अष्टावक्र गीता अठारहवाँ अध्याय भाग 1- Eighteenth Chapter Part 1 of Ashtavakra Geeta in Hindi
Eighteenth Chapter of Ashtavakra Geeta in Hindi- महापंडित एवं विद्वान अष्टावक्र की बुद्धिमत्ता से आप सभी लोग परिचित होंगे। जनक की सभा मे उन्होने बंदी से शास्त्रार्थ करके अपनी विद्वता का परिचय दिया था। और बंदी को उनके अहंकार के बारे मे ज्ञात करवाया था। उन्ही के द्वारा रचित महागीता का यहाँ अठारहवाँ अध्याय प्रस्तुत है।
आपकी सरलता और आसानी के लिए हमने यहाँ पर अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोक संस्कृत के साथ साथ हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी भावार्थ के साथ प्रकाशित किए हैं। जिससे आपको अध्ययन करने मे आसानी हो।
आपकी सरलता और आसानी के लिए हमने यहाँ पर अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोक संस्कृत के साथ साथ हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी भावार्थ के साथ प्रकाशित किए हैं। जिससे आपको अध्ययन करने मे आसानी हो।
Eighteenth Chapter Part 1 of Ashtavakra Geeta in Hindi |
अष्टावक्र गीता अठारहवाँ अध्याय भाग 1- Eighteenth Chapter Part 1 of Ashtavakra Geeta in Hindi
अष्टावक्र उवाच - यस्य बोधोदये तावत्- स्वप्नवद् भवति भ्रमः।
तस्मै सुखैकरूपाय नमः शान्ताय तेजसे॥१८- १॥
अष्टावक्र कहते हैं - जिस बोध का उदय होने पर, जागने पर स्वप्न के समान भ्रम की निवृत्ति हो जाती है, उस एक, सुखस्वरूप शांत प्रकाश को नमस्कार है॥१॥
Ashtavakra says - Salutations to the One, blissful, serene light like awareness which removes delusion like a dream.॥1॥
अर्जयित्वाखिलान् अर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान्।
न हि सर्वपरित्याजम- न्तरेण सुखी भवेत्॥१८- २॥
जगत के सभी पदार्थों को प्राप्त करके कोई बहुत से भोग प्राप्त कर सकता है पर उन सबका आतंरिक त्याग किये बिना सुखी नहीं हो सकता॥२॥
One may indulge in all sorts of pleasure by acquiring various objects of enjoyment, but one cannot be truly happy without their inner renunciation.॥2॥
कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वाला दग्धान्तरात्मनः।
कुतः प्रशमपीयूषधारा- सारमृते सुखम्॥१८- ३॥
जिसका मन यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य आदि दुखों की तीव्र ज्वाला से झुलस रहा है, उसे भला कर्म त्याग रूपी शांति की अमृत-धारा का सेवन किये बिना सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है॥३॥
How can there be happiness, for one whose mind is burnt by the intense flame of what to be done and what not to be done.
