः क्व वा तत्त्वविनिश्चयः।
निर्व्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः॥१८- ९२॥
योगी निष्कपट, सरल और चरित्रवान होता है। उसके लिए स्वच्छंदता क्या, संकोच क्या और तत्त्व विचार भी क्या॥९२॥
There is neither dissolute behaviour nor virtue, nor even discrimination of the truth for the sage who has reached the goal and is the very embodiment of guileless sincerity.॥92॥
आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतार्तिना।
अन्तर्यदनुभूयेत तत् कथं कस्य कथ्यते॥१८- ९३॥
जो अपने स्वरुप में विश्राम करके तृप्त है, आशा रहित है, दुःख रहित है, वह अपने अन्तः करण में जिस आनंद का अनुभव करता है वह कैसे किसी को बताया जा सकता है॥९३॥
How can one describe what is experienced within by one desireless and free from pain, and content to rest in himself - and of whom?॥93॥
सुप्तोऽपि न सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शयितो न च।
जागरेऽपि न जागर्ति धीरस्तृप्तः पदे पदे॥१८- ९४॥
धीर पुरुष पद-पद पर तृप्त रहता है। वह सोकर भी नहीं सोता, वह स्वप्न देखकर भी नहीं देखता और जाग्रत रहने पर भी नहीं जगता॥९४॥
The wise man who is contented in all circumstances is not asleep even in deep sleep, not sleeping in a dream, nor waking when he is awake.॥94॥
ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहङ्कृतिः॥१८- ९५॥
धीर पुरुष चिन्तावान होने पर भी चिंतारहित होता है, इन्द्रिय युक्त होने पर भी इन्द्रिय रहित होता है, बुद्धि युक्त होने पर भी बुद्धि रहित होता है और अहंकार सहित होने पर भी अहंकार रहित होता है॥९५॥
The seer is without thoughts even when thinking, without senses among the senses, without understanding even in understanding and without a sense of responsibility even in the ego.॥95॥
न सुखी न च वा दुःखी न विरक्तो न संगवान्।
न मुमुक्षुर्न वा मुक्ता न किंचिन्न्न च किंचन॥१८- ९६॥
धीर पुरुष न सुखी होता है और न दुखी, न विरक्त होता है और न अनुरक्त। वह न मुमुक्षु है और न मुक्त। वह कुछ नहीं है, कुछ नहीं है॥९६॥
A man with tranquil mind is neither happy nor unhappy, neither detached nor attached. He is neither seeking liberation nor liberated. He is nothing of these, nothing of these.॥96॥
विक्षेपेऽपि न विक्षिप्तः समाधौ न समाधिमान्।
जाड्येऽपि न जडो धन्यः पाण्डित्येऽपि न पण्डितः॥१८- ९७॥
धीर पुरुष विक्षेप में विक्षिप्त नहीं होता, समाधि में समाधिस्थ नहीं होता। उसकी लौकिक जड़ता में वह जड़ नहीं है और पांडित्य में पंडित नहीं है॥९७॥
A man with tranquil mind does not get distracted by disturbances, in meditation he does not meditate. A blessed man neither gains stupidity by his worldly acts, nor does he gets wisdom.॥97॥
मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्तव्यनिर्वृतः।
समः सर्वत्र वैतृष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम्॥१८- ९८॥
धीर पुरुष सभी स्थितियों में अपने स्वरुप में स्थित रहता है। कर्तव्य रहित होने से शांत होता है। सदा समान रहता है। तृष्णा रहित होने के कारण वह क्या किया और क्या नहीं - इन बातों का स्मरण नहीं करता॥९८॥
A man with tranquil mind remains established in his self. Being without any duty, he is at peace. He is always the same.As he is without greed, he does not recall what he has done or not done.॥98॥
न प्रीयते वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यति।
नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति॥१८- ९९॥
वंदना करने से वह प्रसन्न नहीं होता, निंदा करने से क्रोधित नहीं होता। मृत्यु से उद्वेग नहीं करता और जीवन का अभिनन्दन नहीं करता॥९९॥
He is neither pleased when praised nor gets upset when blamed. He is neither afraid of death nor attached to life.॥99॥
न धावति जनाकीर्णं नारण्यं उपशान्तधीः।
यथातथा यत्रतत्र सम एवावतिष्ठते॥१८- १००॥
शांत बुद्धि वाला धीर न तो जनसमूह की ओर दौड़ता है और न वन की ओर। वह जहाँ जिस स्थिति में होता है, वहां ही समचित्त से आसीन रहता है॥१००॥
A man at peace does not run off to popular resorts or to the forest. Wherever, he remains in whatever condition he exists with a tranquil mind.॥100॥
कहा जाता है कि अष्टावक्र द्वारा रचित महागीता का एक श्लोक हज़ार माणिकों की तुलना मे भी बहुत अमूल्य है क्यूंकी अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोकों मे गागर मे सागर भरने जैसा बताया गया है। लोक हित के लिए गीता बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसे पढ़ना भी आवश्यक है।
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कहा जाता है कि अष्टावक्र द्वारा रचित महागीता का एक श्लोक हज़ार माणिकों की तुलना मे भी बहुत अमूल्य है क्यूंकी अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोकों मे गागर मे सागर भरने जैसा बताया गया है। लोक हित के लिए गीता बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसे पढ़ना भी आवश्यक है।
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