How can one attain bliss of the nectar-stream of peace without being desire-less?॥3॥
How can one attain bliss of the nectar-stream of peace without being desire-less?॥3॥
भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित् परमर्थतः।
नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम्॥१८- ४॥
यह संसार केवल एक भावना मात्र है, परमार्थतः कुछ भी नहीं है।
भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता॥४॥
भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता॥४॥
This existence is just imagination. It is nothing in reality, but there is no non-being for natures that know how to distinguish being from non being.॥4॥
न दूरं न च संकोचाल्- लब्धमेवात्मनः पदं।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्॥१८- ५॥
आत्मा न तो दूर है और न पास, वह तो प्राप्त ही है, तुम स्वयं ही हो उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न, न विकार और न मल ही॥५॥
The realm of one's own self is not far away, and nor can it be achieved by the addition of limitations to its nature. It is unimaginable, effortless, unchanging and spotless.॥5॥
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।
वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः॥१८- ६॥
अज्ञान मात्र की निवृत्ति और स्वरुप का ज्ञान होते ही दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्त्व को जानने वाला शोक से रहित होकर शोभायमान हो जाता है॥६॥
By the simple elimination of delusion and the recognition of one's true nature, those whose vision is unclouded live free from sorrow.॥6॥
समस्तं कल्पनामात्र- मात्मा मुक्तः सनातनः।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्॥१८- ७॥
सब कुछ कल्पना मात्र है और आत्मा नित्य मुक्त है, धीर पुरुष इस तथ्य को जान कर फिर बालक के समान क्या अभ्यास करे?॥७॥
Knowing everything as just imagination, and himself as eternally free, how should the wise man behave like a fool?॥7॥
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्॥१८- ८॥
आत्मा ही ब्रह्म है और भाव-अभाव कल्पित हैं - ऐसा निश्चय हो जाने पर निष्काम ज्ञानी फिर क्या जाने, क्या कहे और क्या कहे॥८॥
Knowing himself to be God and being and non-being just imagination, what should the man free from desire learn, say or do?॥8॥
अयं सोऽहमयं नाहं इति क्षीणा विकल्पना।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णींभूतस्य योगिनः॥१८- ९॥
सब आत्मा ही है - ऐसा निश्चय करके जो चुप हो गया है, उस पुरुष के लिए यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ आदि कल्पनाएँ भी शांत हो जाती हैं॥९॥
Considerations like 'I am this' or 'I am not this' are finished for the yogi who has gone silent realising 'Everything is myself'.॥9॥
न विक्षेपो न चैकाग्र्यं नातिबोधो न मूढता।
न सुखं न च वा दुःखं उपशान्तस्य योगिनः॥१८- १०॥
अपने स्वरुप में स्थित होकर शांत हुए तत्त्व ज्ञानी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता, न ज्ञान है और न अज्ञान, न सुख है और न दुःख॥१०॥
For the yogi who has found peace, there is no distraction or one-pointedness, no higher knowledge or ignorance, no pleasure and no pain.॥10॥
स्वाराज्ये भैक्षवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः॥१८- ११॥
जो योगी स्वभाव से ही विकल्प रहित है, उसके लिए अपने राज्य में या भिक्षा में, लाभ-हानि में, भीड़ में या सुने जंगल में कोई अंतर नहीं है॥११॥
The dominion of heaven or beggary, gain or loss, life among men or in the forest, these make no difference to a yogi whose nature it is to be free from distinctions.॥11॥
क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१८- १२॥
यह कर लिया और यह कार्य शेष है, इन द्वंद्वों से जो मुक्त है, उसके लिए धर्म कहाँ, कर्म कहाँ, अर्थ कहाँ और विवेक कहाँ॥१२॥
There is no religion, wealth, sensuality or discrimination for a yogi free from the pairs of opposites such as 'I have done this' and 'I have not done that'.॥12॥
कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१८- १३॥
जीवन्मुक्त योगी का न तो कुछ कर्तव्य है और न ही उसके ह्रदय में कोई अनुराग है। जैसे भी जीवन बीत जाये वैसे ही उसकी स्थिति है॥१३॥
There is nothing needing to be done, or any attachment in his heart for the yogi liberated while still alive. Things are just for a lifetime.॥13॥
क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व तद् ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः॥१८- १४॥
जो महात्मा सभी संकल्पों की सीमा पर विश्राम कर रहा है, उसके लिए मोह कहाँ, संसार कहाँ, ध्यान कहाँ और मुक्ति भी कहाँ?॥१४॥
There is no delusion, world, meditation on That, or liberation for the pacified great soul. All these things are just the realm of imagination.॥14॥
येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति॥१८- १५॥
जिसने इस संसार को वास्तव में देखा हो वह कहे कि यह नहीं है, नहीं है। जो कामना रहित है, वह तो इसको देखते हुए भी नहीं देखता॥१५॥
He by whom all this is seen may well make out he doesn't exist, but what is the desireless one to do? Even in seeing he does not see.॥15॥
येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत्।
किं चिन्तयति निश्चिन्तो यो न पश्यति॥१८- १६॥
जिसने अपने से भिन्न परब्रह्म को देखा हो, वह चिंतन किया करे कि वह ब्रह्म मैं हूँ पर जिसे कुछ दूसरा दिखाई नहीं देता, वह निश्चिन्त क्या विचार करे॥१६॥
He by whom the Supreme Brahma is seen may think 'I am Brahma', but what is he to think who is without thought, and who sees no duality.॥16॥
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्॥१८- १७॥
जिसने अपने स्वरुप में कभी कोई विक्षेप देखा हो वह उसको रोके। तत्त्व को जानने वाले का विक्षेप कभी होता ही नहीं है, किसी साध्य के बिना वह क्या करे॥१७॥
He by whom inner distraction is seen may put an end to it, but the noble one is not distracted. When there is nothing to achieve, what is he to do?॥17॥
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
नो समाधिं न विक्षेपं न लोपं स्वस्य पश्यति॥१८- १८॥
तत्त्वज्ञ तो सांसारिक लोगों से उल्टा ही होता है, वह सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करता हुआ भी अपने स्वरुप में न समाधि देखता है, न विक्षेप और न लय ही॥१८॥
The wise man, unlike the worldly man, does not see inner stillness, distraction or fault in himself, even when living like a worldly man.॥18॥
भावाभावविहीनो यस्- तृप्तो निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता॥१८- १९॥
तत्त्वज्ञ भाव और अभाव से रहित, तृप्त और कामना रहित होता है। लौकिक दृष्टि से कुछ उल्टा-सीधा करते हुए भी वह कुछ भी नहीं करता॥१९॥
Nothing is done by him who is free from being and non-being, who is contented, desireless and wise, even if in the world's eyes he does act.॥19॥
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठते सुखम्॥१८- २०॥
तत्त्वज्ञ का प्रवृत्ति या निवृत्ति का दुराग्रह नहीं होता। जब जो सामने आ जाता है तब उसे करके वह आनंद से रहता है॥२०॥
The wise man who just goes on doing what presents itself for him to do, encounters no difficulty in either activity or inactivity.॥20॥
निर्वासनो निरालंबः स्वच्छन्दो मुक्तबन्धनः।
क्षिप्तः संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत्॥१८- २१॥
ज्ञानी कामना, आश्रय और परतंत्रता आदि के बंधनों से सर्वथा मुक्त होता है। प्रारब्ध रूपी वायु के वेग से उसका शरीर उसी प्रकार गतिशील रहता है जैसे वायु के वेग से सूखा पत्ता॥२१॥
He who is desireless, self-reliant, independent and free of bonds functions like a dead leaf blown about by the wind of causality.॥21॥
असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादिता।
स शीतलहमना नित्यं विदेह इव राजये॥१८- २२॥
जो संसार से मुक्त है वह न कभी हर्ष करता है और न विषाद। उसका मन सदा शीतल रहता है और वह (शरीर रहते हुए भी) विदेह के समान सुशोभित होता है॥२२॥
There is neither joy nor sorrow for one who has transcended samsara. He lives always with a peaceful mind and as if without a body.॥22॥
कुत्रापि न जिहासास्ति नाशो वापि न कुत्रचित्।
आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः॥१८- २३॥
जिसका अंतर्मन शीतल और स्वच्छ है, जो आत्मा में ही रमण करता है, उस धीर पुरुष की न तो किसी त्याग की इच्छा होती है और न कुछ पाने की आशा॥२३॥
He whose joy is in himself, and who is peaceful and pure within has no desire for renunciation or sense of loss in anything.॥23॥
प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥१८- २४॥
जिस धीर पुरुष का चित्त स्वभाव से ही निर्विषय है, वह साधारण मनुष्य के समान प्रारब्ध वश बहुत से कार्य करता है पर उसका उसे न तो मान होता है और न अपमान ही॥२४॥
For the man with a naturally empty mind, doing just as he pleases, there is no such thing as pride or false humility, as there is for the natural man.॥24॥
कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा।
इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न॥१८- २५॥
'यह कर्म शरीर ने किया है, मैंने नहीं, मैं तो शुद्ध स्वरुप हूँ' - इस प्रकार जिसने निश्चय कर लिया है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता॥२५॥
This action was done by the body but not by me'. The pure-natured person thinking like this, is not acting even when acting.॥25॥
अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपि शोभते॥१८- २६॥
सुखी और श्रीमान् जीवन्मुक्त विषयी के समान कार्य करता है, परन्तु विषयी नहीं होता है वह तो सांसारिक कार्य करता हुआ भी शोभा को प्राप्त होता है॥२६॥
He who acts without being able to say why, but not because he is a fool, he is one liberated while still alive, happy and blessed. He thrives even in samsara.॥26॥
नाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः।
न कल्पते न जाति न शृणोति न पश्यति॥१८- २७॥
जो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरूप में विश्राम पा चुका है, वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है और न देखता ही है॥२७॥
He who has had enough of endless considerations and has attained to peace, does not think, know, hear or see.॥27॥
असमाधेरविक्षेपान् न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः॥१८- २८॥
ऐसा ज्ञानी समाधि में आग्रह न होने के कारण मुमुक्षु नहीं और विक्षेप न होने के कारण विषयी नहीं है। मेरे अतिरिक्त जो कुछ भी दिख रहा है वह सब कल्पित ही है - ऐसा निश्चय करके सबको देखता हुआ वह ब्रह्म ही है॥२८॥
He who is beyond mental stillness and distraction, does not desire either liberation or anything else. Recognising that things are just constructions of the imagination, that great soul lives as God here and now.॥28॥
यस्यान्तः स्यादहंकारो न करोति करोति सः।
निरहंकारधीरेण न किंचिदकृतं कृतम्॥१८- २९॥
जिसके अन्तः करण में अहंकार विद्यमान है वह देखने में कर्म न करे तो भी करता है। पर जो धीर पुरुष निरहंकार है, वह सब कुछ करते हुए भी कर्म नहीं करता॥२९॥
He who feels responsibility within, acts even when not acting, but there is no sense of done or undone for the wise man who is free from the sense of responsibility.॥29॥
नोद्विग्नं न च सन्तुष्ट- मकर्तृ स्पन्दवर्जितं।
निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते॥१८- ३०॥
मुक्त पुरुष के चित्त में न उद्वेग है, न संतोष और न कर्तृत्व का अभिमान ही है उसके चित्त में न आशा है, न संदेह ऐसा चित्त ही सुशोभित होता है॥३०॥
The mind of the liberated man is not upset or pleased. It shines unmoving, desireless, and free from doubt.॥30॥
निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किंतु निर्ध्यायेति विचेष्टते॥१८- ३१॥
जीवन्मुक्त का चित्त ध्यान से विरत होने के लिए और व्यवहार करने की चेष्टा नहीं करता है। निमित्त के शून्य होने पर वह ध्यान से विरत भी होता है और व्यवहार भी करता है॥३१॥
He whose mind does not set out to meditate or act, meditates and acts without an object.॥31॥
तत्त्वं यथार्थमाकर्ण्य मन्दः प्राप्नोति मूढतां।
अथवा याति संकोचम- मूढः कोऽपि मूढवत्॥१८- ३२॥
अविवेकी पुरुष यथार्थ तत्त्व का वर्णन सुनकर और अधिक मोह को प्राप्त होता है या संकुचित हो जाता है। कभी-कभी तो कुछ बुद्धिमान भी उसी अविवेकी के समान व्यवहार करने लगते हैं॥३२॥
A stupid man is bewildered when he hears the real truth, while even a clever man is humbled by it just like the fool.॥32॥
एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यस्यते भृशं।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत्स्वपदे स्थिताः॥१८- ३३॥
मूढ़ पुरुष बार-बार (चित्त की ) एकाग्रता और निरोध का अभ्यास करते हैं। धीर पुरुष सुषुप्त के समान अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए कुछ भी कर्तव्य रूप से नहीं करते॥३३॥
The ignorant make a great effort to practice one-pointedness and the stopping of thought, while the wise see nothing to be done and remain in themselves like those asleep.॥33॥
अप्रयत्नात् प्रयत्नाद् वा मूढो नाप्नोति निर्वृतिं।
तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः॥१८- ३४॥
मूढ़ पुरुष प्रयत्न से या प्रयत्न के त्याग से शांति प्राप्त नहीं करता पर प्रज्ञावान पुरुष तत्त्व के निश्चय मात्र से शांति प्राप्त कर लेता है॥३४॥
The stupid does not attain cessation whether he acts or abandons action, while the wise man find peace within simply by knowing the truth.॥34॥
शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं निष्प्रपंचं निरामयं।
आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपरा जनाः॥१८- ३५॥
आत्मा के सम्बन्ध में जो लोग अभ्यास में लग रहे हैं, वे अपने शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, पूर्ण, निष्प्रपंच और निरामय ब्रह्म-स्वरूप को नहीं जानते॥३५॥
People cannot come to know themselves by practices - pure awareness, clear, complete, beyond multiplicity and faultless though they are.॥35॥
नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा।
धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥१८- ३६॥
अज्ञानी मनुष्य कर्म रूपी अभ्यास से मुक्ति नहीं पा सकता और ज्ञानी कर्म रहित होने पर भी केवल ज्ञान से मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥३६॥
The stupid does not achieve liberation even through regular practice, but the fortunate remains free and actionless simply by discrimination.॥36॥
मूढो नाप्नोति तद् ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्॥१८- ३७॥
अज्ञानी को ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता क्योंकि वह ब्रह्म होना चाहता है। ज्ञानी पुरुष इच्छा न करने पर भी परब्रह्म बोध स्वरूप में रहता है॥३७॥
The stupid does not attain Godhead because he wants to become it, while the wise man enjoys the Supreme Godhead without even wanting it.॥37॥
निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः।
एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः॥१८- ३८॥
अज्ञानी निराधार आग्रहों में पड़कर संसार का पोषण करते रहते हैं। ज्ञानियों ने सभी अनर्थों की जड़ इस संसार की सत्ता का ही पूर्ण नाश कर दिया है॥३८॥
Even when living without any support and eager for achievement, the stupid are still nourishing samsara, while the wise have cut at the very root of its unhappiness.॥38॥
न शान्तिं लभते मूढो यतः शमितुमिच्छति।
धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः॥१८- ३९॥
अज्ञानी शांति नहीं प्राप्त कर सकता क्योंकि वह शांत होने की इच्छा से ग्रस्त है। ज्ञानी पुरुष तत्त्व का दृढ़ निश्चय करके सदैव शांत चित्त ही रहता है॥३९॥
The stupid does not find peace because he is wanting it, while the wise discriminating the truth is always peaceful minded.॥39॥
क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद् दृष्टमवलंबते।
धीरास्तं तं न पश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम्॥१८- ४०॥
अज्ञानी को आत्म-साक्षात्कार कैसे हो सकता है जब वह दृश्य पदार्थों के आश्रय को स्वीकार करता है। ज्ञानी पुरुष तो वे हैं जो दृश्य पदार्थों को न देखते हुए अपने अविनाशी स्वरूप को ही देखते हैं॥४०॥
How can there be self knowledge for him whose knowledge depends on what he sees. The wise do not see this and that, but see themselves as unending.॥40॥
क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बन्धं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥१८- ४१॥
जो आग्रह करता है, उस मूर्ख का चित्त निरुद्ध कहाँ है? आत्मा में रमण करने वाले धीर पुरुष का चित्त तो सदैव स्वाभाविक रूप से निरुद्ध ही रहता है॥४१॥
How can there be cessation of thought for the misguided who is striving for it. Yet it is there always naturally for the wise man delighted in self.॥41॥
भावस्य भावकः कश्चिन् न किंचिद् भावकोपरः।
उभयाभावकः कश्चिद् एवमेव निराकुलः॥१८- ४२॥
कोई पदार्थ की सत्ता की भावना करता है और कोई पदार्थों की असत्ता की। ज्ञानी तो भाव-अभाव दोनों की भावना को छोड़कर निश्चिन्त रहता है॥४२॥
Some think that something exists, and others that nothing does. Rare is the man who does not think either, and is thereby free from distraction.॥42॥
शुद्धमद्वयमात्मानं भावयन्ति कुबुद्धयः।
न तु जानन्ति संमोहा- द्यावज्जीवमनिर्वृताः॥१८- ४३॥
बुद्धिहीन पुरुष अज्ञानवश अपने शुद्ध, अद्वितीय स्वरूप का ज्ञान तो प्राप्त करते नहीं पर केवल भावना करते हैं, उन्हें जीवन पर्यन्त शांति नहीं मिलती॥४३॥
Those of weak intelligence think of themselves as pure non-duality, but because of their delusion do not know this, and remain unfulfilled all their lives.॥43॥
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंब- मन्तरेण न विद्यते।
निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा॥१८- ४४॥
मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि कुछ आश्रय ग्रहण किये बिना नहीं रहती। मुक्त पुरुष की बुद्धि तो सब प्रकार से निष्काम और निराश्रय ही रहती है॥४४॥
The mind of the man seeking liberation can find no resting place within, but the mind of the liberated man is always free from desire by the very fact of being without a resting place.॥44॥
विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताः शरणार्थिनः।
विशन्ति झटिति क्रोडं निरोधैकाग्रसिद्धये॥१८- ४५॥
अज्ञानी पुरुष विषयरूपी मतवाले हाथियों को देखकर भयभीत हो जाते हैं और शरण के लिए तुरंत निरोध और एकाग्रता की सिद्धि के लिए झटपट चित्त की गुफा में घुस जाते है॥४५॥
Seeing the tigers of the senses, the frightened refuge-seekers at once enter the cave in search of cessation of thought and one-pointedness.॥45॥
निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तूष्णीं विषयदन्तिनः।
पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः॥१८- ४६॥
कामना रहित ज्ञानी सिंह है, उसे देखते ही विषय रूपी मतवाले हाथी चुपचाप भाग जाते हैं उनकी एक नहीं चलती उलटे वे तरह-तरह से खुशामद करके सेवा करते हैं॥४६॥
Seeing the desireless lion the elephants of the senses silently run away, or, if they cannot, serve him like courtiers.॥46॥
न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशङ्को युक्तमानसः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्॥१८- ४७॥
शंका रहित ज्ञानी पुरुष मुक्ति के साधनों का अभ्यास नहीं करता, वह तो देखते, सुनते, छूते, सूंघते, भोगते हुए भी आनंद में मग्न रहता है॥४७॥
The man who is free from doubts and whose mind is free does not bother about means of liberation. Whether seeing, hearing, feeling smelling or tasting, he lives at ease.॥47॥
वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिर्निराकुलः।
नैवाचारमनाचार- मौदास्यं वा प्रपश्यति॥१८- ४८॥
शुद्ध-बुद्धि पुरुष वस्तु-तत्त्व के केवल सुनने मात्र से आकुलता रहित हो जाता है, फिर आचार-अनाचार या उदासीनता पर उसकी दृष्टि नहीं जाती॥४८॥
He whose mind is pure and undistracted from the simple hearing of the Truth sees neither something to do nor something to avoid nor a cause for indifference.॥48॥
यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः।
शुभं वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत्॥१८- ४९॥
स्वभाव में स्थित ज्ञानी, शुभ हो या अशुभ, जो जब करने के लिए सामने आ जाता है, तब वह उसे बालक की चेष्टा के समान सरलता से कर डालता है॥४९॥
The straightforward person does whatever arrives to be done, good or bad, for his actions are like those of a child.॥49॥
स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातंत्र्याल्लभते परं।
स्वातंत्र्यान्निर्वृतिं गच्छेत्- स्वातंत्र्यात् परमं पदम्॥१८- ५०॥
स्वतंत्रता से ही सुख की प्राप्ति होती है। स्वतंत्रता से ही परम तत्त्व की उपलब्धि होती है। स्वतंत्रता से ही परम शांति की प्राप्ति होती है। स्वतंत्रता से ही परम पद मिलता है॥५०॥
By inner freedom one attains happiness, by inner freedom one reaches the Supreme, by inner freedom one comes to absence of thought, by inner freedom to the Ultimate State.॥50॥
कहा जाता है कि अष्टावक्र द्वारा रचित महागीता का एक श्लोक हज़ार माणिकों की तुलना मे भी बहुत अमूल्य है क्यूंकी अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोकों मे गागर मे सागर भरने जैसा बताया गया है। लोक हित के लिए गीता बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसे पढ़ना भी आवश्यक है।
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कहा जाता है कि अष्टावक्र द्वारा रचित महागीता का एक श्लोक हज़ार माणिकों की तुलना मे भी बहुत अमूल्य है क्यूंकी अष्टावक्र गीता (Ashtavakra Geeta) के श्लोकों मे गागर मे सागर भरने जैसा बताया गया है। लोक हित के लिए गीता बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसे पढ़ना भी आवश्यक है।
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